प्रधान हम ही हैं माला बस 'वो' पहने हैं

Arvind ShukklaArvind Shukkla   17 Dec 2015 5:30 AM GMT

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प्रधान हम ही हैं माला बस वो पहने हैंगाँव कनेक्शन

बाराबंकी/लखनऊ। ग्राम पंचायत के चुनाव में 44 फीसदी महिलाओं का प्रधान पद पर जीतना समाज और लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर है। लेकिन यह महिला सशक्तिकरण से ज्य़ादा प्रधानपतियों और प्रधानबेटों का उदय है। विजेता भले ही कोई महिला हो लेकिन जीत का सेहरा उनके पतियों के सिर बंधा और फूलमाला भी उन्हें ही पहनाए गए।

मतगणना के दिन बाराबंकी के राजकीय इंटर कॉलेज में मतगणना चल रही थी। इसी बीच गाँव कनेक्शन रिपोर्टर को एक सज्जन मालाओं से लदे नजऱ आए। रिपोर्टर ने विजयी प्रत्याशी समझकर उनकी प्रतिक्रिया लेनी चाही तो उन्होंने अपने काफी पीछे चल रही महिला की ओर इशारा करते हुआ बताया, "जसमंडा ग्राम पंचायत में हमारी पत्नी निर्मला कुमारी भारी मतों से जीती हैं, इसलिए लोगों ने हमें माला पहना दिया।" कैमरा सामने देखकर उन्होंने एक माला अपनी पत्नी को भी पहना दी।

जीत का सेहरा बांधे प्रधानपति और प्रधानबेटे सिर्फ बाराबंकी जिले में ही नहीं थे। लखनऊ जि़ले में बख़्शी का तालाब इंटर कॉलेज में मतगणना के दौरान रामवीर सिंह माला पहने नज़र आए जबकि अस्ती ग्राम पंचायत से उनकी बुजुर्ग मां अनुमपा सिंह जीती थीं। 

कमोबेश यही हालात प्रदेश के ज्य़ादातर मतगणना स्थलों पर नज़र आए। जीत की घोषणा के बाद बंट रहे प्रमाणपत्र लेने भी महिला विजेता आगे नहीं आईं, उनके पतियों, बेटों ने ही सर्टिफिकेट लिया। अगर इक्का-दुक्का महिलाएं दिखीं भी तो वो प्रमाणपत्र देने वाली अधिकारियों की सख़्ती के कारण।

उत्तर प्रदेश की कुल पंचायत सीटों में से 33 फीसदी महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। तेरह दिसंबर को प्रदेश में 58,658 ग्राम पंचायतों में नए प्रधान निर्वाचित हुए। इनमें से 25,919 महिला प्रत्याशियों ने जीत हासिल की।

लेकिन एक तस्वीर है जो आशा जगाती है। इस बार प्रदेश की कुल सीटों में से 44 फीसदी सीटों पर महिलाएं जीती हैं जबकि आरक्षण केवल 33 फीसदी पर है। ये जो 11 प्रतिशत का अंतर है ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने इस बार वाकई में आगे बढ़कर चुनाव लड़ा है, जीता है और बागडोर संभाली है।

राजनीतिक विश्लेषक भी डमी-प्रत्याशी के चलन को लेकर चिंतित तो हैं लेकिन उन्हें बेहतर कल की उम्मीद भी है।

"हमारे लोकतंत्र में डमीशिप (बनावटी प्रत्याशी खड़ा करना) है। लेकिन, महिलाओं का जीतना ही बड़ी बात है। महिलाएं न सिर्फ ईमानदारी से काम करती हैं बल्कि कई बार पुरुषों से बेहतर साबित हुई हैं। वो जीती कैसे भी हों लेकिन उन्हें जीत के बाद अपनी आंतरिक ताकत पहचाननी होगी, तभी आरक्षण और उनकी जीत सार्थक होगी" रहीस सिंह, राजनीतिक विश्लेषक ने कहा।

बाराबंकी जि़ले में सूरजगंज ब्लॉक के भटुआमऊ से जीतीं एमए की छात्रा सोनम मौर्या (22 वर्ष) जैसी प्रधान भी आशा पैदा करती हैं। "ये सही है कि महिला सीट होने के कारण ही मैं चुनाव में उतरी, लेकिन अब मुझे खुद काम करने हैं। मैं वोट मांगने भी खुद ही गई थी"। सोनम ने तो सफाई, आधारभूत सुविधाओं और शिक्षा को सुधारने जैसे कामों की लिस्ट भी बना रखी है।

 

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