किताब समीक्षा: ठीक तुम्हारे पीछे

Jamshed QamarJamshed Qamar   1 Oct 2016 11:17 PM GMT

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किताब समीक्षा: ठीक तुम्हारे पीछेBook Review of Theek Tumhare Peeche 

शीर्षक: ठीक तुम्हारे पीछे

लेखक: मानव कौल

प्रकाशक: हिन्दी युग्म

मैंने अभिनेताओं गायकों, गीतकारों पर लिखी हुई कई किताबें पढ़ी हैं। जिनमें उनके निजी जीवन से लेकर बॉलीवुड जगत में उनके संघर्ष और उपलब्धियों का ज़िक्र होता है, लेकिन किसी अभिनेता का खुद कहानी लिखना, ना केवल शौक की तरह बल्कि उन कहानियों को पूरी किताब की शक्ल देकर पाठकों के हाथों में सौंप देना, इतना आसान कहाँ होता है? अंग्रेज़ी भाषा में नसीरुद्दीन साहब ने यह ईमानदार कोशिश की है उनकी आत्मकथा “एण्ड दैन वन डे” 2015 में सुर्खियों में थी लेकिन हिन्दी की जेब अधिकतर खाली ही रही। हिन्दी फिल्म जगत के जाने-माने अभिनेता मानव कौल ने अपनी पहली किताब “ठीक तुम्हारे पीछे” के ज़रिये वही खाली जगह भरने की शानदार कोशिश की है।

मानव कौल, Manav Kaul

बॉलीवुड में अपनी बेहतरीन अदाकारी के लिए मशहूर मानव कौल को आप शायद ‘काई पो छे’ के बिट्टू मामा या ‘वज़ीर’ के मंत्री जी के किरदारों से पहचान लें, भारत-पाक सैनिकों पर बनी 1971 में भी मानव ने शानदारी अदाकारी की और अब ठीक तुम्हारे पीछे से उन्होने हिंदी के पाठकों से भी रिश्ता बनाने की कोशिश की है।

हाल ही में हिन्दी युग्म द्वारा प्रकाशित इनकी किताब ‘ठीक तुम्हारे पीछे कुल बारह कहानियों का संग्रह है। कहानी में पिरोया हुआ हर किरदार, एक उम्मीद की डोर थामे अपने अंतर्मन से जूझता हुआ मिलता है। मानव कहते हैं “मुझे कोरे पन्ने बहुत आकर्षित करते हैं। मैं कुछ देर कोरे पन्नों के सामने बैठता हूँ तो एक तरह का संवाद शुरू हो जाता है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे देर रात चाय बनाने की आदत में मैं हमेशा दो कप चाय बनाता हूँ, एक प्याली चाय जो अकेलापन देती है वह मैं पंसद नहीं करता। दो प्याली चाय का अकेलापन असल में अकेलेपन के महोत्सव मनाने जैसा है

Manav Kaul

बात बहुत सादे शब्दों में कही गयी है लेकिन यकीन हो जाता हैं कि मानव कौल का लेखन परिपक्व है। लिखना कभी भी कठिन शब्दों का चुनाव भर करना नहीं होता उसके लिए तो शब्दकोश मौजूद है। लेखन खुद से चलकर कहानी के किरदार की आत्मा तक पहुँचना है। उस किरदार से एक अंदरूनी रिश्ता कायम करने जैसा है, जो इस किताब में बखूबी दिखता है।

मानव कौल की कहानियाँ हमें उसी रूहानी सफर पर ले जाती हैं। उनका लिखा हुआ हम क़रीब से महसूस करते हैं। उनके पात्रों की उलझनों और उनकी खुशियों के बीच सफ़र करते हैं। कहानियाँ कई उम्र का सफर तय करती हैं। ये चुनाव करना मेरे लिए बहुत ही कठिन है की किस कहानी का कौन सा पात्र श्रेष्ठ है।

अभी-अभी से कभी-का तक” कहानी में मानव कौल कहते हैं “दर्शक बने रहना आसान नही है खासकर जब आपके पास खुद करने के लिए कुछ भी ना हो और आपके अगल बगल इतने बेहतरीन अभिनय कर रहे हो” एक ऐसा व्यक्ति जो हॉस्पिटल-बैड पर रात दिन अपने आने वाले कल को संशय से देखता है। उसे यकीन है कि वो उस किनारे नहीं लगेगा जहाँ ज़िंदगी सांसे छोड़ देती है, उबर जाएगा वो इस बीमारी से फिर भी रोज़ खुद को उसी ओर सरकता पाता है जो उसे बस एक याद बना देगा।

गुणा भाग” कहानी में लेखक कितना सधा हुआ लिखते हैं कि “इन तीन सालो में मैंने तुम्हें जितना जिया है और जितना तुमने मुझे याद किया है हम वो सब एक दूसरे को वापस दे देंगे और फिर हमारे सबंध में है के सारे निशान मिट जाएँगे” एक रिश्ते में होकर भी ना होना, वजह पता होते हुए भी ढूंढते रहना कि क्या पता कोई ऐसा सिरा मिल जाए जो रिश्ते को “है” से “था” ना होने दे”

Manav Kaul

इनके अलावा “मुमताज़ भाई पंतग वाले” और “माँ” इन दो कहानियों को पढ़ना किसी अलसायी सी दोपहर में नीम की ठंडी छाँव में सुस्ताने जैसा है या ट्रेन के किसी स्टेशन पर रुकने पर बेचैन आँखो से कुल्हड़ वाली चाय का इंतजार करने जैसा।

तपते रेगिस्तान में दो घूँट जिंदगी की तरह मिलने जैसा भाव लिए मानव कौल का यह कहानी-संग्रह हिन्दी साहित्य जगत के पाठकों के लिए सोच के नए द्वार खोलता है, पढ़ने के बाद भी देर तक हमारे अंदर इन कहानियों की गूँज रह जाती है। अपनी बुकशेल्फ में इसे ज़रूर जगह दीजिएगा।

- ये समीक्षा लिखी है हमारी साथी अंकिता चौहान ने

     

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