आखिर मनरेगा होने के बाद भी क्यों बेरोजगार हैं ग्रामीण

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आखिर मनरेगा होने के बाद भी क्यों बेरोजगार हैं ग्रामीणदस साल बाद भी मनरेगा के बारे में ग्रामीणों को नहीं है पूरी जानकारी। 

अरविन्द्र सिंह परमार (कम्यूनिटी जर्नलिस्ट)

ललितपुर। गाँव में मनरेगा मजदूरों को काम न मिले तो प्रधान व सरकारी कर्मचारियों को दोष मत दीजिए क्योंकि मनरेगा मांग आधारित योजना है। पहले मांग करें तभी काम मिल सकेगा। डिमांड नहीं तो काम नहीं। हालांकि, श्रमिकों को मनरेगा के तहत मांग करने की जानकारी ही नहीं है। इसीलिए बड़े स्तर पर बेगारी की बात की जाती है।

महीनों से मनरेगा मज़दूर हैं परेशान

उत्तर प्रदेश में 59,162 ग्राम पंचायतों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) योजना के अंर्तगत वेबसाइट के अनुसार “वित्तीय वर्ष 2016-17 वर्तमान में 1,56,13,146 परिवारों के पास जॉब कार्ड है। जिसमें से 54,10,413 लाख श्रमिक रोजगार की मांग कर चुके हैं। जिसमें, 44,42,772 लाख श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराया जा चुका है। वर्तमान में पंचायतें महज 22,609 हजार परिवारों को 100 दिन का काम ही दे पायी हैं बाकी को नहीं। ये सभी काम तो करना चाहते हैं, लेकिन इन्हें काम नहीं मिलता। यही कारण है कि 5-6 माह से मनरेगा मजदूर हैरान व परेशान हैं।

जॉब कार्ड तो है, लेकिन काम नहीं

मनरेगा योजना को शुरू हुए दस वर्ष हो चुके हैं। फिर भी मनरेगा की गाइडलाइंस के बारे में किसी भी श्रमिक व पंचायत प्रतिनिधियों को पूरी जानकारी नहीं रहती। दरअसल, व्यापक स्तर पर सरकारी अफसरों की ओर से मनरेगा के संदर्भ में जागरूकता नहीं दी जाती है। जागरूकता के अभाव में श्रमिकों को काम नहीं मिल पा रहा है। इस संबंध में छह ब्लॉक के एक सैकड़ा मनरेगा मजदूरों से बात की गई तो सबने एक सा जबाब दिया कि “जॉब कार्ड तो है, लेकिन काम नहीं। कइयों बार प्रधानजी व कर्मचारियों से काम के लिए कहा गया। वह हमेशा एक ही बात कहते हैं कि ऊपर (सरकार) से काम नहीं खुले हैं। जब काम आयेगा तो बुलावा करवा देंगे, तभी काम मिलेगा। हम लोगों ने आज तक डिमांड अपने हाथ से 10 वर्षों में नही लगाई है।”

खाते में रुपया अाने का करते हैं इंतज़ार

ललितपुर जनपद से पूर्व दिशा महरौनी ब्लॉक के क्योलारी पंचायत के दयाली (42 वर्ष) बताते हैं, “जब हमें काम की जरूरत है, तब काम नहीं मिलता। दस साल से देख रहा हूं। कहने को तो नियम है, जब पालन नहीं होगा तो क्या खाक मजदूरों को जानकारी होगी। जब प्रधान जी बुलाएंगे तभी काम लगता है। मस्टर रोल आज तक हमने नहीं देखा।” वे आगे बताते हैं, “मनरेगा के काम पर किसी को ये पता नहीं होता कि उनका नाम मस्टर रोल पर है भी या नहीं। रामभरोसे काम करते हैं। रुपया खाते में आ गया तो ठीक है नहीं आया तो भटकते रहो। फिर मिलता भी नहीं।”

क्या अधिकारी कतराते हैं मनरेगा से

मनरेगा के मुद्दों पर पैरोकारी करने वाले समाजसेवी जितेंद्र तिवारी बताते हैं, “केंद्र के मनरेगा योजना को पारदर्शी करने के लिए तमाम नियमों के साथ हाइटेक किया है, जिससे “हर हाथ को काम दो, काम के पूरे दाम दो” मिल सके।” वे आगे बताते हैं, “इसके बाद भी श्रमिकों को काम नहीं मिलता क्योंकि प्रधान और कर्मचारी अपना स्वार्थ देखते है। श्रमिक काम तो करना चाहते है, लेकिन डिमांड की जानकारी नहीं है।” वे आगे बताते हैं, “जब तक पंचायत सचिवालय संचालित नहीं होंगे तब तक यह स्थिति कभी नहीं सुधरेगी, जिसके लिए कर्मचारियो की रूची के साथ मजदूरों को जागरूकता की आवश्यकता है।”

प्रधान की इच्छा पर सिमटी मनरेगा

जनजागरण के अभाव में मजदूर की मांग पर आधारित यह योजना ग्राम प्रधानों की इच्छा पर सिमट कर रह गयी है। मनरेगा अधिनियम कि कुछ आधारभूत नियम है, जिनका ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापार स्तर पर प्रचार प्रसार किया जाना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ। आलम ये है कि मनरेगा योजना ग्राम प्रधानों की मर्जी पर निर्भर होकर रह गई है।

नहीं चलते पंचायत भवन

यूपी की ग्राम पंचायतों में बने सचिवालय अथवा पंचायत भवन लाखों की लागत से बने हैं। जो खाली पड़े हैं या खंडहर हो चुके हैं। ऐसे में जब कार्यालयों में कार्रवाई ही नहीं होगी तो मनरेगा सहित अन्य योजनाओं के बारे में किसी को पता कैसे चलेगा। अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक ग्राम पंचायत का ग्राम पंचायत कार्यालय संचालित होना चाहिए, जिसमें गाँव के मजदूरों को किसी भी दिन काम की मांग करने का अवसर सुलभ रहे। साथ ही, ग्राम पंचायत स्तर पर प्राप्त आवेदनों पर ग्राम पंचायत कार्य का निर्धारण करते हुए एक रोस्टर तय करे जिसके आधार पर कार्य की मांग के ठीक 15 दिन के अंदर कार्य आधारित हो सके। कार्य आवंटन की सूचना नोटिस बोर्ड पर चस्पा करनी चाहिए।”

प्रधान की इच्छा पर है कार्य योजना

मनरेगा गाइड लाइन के अनुसार, प्रत्येक वित्तीय वर्ष ग्राम पंचायत द्वारा वार्षिक कार्य योजना ग्राम सभा की खुली बैठक में ग्राम सभा से अनुमोदित करायी जानी चाहिए, जिसके लिए ग्राम सभा की खुली बैठक का आयोजन होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है लेकिन प्रधान के चहेते चंद लोग की ईच्छा पर मनरेगा की कार्ययोजनाएं तय कर ली जाती।

ग्रामीणों को नहीं देते कोई सूचना

मनरेगा अंर्तगत कराये जाने वाले कार्यस्थलो पर एक मजबूत नागरिक सूचना पट्ट लगाये जाने का अधिनियम मे प्रावधान है, जिसमे पारर्दशिता के लिए कार्य की लागत व्यय आदि योजनाऐ अंकित हो। किन्तु धारा पर इस नियम का अनुपालन दिखाई नही देता। साथ ही वर्षवार कराये गये कार्यो का वितरण ग्राम पंचायत की दीवालो पर अंकित किया जाना चाहिए किन्तु बाल पेन्टिंग ग्राम पंचायतों दृारा नहीं की जा रही है।

न बन पायी नियोजन एवं विकास समिति

मनरेगा अधिनियम मे यह भी प्रावधान है कि “तय की गयी वार्षिक कार्ययोजना मे से नियोजन एवं विकास समिति दृारा कार्यो की प्राथमिकता तय किया जाना चाहिए। किन्तु ग्राम पंचायत स्तर पर इस नियम का अनुपालन नहीं किया जा रहा। मनरेगा के तहत स्वीकृत कार्य को निर्धारण समय सीमा मे पूर्ण करा लिया जाना चाहिए, किन्तु पंचायतों की उदासीनता के कारण कई काम बरसों से अधूरे पड़े हैं। इस कारण ग्रामीणों की नजर में मनरेगा अधिनियम मानक बनाकर रह जाता है।

मनरेगा हाईटेक होने के बाद भी धड़ाम

मनरेगा दृारा तय किये गये एक दशक बाद भी मजदूरों की मजदूरी कार्य के 15 दिन के अंदर मिलने की वजह चार-चार माह बाद भी नसीब नहीं हो रही है, जो चिंताजनक है। भले ही केन्द्र सरकार मनरेगा को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए हाईटेक करने की दलील दे रही हो लेकिन गए वर्ष एवं इस वर्ष चार-चार माह से मनरेगा मजदूरों की मजदूरी उनके खातों में नहीं पहुंच सकी। इसका मुख्य कारण रहा केन्द्र सरकार दृारा समय से राज सरकारों की धनराशि आवंटित न किया जाना।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).


   

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