आर या पार: उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे राजनीति की दिशा तय करेंगे

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
आर या पार: उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे राजनीति की दिशा तय करेंगेउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजों का असर अल्पकालिक तौर पर भारतीय राजनीति पर पड़ेगा।

कहना बिल्कुल स्वभाविक लगता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजों का असर अल्पकालिक तौर पर भारतीय राजनीति पर पड़ेगा। हिंदुस्तान के हर छह लोगों में से एक व्यक्ति उत्तर प्रदेश का है और अगर यह देश होता तो आबादी के लिहाज से दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा देश होता लेकिन कई बार यह देखा गया है कि उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों का असर इन तथ्यों से भी बड़ा रहा है। इन चुनावों के परिप्रेक्ष्य और समय को देखते हुए ऐसा लगता है कि हम एक बार फिर वैसे ही मुहाने पर हैं।

चुनाव से जुड़ी सभी बड़ी खबरों के लिए यहां क्लिक करके इंस्टॉल करें गाँव कनेक्शन एप

आठ नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 86 फीसदी नोटों को बंद करने के फैसले के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है। जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा है इसलिए यहां के नतीजे आंशिक तौर पर ही सही लेकिन नोटबंदी पर जनादेश के तौर पर देखे जाएंगे। अगर भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में जीत जाती है या सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरती है तो इसे मोदी के पक्ष में जनादेश कहा जाएगा। इससे मोदी के करिश्माई नेता की छवि मजबूत होगी। उनकी राजनीति सूझबूझ की भी दाद दी जाएगी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भी इसका फायदा मिलेगा। कुल मिलाकर ऐसे नतीजे से प्रधानमंत्री विपक्ष के खिलाफ और मजबूत दिखने लगेंगे और पहले से ही बेहाल विपक्ष और असहाय दिखने लगेगा।

अगर प्रदेश में भाजपा दूसरे या तीसरे स्थान पर रहती है तो इसे मोदी और शाह के लिए बड़ा झटका माना जाएगा। 2014 लोकसभा चुनाव में पड़े वोटों के आधार पर भाजपा को 403 विधानसभा क्षेत्रों में से 328 सीटों पर बढ़त हासिल थी। ऐसे में अगर भाजपा का प्रदर्शन खराब होता है तो इससे पार्टी के अंदर मोदी के विरोधियों को भी नई ताकत मिल सकती है। इस बात पर सवाल उठने शुरू हो सकते हैं कि क्या ऐसे आदमी के हाथों में पार्टी का भविष्य सुरक्षित है जिसने नोटबंदी जैसी राजनीति बाजीगिरी वाला निर्णय लिया। यह भी संभव है कि ज्यादा हमले अमित शाह पर हों लेकिन ऐसे नतीजों का असर भाजपा से बाहर भी काफी होगा। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में से जो भी पहले नंबर पर रहेगा, वह इस जीत को राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए लॉन्च पैड के तौर पर इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा। 2015 के अंत में आए बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद नीतीश कुमार को 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्ष के चेहरे के तौर पर पेश किया जा रहा था। मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश में भाजपा को पटखनी देने के बाद अखिलेश यादव या मायावती भी इस दौड़ में शामिल हो जाएंगे।

ऐसी स्थिति में यह बात भी चलेगी कि क्या भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर मात देने के लिए बिहार में जिस तरह का महागठबंधन हुआ था, वैसी कोई व्यवस्था बननी चाहिए। समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को साथ लेकर उत्तर प्रदेश में सीमित स्तर पर ही सही लेकिन एक कोशिश की है। अगर सपा पहले नंबर पर रहती है तो इससे अखिलेश यादव मजबूत होकर उभरेंगे। इससे न सिर्फ यह साबित होगा कि वे परिवार में चली खींचतान का ठीक से सामना कर पाए बल्कि मतदाताओं को भी अपने साथ जोड़े रखा। उनकी कम उम्र को देखते हुए उन्हें लंबी रेस का घोड़ा माना जाएगा।

यह कहा जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव पार्टी केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित था। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों की तरह हुए लोकसभा चुनावों में एक छोर पर नरेंद्र मोदी थे तो दूसरे पर राहुल गांधी। इसमें कामयाबी मोदी को मिली पर इस तरह के चुनाव दोधारी होते हैं। ऐसा ही चुनाव जब दिल्ली में 2015 के फरवरी में हुआ तो मुकाबला आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और भाजपा की किरण बेदी के बीच था। इसमें बाजी केजरीवाल के हाथ लगी। बिहार में नीतीश कुमार की कामयाबी भी कुछ ऐसी ही थी। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश के खिलाफ भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद का कोई उम्मीदवार नहीं है। अगर बसपा जीतती है तो माना जाएगा कि ऐसा मायावती की राजनीतिक ताकत की वजह से हो पाया। अगर अखिलेश अच्छा प्रदर्शन करते हैं तो यह माना जाएगा कि पांच साल के शासन के बावजूद उन्होंने सत्ता विरोधी भावनाओं का ठीक से सामना किया। उत्तर प्रदेश के नतीजे यह भी बताएंगे कि वोट बैंक की राजनीति कहां खड़ी है।

सवाल यह भी है कि अगर भाजपा हार जाती है तो क्या इससे 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए बचे हुए दो साल में मोदी और शाह की कार्यशैली में कोई बदलाव आएगा? मोदी ने पहले भी यह साबित किया है कि वे चैंकाने वाले निर्णय लेने में सक्षम हैं। इसलिए उनके बारे में कोई भविष्यवाणी करना खतरे से खाली नहीं है। क्या वे पार्टी और पार्टी के बाहर के अपने विरोधियों के खिलाफ उन्हें शांत करने वाला रवैये अपनाएंगे? या फिर वे अपनी आक्रामकता को बरकरार रखते हुए ध्रुवीकरण की राजनीति को ही आगे बढ़ाएंगे? नतीजे चाहे जो भी हों लेकिन 11 मार्च से भारतीय राजनीति की दिशा बदलेगी।

(लेखक इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के एडिटर हैं। ये उनके निज़ी विचार हैं।)

            

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.