संगम नगरी की यादों में न रह जाएं तांगे

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संगम नगरी की यादों में न रह जाएं तांगेसंगम नगरी में आज भी तांगें अपनी मंथर और मस्त गति से चलते दिखाई देते हैं।

सुशील कुमार सरोज

इलाहाबाद। संगम नगरी में आज भी तांगें अपनी मंथर और मस्त गति से चलते दिखाई देते हैं। इन तांगों की सवारी इलाहाबाद के उन पुराने दिनों की याद दिलाती है, जब सड़कों पर तांगों का दिखना आम बात होती थी और रोजना आते-जाते लोग इसकी सवारी का आनंद लिया करते थे। संगम में स्नान करने आने वाले श्रद्धालुओं के लिए तांगा बेहतरीन विकल्प साबित हो जाता है।

हालांकि इनका चलन पेट्रोल और सीएनजी वाली सवारियों के आगे कम होता जा रहा है। तांगा चालक बताते हैं कि कम लोग ही अब इसकी सवारी करते हैं वह भी कभी-कभार। बारिश और ठंड के दिनों में और परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।

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इस मौसम में उन्हें सवारियां नहीं मिल पाती हैं और घोड़े की खुराक कर्ज लेकर पूरी करते हैं। शादी-विवाह के दिनों में इन्हीं घोड़ों का बग्घी में इस्तेमाल कर कमाई आमदनी से कर्ज को चुकता करते हैं।

घोड़े की खुराक भी महंगी होती है, चना, खली के साथ-साथ तेल भी चिकनाई के लिए शामिल होता है। सप्ताह में साफ-सफाई और मालिश नालों की जांच परख का खर्चा अतिरिक्त पड़ जाता है, और कमाई ना के बराबर होती है। यही कारण है कि आज युवा पीढ़ी इस धंधे में कम दिखाई पड़ रही है। एक तो महंगाई और दूसरे धीमी रफ्तार के चलते मांग ना होने के कारण परंपरागत धंधे को छोड़कर व दूसरे धंधे की ओर रुख कर रहे हैं।

दुकानों में तब्दील हो गए तांगे अड्डे

अंग्रेजों के समय से ही नखासकोने में शानोशौकत की सवारी कहे जाने वाला तांगे का अड्डा स्थित हुआ करता था। शहर में संगम रोड़, दारागंज, जीरो रोड, आनंद भवन और कचहरी के लिए तांगे से यहां से दौड़ते थे। आधुनिक संसाधनों के आ जाने से धीरे-धीरे ये अड्डे दुकानों में तब्दील होते चले गए। तांगा चालक नवाब सौदागर कहना है कि शहर के पुलिस वाले भी तांगा चलने में अड़चने डालते आए हैं। उन्होंने सारे अड्डे बंद करवा दिए। नवाब सौदागर बतलाते है, अंग्रेजों के जमाने में उनका भी अड्डा हुआ करता था, आज यहां दुकानें लग गई हैं। उनका कहना है हमारे बच्चे पूर्वजों की निशानी को कायम नहीं रखना चाहते लेकिन जब तक हम जिंदा है तब तक हमारा तांगा भी जिंदा है।

चलन हो रहा कम

इनका चलन पेट्रोल और सीएनजी वाली सवारियों के आगे कम होता जा रहा है। तांगा चालक बताते हैं कि कम लोग ही अब इसकी सवारी करते हैं वह भी कभी-कभार। बारिश और ठंड के दिनों में और परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।

जीविका पर छाए संकट के बादल

इलाहाबाद के तांगा चालक नवाब सौदागर कहते हैं कि तब और आज में बहुत अंतर आ गया है। पहले घोड़े और घोड़िया भी तांगे के लिए सस्ते दामों में मिल जाया करती थीं, उनके भोजन की सामग्री भी सस्ती थी। पहले जो घोड़ा पांच हजार रुपए में मिलता था, आज उसकी कीमत पचास से साठ हजार रुपए तक हो चुकी है। उनके खाने के लिए चोकर तब तीन से पांच रुपए प्रति रुपए किलो मिल जाता था वही अब बीस से पचीस रुपए किलो तक मिल रहा है।

सौदागर ने बताया कि दिनभर कड़ी मेहनत करने के बाद 400 से 500 रुपए तक की कमाई हो जाती है। इसमें से घोड़े का चारा व अन्य खर्च में 200 रुपए चला जाता है। ऐसे में तांगे के भरोसे परिवार की गाड़ी खींचना असंभव सा लगने लगा है। दूसरी ओर आधुनिकता के इस दौर में अधिकांश लोग तेज रफ्तार के आदी हो चुके हैं। वे ऑटो नहीं मिलने पर ही हमारी ओर रुख करते हैं।

     

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