होली के हुड़दंग से गायब हुई फागुनी गीतों की मिठास

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होली के हुड़दंग से गायब हुई फागुनी गीतों की मिठासपहले फागुन में गाया जाने वाला चौताल, उलारा और बेलार जैसे फागुनी गीत अब सुनाई देने बंद हो गए हैं।

सुशील कुमार

इलाहाबाद। शोरगुल वाले फिल्मी संगीत के बढ़ते दखल के कारण माटी से जुड़े गीतों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। हमारे ग्रामीण जीवन में घुले-मिले पारम्परिक गीतों की मिठास का स्थान कर्कशता वाला तेज संगीत लेता जा रहा है। पहले फागुन में गाया जाने वाला चौताल, उलारा और बेलार जैसे फागुनी गीत अब सुनाई देने बंद हो गए हैं। इसको लेकर लोककलाओं के जानकारों में चिंता का भाव है।

इलाहाबाद आकाशवाणी और दूरदर्शन के मान्यता प्राप्त लोकगीत गायक उदय चन्द्र परदेशी बतलाते हैं, ‘होली आने वाली है। पुराने समय में होली के पहले से ही चार तालों को मिलाकर चौताल गाने का अभ्यास शुरू हो जाता था। इन तालों में दीपचंदी, चाचर, दादरा, कहरवा होते थे, जो धीमी गति झांझ और ढोलक के साथ लय में गाया जाता था। इसका उतार-चढ़ाव इतना गहरा होता था कि सुनने वाला खो सा जाता था लेकिन बदलती परिस्थितियों में यह गीत तेजी से गाँव-देहातों से गायब होते जा रहे हैं। गाँव में अब ऊट-पटांग फिल्मी गीत ज्यादा पसंद आ रहे हैं।’

गाँवों में पनपती राजनीति भी कोढ़ में खाज का काम कर रही है। इस बारे में उदय चन्द्र कहते हैं कि अब ना तो फागुन के महीने में वो मस्ती दिखाई देती है। ना वो मेल-जोल, गाँवों में बढ़ती राजनीति के कारण फैली नफरत से भी इन गीतों की मिठास कम हुई है। अब युवाओं का इन गीतों में आकर्षण ही नहीं बचा है। वे अब चकाचौंध वाले गीतों को गाकर नाम और प्रसिद्धि कमाना चाहते हैं। सरकार की नीतियां भी इसी तरह की है।

लोककला को विकसित करने के लिए सरकार की पहल जरूरी

परदेशी के अनुसार, ‘लोककलाकारों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण भी युवा इन गीतों से दूर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि अब युवाओं में ना तो इसको सीखने की ललक दिखाई दे रही है और ना पहले जैसे कार्यक्रम हो रहे हैं इसलिए लोग इन गीतों को भूलते चले जा रहे हैं।’ उन्होंने कहा कि लोककला को विकसित करने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन और पुरस्कारों की व्याख्या की जानी चाहिए लेकिन सरकार इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है।

अब ना तो फागुन के महीने में वो मस्ती दिखाई देती है। ना वो मेल-जोल, गाँवों में बढ़ती राजनीति के कारण फैली नफरत से भी इन गीतों की मिठास कम हुई है। अब युवाओं का इन गीतों में आकर्षण ही नहीं बचा है। वे अब चकाचौंध वाले गीतों को गाकर नाम और प्रसिद्धि कमाना चाहते हैं। सरकार की नीतियां भी इसी तरह की है।
उदय चन्द्र परदेशी, लोकगीत गायक, आकाशवाणी इलाहाबाद

शिवरात्रि से जमने लगती थी होली गीतों की महफिल

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार शिवरात्रि के दिन से ही होली की शुरुआत मानी जाती थी और इसी के साथ होली की मस्ती शुरू हो जाती थी, गाँवों में फागुनी गीत गाए जाते थे जो होली के बाद तक चलते थे। इन गीतों में होली का उल्लास और फागुन की मस्ती के साथ-साथ माटी से जुड़ाव का भाव भी रहता था। इनमें फाग, धमार, चौताल, कबीरा, जोगीरा, उलारा व बेलार जैसे गीत शामिल होते थे। इस अवसर पर गाए जाने वाले धमार के बोल ‘एक नींद सोये दा बलमुआ आंख भईल बा लाल फागुनी’ मस्ती से सराबोर करने के लिए काफी थे। इसी तरह से फाग के गीत ‘बमबम बोले बाबा कहवा रंगवयला पगरिया’ और ‘उलारा कजरा मारै नजरा घूमई बजरा दुल्हानिहा’ भी माटी का अहसास कराते थे।

      

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