ज़ाएरा वसीम को कुश्ती के नाटक की भी इज़ाजत नहीं है

Dr SB MisraDr SB Misra   18 Jan 2017 8:24 PM GMT

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ज़ाएरा वसीम को कुश्ती के नाटक की भी इज़ाजत नहीं हैईमानदारी से देखा जाए तो यह सवाल केवल मुस्लिम महिलाओं का नहीं है बल्कि पूरे महिला समाज का है।

जब हरियाणा की दो लड़कियों ने कुश्ती में मेडल जीतकर भारत का नाम रोशन किया था तो हिन्दू और मुसलमान सभी ने प्रशंसा की थी। अब कश्मीर घाटी की एक लड़की ने कुश्ती का नाटक किया तो मुस्लिम समाज में कोहराम मच गया।

यदि अंग प्रदर्शन पर ही आपत्ति है तो सभी के लिए होनी चाहिए थी। इतनी बन्दिशों के बाद भी मुस्लिम महिलाएं बगावत नहीं करतीं जैसे मुम्बई की महिलाओं ने हाजी मियां के दर्शन के लिए किया था। अच्छी बात है कि जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कलाकार ज़ाएरा को प्रोत्साहित किया है और ढांढस बंधाया है।

ईमानदारी से देखा जाए तो यह सवाल केवल मुस्लिम महिलाओं का नहीं है बल्कि पूरे महिला समाज का है। महिलाओं को बुर्का में बन्द रखना और तीन तलाक बोलकर घर से बाहर कर देना यह हिन्दू या मुसलमान का मुद्दा नहीं है। उन्हें भयभीत करके माफी मांगने पर मजबूर करना किसी सम्य समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। यदि कोई मुस्लिम महिला हिन्दू धर्म स्वीकार कर ले तो उसे मजबूरी नहीं होगी इस्लामिक रीति रिवाज की और यदि कोई हिन्दू महिला इस्लाम कुबूल कर ले तो उसे यह सब मानना होगा यह कैसी विडम्बना है।

ऐसा नहीं कि मुस्लिम महिलाओं के अनुकूल नियम हैं ही नहीं। माता-पिता की सम्पत्ति में भाइयों के बराबर हिस्सा इस्लाम में दिया गया है जो हिन्दू धर्म वालों को अब मिला है लेकिन शादी के बन्धन में बांधते समय न तो हिन्दू धर्म में लड़कियों को स्वतंत्रता है और न मुस्लिम समुदाय में। मुस्लिम लड़की को औपचारिकता की तरह कुबूल है कुबूल है तीन बार कहना होता है। उन्हें आदमियों की तरह तलाक देने की आजादी नहीं है। तमाम मर्द मुस्लिम महिलाओं का दफ्तरों में काम करना भी पसन्द नहीं करते और देश के विकास में भूमिका निभाने की भी इज़ाजत नहीं देते। कला के क्षेत्र में जो महिलाएं आई हैं उनके परिवारों ने साहसिक कदम उठाया है।

आजकल जो लोग मुसलमान लड़कियों को पर्दे में रखना चाहते हैं उन्हें रजि़या सुल्ताना का उदाहरण याद रखना चाहिए जिसके पिता इल्तुतमिश ने बेटों के बजाय 1236 में अपनी बेटी रजि़या को गद्दी पर बिठाया था। उसने 1236 से 1240 तक दिल्ली की सल्तनत संभाली थी। उसके बाद भी मुस्लिम महिलाओं ने देश की सेवा की है और आज़ादी की लड़ाई में तो अनेक उदाहरण हैं। मुस्लिम समाज के समझदार लोगों को जितनी बुलन्दी से बोलना चाहिए बोल नहीं पा रहे हैं शायद सामाजिक दबाव के डर से।

सेकुलर भारत में यदि महिलाओं के लिए नौकरियों में आरक्षण का कानून पास भी हो गया तो मुस्लिम महिलाएं सबसे अधिक घाटे में रहेंगी। पता नहीं कहां सो गए हैं सेकुलरवाद और महिलाओं को बराबर हक की ढफली बजाने वाले। देश की इतनी बड़ी आबादी को अवसरों से वंचित करना देशहित के विरुद्ध है, आशा है मुस्लिम समाज इस बात को समझेगा और कोई नौजवान टर्की के अब्दुल कमाल पाशा की तरह सेकुलर व्यवस्था लागू करने की पहल करेगा।

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