गुम हो रहा अलाव जलाकर कहानियां सुनाने का चलन

Neetu SinghNeetu Singh   15 Jan 2017 8:17 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
गुम हो रहा अलाव जलाकर कहानियां सुनाने का चलनगाँव में सर्दियों में अलाव जलाकर कहानियां सुनाने का चलन कम ही देखने को मिलता है

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। उत्तरप्रदेश के कई जिलों के गाँवों में वर्षों पहले सर्दियों के मौसम में अलाव की कहानियां मशहूर हुआ करती थीं। इस दौरान पूरा गाँव सर्दियों से छुटकारा पाने के लिए अलाव के चारों ओर इकट्ठा होते और कोई उनमें से कहानियां सुनाता। सर्दियों के मौसम में गाँव में मनोरंजन का यह एक अच्छा जरिया था। इस दौरान कुछ लोग आग में आलू, बैंगन व टमाटर वगैरह भूनकर खाते थे, हालांकि समय के साथ-साथ अब ये मनोरंजन भी कम होता गया।

कानपुर जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर राजपुर ब्लॉक के डाढ़ापुर गाँव में रहने वाले कहानीकार श्रीराम कश्यप (60 वर्ष) बताते हैं, ‘पहले तो गाँव भर से बुलावे आते थे कहानी सुनाने के लिए, बच्चे ही नहीं बड़े भी बहुत ध्यान से कहानी सुनते थे। इस बहाने गाँव के लोग आपस में मिलते और अपनी बातें भी बताते। इस तरह गाँव में भी सद्भावना बनी रहती थी। अब तो कभी-कभार ही अलाव पर कहानियां सुनाने का मौका मिलता है।’ श्रीराम अभी भी कई तरह की कहानियां लोगों को सुनाते हैं। इन कहानियों में राजा विक्रमादित्य, पंचतंत्र, चार पाई के चार पाँव जैसी तमाम कहानियां हुआ करती शामिल हैं।

पहले गाँव में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का चलन इतना ज्यादा नहीं था तब ग्रामीण अपने मनोरंजन के लिए कई अलग-अलग तरीके निकालते थे, उनमें से एक अलाव की कहानियां भी था। इसी गाँव में रहने वाले श्यामकिशोर कटियार (45 वर्ष) बताते हैं, ‘ये अलाव की कहानियों का दौर वर्ष 2000 से पहले खूब चला करता था, मैंने अपने बाबा की कहानियां बहुत सुनी हैं।’ वो आगे कहते हैं, ‘जबसे ये गाँव में मोबाइल और टीवी आ गया है, तबसे लोग अलाव की कहानियां सुनने में रूचि नहीं दिखाते हैं।

कहानी के हर किरदार की होती थी एक कहानी

कानपुर देहात के मैथा ब्लॉक के बैरी दरियाव की रहने वाली अंगूरी देवी (65 वर्ष) बताती हैं, ‘हमारे समय में अलाव के किस्से बहुत लंबे हुआ करते थे, अगर शाम छह बजे कहानी शुरू होती तो वह 10-11 बजे तक सुनाई जाती। दरअसल तब कहानी के एक-एक किरदार जैसे राजा-रानी, परियां व अन्य किरदारों के रोचक करनामें सुनाए जाते थे। तब हम पहले कहानी सुनते थे और फिर जाकर खाना बनाते थे।’ इसी गाँव के अनिरुद्ध शर्मा कहते हैं, ‘अलाव पर बैठकर कहानी कहने और सुनने का अलग मजा होता है, पहले सब साथ बैठकर कहानियों को तो सुनते ही थे, साथ ही अगर किसी की कोई समस्या होती थी तो उस पर चर्चा करके समस्या का समाधान निकालते थे, जिससे गाँववासियों के बीच आपसी प्रेम और भाईचारा बना रहता था।’

अभी भी ये कहानियां समाप्त नहीं हुई हैं, बस इनका प्रचलन कम हो गया है, ये मानना है रामेश्वर (68वर्ष) का। वो आगे कहते हैं, ‘ये अलाव की कहानियां और उस पर लोगों के ठहाके जब सुनने को मिलते हैं तो दिन भर की थकान ऐसे ही दूर हो जाती है।’

भारत में अलाव जलाकर मनाए जाते हैं कई त्योहार

ओडिशा में मनती है अग्नि पूर्णिमा

ओडिशा में माघ पूर्णिमा के दौरान जो फरवरी के मध्य में पड़ती है, अलाव जलाकर एक त्योहार मनाया जाता है जिसे अग्नि पूर्णिमा कहते हैं। वेदों में ऐसा कहा गया है कि साधु संत माघ और फाल्गुन के महीने में यज्ञ करते थे। यह त्योहार कड़ाके की ठंड से छुटकारा पाने के साथ मक्के की फसल को जंगली जानवरों व कीड़े मकौड़े से बचाने के लिए मनाया जाता है। शाम को गाँववासी सूखी लकड़ियां, धान और गेंहू की भूसी वगैरह एक जगह इकट्ठा करके जलाते हैं। सभी लोग इस मौके पर इकट्ठा होते हैं। गाँव के पुजारी प्रार्थना करते है, मंत्र उच्चारण करते हैं और प्रसाद देते हैं। इसी के साथ गाँव के पुरुष व महिलाएं अलाव के चारों ओर चक्कर लगाते हैं और मौसमी सब्जियों को अलाव में डालकर भूनते हैं। इस दौरान गाँव के वृद्ध बच्चों को कहानियां भी सुनाते हैं।

भांगड़ा और गिद्दा करके मनाते हैं लोहड़ी

मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले सिख समुदाय के लोग लोहड़ी मनाते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे प्रदेश में यह बड़े धूमधाम से मनायी जाती है। इस दौरान सूखी लकड़ियों को इकट्ठा करके पिरामिड तैयार किया जाता है। उसके बाद इसकी पूजा की जाती है और उसे जलाया जाता है। इस अलाव में तिल के दाने के साथ मिठाई, गन्ना, चावल और फल भी डाले जाते हैं। इसके बाद लोग ढोल की थाम पर भांगड़ा और गिद्दा करते हैं। इस अवसर पर विवाहिता पुत्रियों को माँ के घर से 'त्योहार' (वस्त्र, मिठाई, रेवड़ी, फलादि) भेजा जाता है। नवविवाहित और बच्चे की पहली लोहड़डी खास मानी जाती है।

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.sipmf.org).

       

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.