‘‘कलि बारहिं बार दुकाल पड़ें”, इस बात में दम है

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‘‘कलि बारहिं बार दुकाल पड़ें”, इस बात में दम हैgaonconnection

आज से 400 साल पहले जब तुलसीदास ने यह बात कही तो कोई भविष्यवाणी नहीं की गई थी बल्कि उन्होंने स्वयं हालात को देखा होगा। अकाल का मुख्य कारण है जल का अभाव, जिस पर देश के लोगों का जीवन निर्भर है। वास्तव में जल को जीवन के नाम से भी जाना जाता है। आजकल हमारे देश के अनेक भागों में अकाल पड़ा है। गुजरात तथा महाराष्ट्र में अकाल को लेकर माननीय उच्चतम न्यायालय ने सरकार को निर्देश भी दिया है लेकिन जब घर में आग लगी हो तो कुआं खोदने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। फिर भी सरकार कुछ तो करेगी।

भारत को तीन प्राकृतिक भागों में बांटते हैं। उत्तर में हिमालय, बीच में मैदानी भाग और दक्षिण का पठारी भाग। तीनों भागों में जल की समस्याएं अलग अलग हैं और उनके समाधान भी भिन्न हैं। अनेक भूवैज्ञानिकों का मानना है कि निर्वनीकरण और भूस्खलन की इस गति से हरा-भरा हिमालय रेगिस्तान में बदल जाएगा। यहां पेड़ और वनस्पति से ढके पर्वतों पर मानसून का पानी पहाड़ों के अन्दर चला जाता है और चट्टानों की परतों तथा दरारों के बीच से छनता हुआ निचले भागों में सोता या स्प्रिंग के रूप में पेयजल बाहर निकलता है। यदि वनस्पति न रहीं और भूस्खलन होते रहे तो जल संचय नहीं हो पाएगा और रेगिस्तान बनने की पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी।

मैदानी भागों में प्राकृतिक जल संचय बहुत बड़े पैमाने पर दो प्रकार से होता है। अनगिनत तालाबों में वर्षा जल संचित होता रहा है लेकिन लोभी इंसान ने इन तालाबों की कदर नहीं जानी। पहले तालाब पाटकर खेत बना दिए अब मनरेगा में पैसा लेकर तालाब खोद रहे हैं। दूसरे जमीन के नीचे कई हजार फिट मोटी बालू की परत है जिसके कणों के बीच से छनता हुआ जमीन के अन्दर पेयजल जमा हो जाता है। इस शुद्ध जल का दुरुपयोग करना उसी तरह होगा जैसे कोई किसान अपने घर में रखे सोने की कुदाल बनाए। काम तो करेगी लेकिन सोना फिर नहीं खरीद पाएगा, कुदाल बनाने के लिए। इस तरह मैदानी भागों में जहां जल संचय बढ़ाने के लिए वनस्पति को बचाना है वहीं संचित जल का विवेकपूर्ण किफ़ायत के साथ इस्तेमाल करना है।

दक्षिण के पठारी भागों की हालत सबसे जटिल है। वहां पर जल संचय के लिए जमीन में बालू जैसे कण नहीं हैं जिनके बीच में पानी जमा हो सके। वहां है ठोस चट्टानें जिनमें दरारों से थोड़ा पानी घुस तो सकता है और संचित हो सकता है लेकिन इनमें इतनी जगह नहीं कि पर्याप्त जल संचित हो सके। यहां तालाबों का अत्यधिक महत्व है और जमीन के अन्दर बावली बनाकर जल संग्रह करते रहे हैं। दक्षिण में पानी पंचायतों के माध्यम से सतही जल का प्रबंधन उत्तर से बेहतर रहा है। यहां यदि वर्षा ने धोखा दिया तो अभाव की हालत अधिक कष्टकर होती है जैसी आजकल हो रही है। 

भारत के तीनों ही प्राकृतिक क्षेत्रों में आवश्यकता है जल संग्रह की क्षमता बढ़ाने की, संचित जल का विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग करने और जल प्रयोग में मितव्ययिता लाने की। आगे आने वाले समय में समुद्र जल को शुद्ध करके उपयोग में लाने के विषय में भी मनुष्य को सोचना होगा लेकिन वह समय जब आएगा तब आएगा। अभी के लिए हम निर्वनीकरण से बचें, सिंचाई और उद्योगों में भूमिगत जल का दुरुपयोग न करें और जल उपयोग में किफायत लाएं। यही हमारे वश में है।    

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