पीजी छात्रों की तरह ही खेती में लगे शिक्षित बेरोज़गारों के लिए भी भत्ता निर्धारित करे हरियाणा सरकार 

Devinder SharmaDevinder Sharma   4 Nov 2016 4:07 PM GMT

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पीजी छात्रों की तरह ही खेती में लगे शिक्षित बेरोज़गारों के लिए भी भत्ता निर्धारित करे हरियाणा सरकार देवेंद्र शर्मा का लेख ‘ज़मीनी हक‍़ीकत’

पहली नवंबर मंगलवार को हरियाणा में पीजी (परास्नातक) बेरोजगारों के लिए एक महात्वाकांक्षी योजना की शुरुआत हुई। अपने स्थापना दिवस की स्वर्णजयंती के उपलक्ष्य में हरियाणा सरकार ने परास्नातकों के लिए घोषणा की कि अगर वे 100 घंटा प्रति महीने काम करते हैं तो उन्हें नौ हजार रुपए का मानदेय दिया जाएगा।

सामाजिक सुरक्षा देने वाली यह सर्वश्रेष्ठ पहल है। बेरोजगारी का बढ़ना एक सामाजिक आर्थिक संकट का रूप ले चुका है और राज्य सरकारों को नवोन्मुखी उद्देश्य व योजना के साथ आगे आकर युवाओं को उससे जोड़ना होगा। अनुमान के तौर पर हरियाणा में 30 हजार पीजी बेरोजगार हैं जो इस योजना से लाभान्वित होंगे।

यह योजना केंद्र सरकार के गैर कृषि मजदूरी के न्यूनतम भत्ते में 42 फीसदी की बढ़ोतरी के प्रस्ताव के दो माह बाद आई है। केंद्र ने गैर कृषि मजदूरी 246 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 351 रुपए प्रतिदिन कर दी है, जिससे मजदूरी न्यूनतम 9100 रुपए प्रतिमाह हो गई है। मुझे लगता है कि नीति निर्माताओं को यह समझ आने लगा है कि हरेक परिवार के जीविकोपार्जन के लिए न्यूनतम भत्ता निर्धारित होना चाहिए। ऐसे समय में जब असमानता असाधारण दर से बढ़ रही है और अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब तबका आमदनी के लिहाज से सिकुड़ता जा रहा है, ऐसे में गरीब और निचले तबके के युवाओं को लाभदायक रोजगार उपलब्ध कराने का प्रयास काबिलेतारीफ है।

लेकिन समस्या यह है कि नीति निर्माताओं की दूरदृष्टि सिर्फ शहरों तक ही सीमित है। उनकी निगाह संकुचित है और इसीलिए वह शहरों और कस्बों के दायरे के बाहर नहीं देख पा रहे। चाहे युवाओं का बेरोजगारी भत्ता हो या गैर कृषि मजदूरी भत्ते में बढ़ोतरी आप यह पाएंगे कि राज्य में सबसे ज्यादा लाभार्थी शहरी क्षेत्रों के हैं। अनुमान के तौर पर अधिकांश 70 फीसदी जनसंख्या, जो गाँव में रहती है, को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। इस सीमित आर्थिक सोच ने गाँव और शहरी क्षेत्रों के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है।

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में सामने आया है कि गेहूं की खेती में लगे किसान परिवार की शुद्ध आय 4799 रुपए प्रति एकड़ है। चूंकि गेहूं अक्टूबर में बोया जाता है और कटाई अप्रैल में होती है, यह प्राय: छह माह में तैयार होने वाला अनाज है। यानि इस अनाज से एक एकड़ में प्रति माह शुद्ध आमदनी 800 रुपए ही निकलती है। यह मानते हुए कि अधिकांश किसानों के पास तीन एकड़ से अधिक खेत नहीं है, उनकी शुद्ध आमदनी करीब 2400 रुपए के आसपास रहेगी। यह निश्चित है कि ऐसे किसान और उनके परिवार के सदस्य खेत में एक माह में 100 घंटे से ज्यादा समय तक काम करते होंगे और ऐसे किसान परिवारों में पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान भी होंगे जो नौकरी के अवसर न होने के कारण खेती में हाथ बंटा रहे होंगे।

वास्तविकता में इसके मायने यह हैं कि किसान लाभकारी रोजगार से लाभान्वित नहीं हो रहे। अगर कृषि ही पारिश्रमिक संबंधी पेशा होता तो क्यों युवा इसे छोड़कर शहरों में छोटी-मोटी नौकरी तलाशते। तब गाँव में ही भारी जनसंख्या कृषि को ही अपना पेशा बनाती। मुझे लगता है कि अगर नीति निर्माता ग्रामीण परिवारों में शिक्षित बेरोज़गारों के लिए नौ हजार रुपए प्रति एकड़ की मासिक औसत आय सुनिश्चित करने पर विचार करें तो निश्चित है कि जनसंख्या विभाजन के अनुपात में सुधार होगा। गाँव के युवा रोज़गार के लिए शहरों की ओर कम भागेंगे और शहरों पर से दैनिक भत्ता रोजगार के सृजन का दबाव घटेगा। हरियाणा ने 30 हजार पीजी बेरोजगारों को 9000 रुपए बेरोजगारी भत्ता देने के लिए 324 करोड़ रुपए अलग कर लिए हैं। अगर खेती में लगे 60 हजार शिक्षित बेरोजगारों की मदद के लिए इस रकम को दोगुना कर दिया जाए, यानि अतिरिक्त 648 करोड़ रुपए, तो कैसा रहेगा?

अगर हरियाणा अपना स्वर्णजयंती समारोह साल भर मनाने के लिए 1700 करोड़ रुपए का बजट में प्रावधान कर सकता है तो मुझे नहीं लगता कि गाँव के बेरोजगारों तक पहुंच बनाने के लिए धन की कोई कमी है। हालांकि मेरा मतलब यह तनिक भी नहीं है कि गाँवों में बेरोजगारी और अल्प रोजगार की विकराल समस्या के समाधान के लिए यह धनराशि पर्याप्त होगी। क्यों न प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ, सबका विकास’ की वकालत को सही मायनों में लागू किया जाए?

कृषि विश्वविद्यालय के अध्ययन से साफ हो चुका है कि 11 जिलों में गेहूं उत्पादन से कितनी शुद्ध आमदनी हो रही है। जैसा कि मैंने बताया-आठ सौ रुपए की शुद्ध आमदनी राज्य में औसत आय है। पानीपत, रोहतक, करनाल की हालत बहुत खराब है। पानीपत में प्रति एकड़ औसत मासिक आय 223 रुपए है। वहीं रोहतक में यह 291 रुपए और करनाल में 612 रुपए है। जिन जिलों में हालात अच्छे हैं उनमें झज्जर (1620 रुपए), महेंद्रगढ़ (1473 रुपए) और भिवानी (1070 रुपए) शामिल हैं। हालांकि अगर हम परिवार को आर्थिक सुरक्षा उपलब्ध कराने के न्यूनतम आय स्तरों को ध्यान में रखकर चलें तो भी मुझे नहीं लगता कि जिन जिलों का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ है वे किसान परिवार को कर्ज के बोझ से बचा सकते हैं।

हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जाटों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की मांग का कायम रहना कृषक संबंधी समस्याओं का संकेतक है। हरियाणा में हमने जाट आंदोलन के दौरान तोड़फोड़ देखी जो दुर्भाग्यपूण रहा लेकिन मूल बात यह समझ में आई कि खेती में लगे वर्चस्व वाले जाति समूह, और जिनमें महाराष्ट्र में मराठा और राजस्थान में गुर्जर शामिल हैं, गुस्से में हैं क्योंकि पिछले कुछ दशकों से कृषि क्षेत्र नुकसान वाला व्यवसाय होता जा रहा है। ऐसा इसलिए है कि खेती प्रारंभिक तौर पर अलाभकर होती जा रही है इसलिए आर्थिक सुधारों को जारी रखना होगा।

2015 में जारी गाँव पर पहले सामाजिक आर्थिक सर्वे में भी यह बात मंडित है। इसके मुताबिक 75 फीसदी ग्रामीण परिवारों में कमाऊ सदस्य की सर्वाधिक आय पांच हजार रुपए से अधिक नहीं है। 51 फीसदी परिवारों को आजीविका चलाने के लिए मनरेगा समेत खेतीहर मजदूरी पर निर्भर रहना पड़ता है। हरियाणा जैसे उन्नतिशील राज्य इस वर्ग में आते हैं जो नीति निर्धारण के स्तर पर भारी खामी को दर्शाते हैं।

मैं इसलिए उम्मीद करता हूं कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कृषि पर योजना बनाते वक्त किसी तरह के पक्षपात को खत्म करने का प्रयास करेंगे। अब वक्त है कि वह हरियाणा राज्य किसान आयोग को विशिष्ट शासनादेश के साथ पुनर्जीवित करे ताकि कृषि को आर्कषक बनाने के लिए आर्थिक प्रस्ताव लाए जा सकें। अब समय उत्पादकता बढ़ाने और खेती की लागत घटाने के चलताऊ उपायों से बाहर निकलकर सोचने का है। नौकरशाह, रक्षा अधिकारी, शिक्षक, प्रोफेसर और सरकारी कर्मचारी-जैसे समाज के अन्य वर्गों के बराबर किसान की आमदनी वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं)

   

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