सज़ा-ए-मौत के हक़दार इन्हें भी होना चाहिए

Dr SB MisraDr SB Misra   21 Jan 2017 6:11 PM GMT

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सज़ा-ए-मौत के हक़दार इन्हें भी होना चाहिएसरकारी पुलिस जिसे लोगों के जान-माल की हिफ़ाज़त करनी चाहिए, तमाशबीन बनी रहती है आर्डर के इन्तजार में और होश में तब आती है जब नुकसान हो चुका होता है।

आईएसआई की विध्वंसक करतूतों के कारण पिछले साल कानपुर के पास इन्दौर-पटना एक्सप्रेस जब पटरी से उतर गई तो करीब 150 यात्री मरे और 200 घायल हुए। घटना को अंजाम देने वालों में भारत के लोग भी शामिल थे। यह अकेली घटना नहीं हुई जब बड़ी सख्या में लोग हताहत हुए और यह घटना एक सुनियोजित षडयंत्र थी। एक साथ अनेक मौतों के लिए पुलों का गिरना, नकली दवाइयों का उत्पादन और बिक्री, मेलों और मन्दिरों में बेशुमार अनियंत्रित भीड़ में मौतों के लिए कोई तो जिम्मेदार होते हैं और उनकी पहचान भी होती है लेकिन उन्हें मौतों का गुनहगार नहीं माना जाता।

कुछ लोग दुश्मन देश के लिए मुखबरी करते हैं और सेना के कैम्प पर सो रहे सिपाहियों को अपनी जान गंवानी पड़ती है अथवा जब कुछ समझदार दिखने वाले लोग दुश्मन के गुण गाते हैं और शहीदों के परिवार बिलखते होते हैं तो ऐसे लोगों को कौन सी सजा मिलनी चाहिए। नदी पर बना पुल टूटता है और रेलगाड़ी हवा में लटक जाती है या सड़क पर पुल का हिस्सा गिरता है और ट्रैफ़िक में मौतें होती हैं फिर भी मौतों के जिम्मेदार मुखबिर और पुल बनाने वाले ठेकेदार साफ बच जाते हैं। कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में निर्माणाधीन पुल गिरा था जिससे 24 की मौत हुई और दर्जनों अस्पताल में मौत से जूझते रहे। क्या ये अपराध ‘‘रेयरेस्ट आफ़ द रेयर यानी बिरले से बिरला‘‘ नहीं हैं जिनकी सजा मौत है।

पश्चिम बंगाल की पुल बनाने वाली कम्पनी ने कहा ‘‘भगवान की मर्जी”। यह भगवान की मर्जी नहीं, हत्याएं हैं जिसके लिए इंसान जिम्मेदार है। स्कूल बस के टकराने से बीसों नादान बच्चों की मौत के लिए किसको सजा मिलेगी, शायद किसी को नहीं। अनेक बार दवा बनाने वाली कम्पनियां नकली दवाएं बाजार में उतार देती हैं जिन पर पश्चिमी देशों में प्रतिबंध होता है, उससे लोग मरते हैं। यूनियन कार्बाइड जैसी कम्पनियां जहरीली गैसें घनी आबादी वाले इलाकों में बनाती हैं जिससे तमाम लोग मरते हैं या अपंग होते हैं या अस्पताल के खर्चे के बोझ तले दब जाते हैं। ऐसी मास मर्डर यानी सामूहिक हत्या वाली कम्पनियों को शहर में इजाजत जिसने दी थी वह उतना ही दोषी है जितना कम्पनी का मालिक एण्डरसन। इन घटनाओं के लिए जो दंड निर्धारित है वह पर्याप्त नहीं है।

अनेक बार हड़तालें होती हैं और उसमें फंसकर अनेक मरीज़ अस्पताल नहीं पहुंच पाते और दम तोड़ देते हैं, हड़तालियों की तोड़फोड़ से रेलगाड़ियां नहीं चलतीं और निजी कारें और बसें फूंक दी जाती हैं या भीड़ में फंस जाती हैं जिससे अनेक मौतें होती हैं। हत्या और आगजनी के मुकदमें भी लिखाए जाते हैं, अज्ञात लोगों के खिलाफ जब कि जिम्मेदार अज्ञात नहीं होते, वे होते हैं हड़ताल का आवाहन करने वाले नेतागण। सरकारी पुलिस जिसे लोगों के जान-माल की हिफ़ाज़त करनी चाहिए, तमाशबीन बनी रहती है आर्डर के इन्तजार में और होश में तब आती है जब नुकसान हो चुका होता है।

पुल और बांध टूटते हैं घटिया सीमेन्ट के कारण और हजारों मरीज मरते हैं नकली दवाओं की वजह से। दंगे भड़कते हैं तो कहा जाता है पूरे मुहल्ले पर दंड निर्धारित हो लेकिन जो दंगे भड़काते हैं असली गुनहगार तो वे हैं और दंड का भागी उन्हें ही होना चाहिए, पूरा मुहल्ला क्यों।

इतिहास गवाह है कि हिटलर, मुसोलिनी, ईदी अमीन और सद्दाम हुसैन को गुनहगार माना गया और सजा मिली। लेकिन भारत का बंटवारा जिन लोगों ने कुबूल किया और लाखों लोगों की जानें गईं, करोड़ों बेघर हुए और बेपनाह बने फिर भी उन लोगों को गुनहगार नहीं माना गया जिन्होंने बंटवारा करवाया था। वे तो अपने अपने देशों में हीरो बन गए और मरने वाले मर गए। गुनहगारों पर मुकदमा कौन चलाएगा।

अदालतों ने बिरली से बिरली हत्या के मामले में मृत्युदंड का प्रावधान किया है। इरादतन सैकड़ों लोगों की मौत का कारण बनता है यातो घटिया सामान का इस्तेमाल या डिजाइन में दोष या फिर सस्ते और अनाड़ी कारीगर। इन अनेकों हत्याओं का क्या दंड होगा और किसे मिलेगा, शायद किसी को नहीं।

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