जमीनी हकीकत: सुविधाओं से समझौता करतीं गाँवों की गर्भवती महिलाएं

Shrinkhala PandeyShrinkhala Pandey   4 Jun 2017 5:11 PM GMT

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जमीनी हकीकत: सुविधाओं से समझौता करतीं गाँवों की गर्भवती महिलाएंफैजाबाद के एक अस्पताल में प्रसव के बाद जमीन पर लेटी महिला। (फाइल फोटो)

लखनऊ। कमला देवी (20 वर्ष) पांच महीने के गर्भ से हैं, ये उनका तीसरा बच्चा है। लेकिन कमला देवी के खान पान में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है बल्कि उनके खाने की मात्रा और भी ज्यादा कम हो गई है। गर्भावस्था में महिलाओं को खानपान का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं स्वास्थ्य की कई सुविधाओं से दूर रहती हैं।

लखनऊ के बेहटा गाँव की रहने वाली कमला से जब उनके खानपान के बारे में पूछा गया तो उन्होनें बताया, ''जो पहले खाते थे वही अब भी खाते हैं, कौन सा पहला बच्चा है जो सब बहुत ध्यान देगें। सुबह चाय पी लेते हैं, दोपहर में दो रोटी चावल और सब्जी अगर दाल बनती है तो सब्जी नहीं बनती। रात में रोटी सब्जी। फल इतने मंहगें है कि कभी कभार ही आता है।” वो आगे बताती हैं, ''घर में गाय भैंस भी नहीं है, दूध भी पड़ोस से खरीद के आता है,घर में चाय के खर्च के बाद जिस दिन बच जाता है पी लेते हैं वरना काई बात ही नहीं।”

सामान्य महिलाओं के मुकाबले गर्भवती को ज्यादा पौष्टिक आहार का जरुरत होती है।

एक महिला के शरीर के हिसाब से उसे पुरूषों के मुकाबले ज्यादा पौष्टिक खाने की जरूरत होती है। ''सामान्य महिला को तो दिन में कम से कम 2100 कैलोरी लेनी चाहिए, जबकि गर्भवती महिलाको इससे 300 कैलोरी ज्यादा विटामिन और मिनरल भी ज्यादा मात्रा में चाहिए होता है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं ये पूरा आहार नजराअंदाज कर देती हैं, जिसके चलते हीमोग्लोबिन की कमी के केस ज्यादा होते हैं, जो कि डिलीवरी में सबसे ज्यादा जोखिम बढ़ाता है।”

डॉ सुरभि जैन, पोषाहार विशेषज्ञ बताती हैं। हालांकि जरूरी नहीं है कि ये कैलोरी उन्हें मंहगे फल या ड्राई फ्रूटस ही मिले मोटे अनाज, हरी सब्जियां, अंकुरित चने आदि भी इसके पूरक हैं लेकिन उन्हें इसकी जानकारी देना वाला कोई नहीं होता।

पोषण की तरफ ध्यान कम होने का एक कारण ग्रामीण क्षेत्रों में महिला विशेषज्ञ डॉक्टरों का कम होना भी है। बहरौली से लगभग चार किमी दूर असी गाँव की रहने वाली पुष्पा सोनी (34) बताती हैं, ''गांव की ज्यादातर महिलाएं तो सरकारी अस्पताल सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र ही जाती हैं लेकिन वहां एक ही महिला डॉक्टर है जो भी समय पर कभी रहती हैं और कभी नहीं। हम जब मां बनने वाले थे खुद वहीं जाते थे कभी डॉक्टर ने सही से न बताया क्या खाओ क्या न खाओ बस आधी बातें सुनकर दवा लिख देती थीं, उसमें भी जो ताकत की दवाएं होती थीं वो भी अस्पताल में नहीं मिलती थी।” स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की वर्ष 2012 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर 515 प्रसूति एवं स्त्री रोग चिकित्सकों की आवश्यकता है जबकि केवल 475 डॉक्टर ही तैनात हैं। वहीं 7,297 नर्सिंग स्टॉफ की जरूरत है जबकि 2,627 ही कार्यरत हैं।

स्वास्थ्य केन्द्रों पर बेड और दवाओं की कमी

खानपान के बाद अगर बात करें ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों में सुविधाओं की तो वो भी पूरी नहीं है। गोण्डा जिला मुख्यालय से लगभग 14 किलोमीटर दूर झंझरी ब्लॉक के सालपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र के प्रसव कक्ष के सामने पांच-छह महिलाएं जमीन पर बैठी थीं। इनमें से कु छ महिलाओं ने एक दिन पहले ही बच्चे को जन्म दिया था और कुछ नसंबदी कराकर बैठी थी अस्पताल में प्रसवकक्ष में केवल चार बेड हैं, जो भरे थे इसलिए जमीन पर बैठना इन महिलाओं की मजबूरी थी।

इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैन्डर्डस (आईपीएचसी) के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों के दिशा निर्देशों के अनुसार प्रत्येक केन्द्र में 30 बेड होने चाहिए, जिनके बीच में पर्याप्त दूरी होनी चाहिए। कक्ष से शौचालय जुड़ा होना चाहिए। ऑपरेशन से पूर्व और बाद में मरीजों के लिए रिकवरी कक्ष होना चाहिए।

वैश्विक स्वास्थ्य पर काम करने वाली संस्था 'यूनाइट फॉर साइट’ की 'इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट एंड कैपिसिटी बिल्डिंग’ की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के 37 प्रतिशत सीएचसी केन्द्रों में बेड की कमी है।

डॉक्टर जो दवाएं पर्चे पर लिखते हैं वो कहने को तो निशुल्क हैं लेकिन सारी दवाएं कभी भी मरीजों को नहीं मिल पातीं। बरहरौली गाँव की रहने वाली सुनीता देवी (57) बताती हैं, ''हमारी बहू को अभी जल्दी लड़का हुआ है सारा इलाज यहीं पास के सरकारी अस्पताल से हुआ। पैसा तो नहीं देना पड़ता है वहां लेकिन न सारी दवाएं मिलती हैं और न सब जांचें हो पाती है। उसके लिए हमें बाहर पैसे देकर ही कराना पड़ता था।”

शौचालय न होने से होती है दिक्कत

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी शौचालय की कमी है जिससे सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं ओर किशोरियों को उठानी पड़ती है। गर्भावस्था के दौरान खेतों में जाना उनके लिए और भी दिक्कत खड़ी करता है। लखनऊ के मोहनलालगंज ब्लॉक से लगभग 15 किमी दूर बसारा गाँव के रहने वाली कुसुमलता तिवारी 27 छह माह के गर्भ से हैं। वो बताती हैं, इस दौरान सबसे ज्यादा दिक्कत हमें शौच के लिए होती है। रास्ते भी खराब हैं और ऐसे में जब कभी रात को जाना होता है तो बहुत ज्यादा परेशानी होती है।

न मिलता है पोषाहार और न आयरन की गोलियां

गर्भवती महिलाओं और किशोरियों को पोषाहार देने के लिए सरकार आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को दलिया, चना, गुड़ बांटने के लिए देती हैं और आशा बहुओं को आयरन की गोलियां। लेकिन इस योजना का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाता। इसका कारण पूछने पर आशा बहू नाम न बताने की शर्त पर बताती हैं, ''हम तक तो आयरन की गोलियां पहुंचती ही नहीं है। ये काम दीदी (एनएएम) करती हैं, जबकि हम गाँव में ही रहते हैं और हमें भी कुछ गोलियां मिलनी चाहिए लेकिन एनएएम कहती हैं जिसे जरूरत है वो हमसे आकर मांगें और इस तरह महिलाएं भी पीछे हट जाती हैं।”

यही हाल आंगनबाड़ी केन्द्रों का भी है। बसारा गाँव की सुमन (26) बताती हैं, कहने के लिए है दलिया मिलेगी, चना मिलेगा कुछ नहीं मिलता तीन महीने चार महीने पर कभी कभी लइया की पैकटें बांट दी जाती हें। इसके बारे में आंगनबाड़ी कार्यकत्री कंचन कुमारी बताती हैं, ''जब हमें केन्द्र पर ही नहीं मिलता तो अपने घर से बांट दें क्या। महीनों पोषाहार केन्द्रों पर नहीं पहुंचता। इसलिए बंटता भी नहीं है।”


      

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