महिलाओं के जीवन में रंग भर रहीं रंग-बिरंगी मूंज की डलिया  

Neetu SinghNeetu Singh   5 March 2017 10:40 PM GMT

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महिलाओं के जीवन में रंग भर रहीं रंग-बिरंगी मूंज की डलिया  गाँव की महिलाएं मूंज की डलिया बनाकर अच्छा खासा मुनाफा कम रही हैं।

पिसावां (सीतापुर)। जिले की दर्जनों गाँव की महिलाएं अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए मूंज का सामान बनाती हैं। लखनऊ महोत्सव में इनके बनाये सामानों की खूब बिक्री होती है। साथ ही इसे बनाने के लिए आर्डर भी आते हैं।

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जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर पश्चिम-दक्षिण में पिसावां ब्लॉक का अल्लीपुर गाँव है। इस गाँव की हर महिला और किशोरी मूंज की डलिया बना लेती है। इस गाँव में रहने वाली निम्बूकली (45 वर्ष) खुश होकर बताती हैं, “मूंज की डलिया-डलवा तो यहां सदियों से हर घर में बनती है पर बाजार में कभी बिकने नहीं जाती थी, लेकिन पिछले पांच वर्षों से हम ट्रैक्टर भर के लखनऊ महोत्सव में इन डलियों का एक स्टाल लगाते हैं।”

महिला सामाख्या की पिसावां ब्लॉक समन्वयक अनुप्रास मिश्रा (41 वर्ष) बताती हैं, “लखनऊ महोत्सव में स्टाल लगाने के बाद यहां की महिलाओं को कई जगह से समय-समय पर कई प्रकार के सामान बनाने के ऑर्डर आते रहते हैं। घर का कामकाज निपटा कर दिन के तीन-चार घंटे ये महिलाएं मूंज की डलिया बनाती हैं। पहले इन डलियों को बनाना इन महिलाओं का सिर्फ शौक था, लेकिन अब इनकी आमदनी का जरिया भी बन गया है।”

रूरा गाँव की रहने वाली शीलमती देवी (55 वर्ष) बताती हैं, “जब हमारे घरों में शादियां होती हैं तो हम बाजार से प्लास्टिक की डलिया नहीं खरीदते, हमारे हाथों की बनी डलियों में ही फल और मिठाइयां जाती हैं, बड़ी-बड़ी टोकरी बनाकर उसमें आटा और चावल भी भेजते हैं, एक बिटिया की शादी में 10-15 डलिया बनाकर जरूर देते हैं।”

लखनऊ महोत्सव में मूंज की एक डलिया 100-150 रुपए तक बिक जाती है। मूंज की कई चीजें अलग-अलग आकार में बनाई जाती हैं। जिनकी कीमत सामान और आकार के हिसाब से अलग-अलग होती है। शेरवाडी गाँव की रहने वाली कमला (50 वर्ष) बताती हैं, “गाँव में खेतों के किनारे, तालाबों और नहर के किनारे बड़ी आसानी से मूंज मिल जाती है। हम लोग वहां से मूंज को तोड़ लाते हैं फिर उसे पानी में भिगोकर छांव में हल्का सुखा लेते हैं फिर डलवा या डलिया बनाते हैं।”

गाँव में खेतों के किनारे, तालाबों और नहर के किनारे बड़ी आसानी से मूंज मिल जाती है। हम लोग वहां से मूंज को तोड़ लाते हैं फिर उसे पानी में भिगोकर छांव में हल्का सुखा लेते हैं फिर डलवा या डलिया बनाते हैं।
कमला, निवासी, शेरवाडी गाँव

मूड़ा खुर्द गाँव की गुड्डी देवी (35 वर्ष) का कहना है, “हमने कभी सोचा नहीं था हमारे हाथ की बनी ये डलिया कभी कोई खरीदेगा, लेकिन जब पहली बार 40-50 महिलाओं ने समूह में लखनऊ महोत्सव में ये डलिया बनाकर बेचने भेजीं तो अच्छा मुनाफा हुआ। इसे बनाने में मेहनत ज्यादा लगती है।”

कई प्रकार के बनते हैं डलिया

महिलाएं सुन्दर-सुन्दर डलिया, पेन स्टैंड, कैसरोल, टिपरिया, कूड़ादान, ढक्कन दार डलिया, चमकीली डलिया जैसी कई प्रकार की डलिया बनाती हैं।

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