उत्तराखंड में लचर स्वास्थ्य सेवाएं, न डॉक्टर हैं न दवाएं

उत्तराखंड में डाक्‍टरों का अभाव, बेहतर इलाज के लिए दूसरे प्रदेश जाने को मजबूर हैं लोग

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   29 Jun 2019 10:20 AM GMT

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उत्तराखंड में लचर स्वास्थ्य सेवाएं, न डॉक्टर हैं न दवाएंप्रतीकात्मक तस्वीर साभार: गाँव कनेक्शन

लखनऊ। स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं के मोर्चे पर उत्तराखंड एक नयी तुलनात्मक रिपोर्ट में पहले से अधिक फिसड्डी साबित हुआ है। उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल निराशाजनक है। उत्तराखंड में हुए गाँव कनेक्शन के एक सर्वे के अनुसार 44.9 प्रतिशत लोगों ने कहा कि बीमार होने पर जब वे सीएचसी और पीएचसी पहुंचते हैं तब वहां कभी कभार ही डॉक्टर मिलते हैं। 23 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अस्पताल में डॉक्टर रहते हैं लेकिन दवाइयां नहीं मिलती हैं। सरकारी अस्पतालों की बदहाली के कारण सामान्य बीमारी तक के लिए लोग व्यक्ति प्राइवेट अस्पताल जाने के लिए मजबूर हैं।

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स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा विश्व बैंक के तकनीकी सहयोग से तैयार नीति आयोग की 'स्वस्थ्य राज्य प्रगतिशील भारत' शीर्षक से जारी रिपोर्ट में राज्यों की रैंकिंग से यह बात सामने आयी है। इस रपट में इन्क्रीमेंटल रैंकिंग यानी पिछली बार के मुकाबले सुधार के स्तर के मामले में 21 बड़े राज्यों की सूची में बिहार 21वें स्थान के साथ सबसे नीचे है। इसमें उत्तर प्रदेश 20वें, उत्तराखंड 19वें स्थान पर हैं। रिपोर्ट के अनुसार संदर्भ वर्ष 2015-16 की तुलना में 2017-18 में स्वास्थ्य क्षेत्र में उत्तराखंड 5.02 अंक की गिरावट आयी है।


उत्तराखंड के चंपावत जिला निवासी पान सिंह (60 वर्ष ) कहते हैं, "हमारे यहां सरकारी अस्पताल हैं लेकिन वहां दवा नहीं मिलती। डॉक्टर भी नदारद रहते हैं। गंभीर रूप से बीमार होने पर हम लोग यहां से 128 किलोमीटर हल्द्वानी लेकर जाते हैं। सरकारी अस्पतालों का बहुत बुरा हाल है।"

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देहरादून के रहने वाले कुलदीप व्यास (38वर्ष) भी सरकारी अस्पतालों के चक्कर काटने से परेशान हैं, उन्होंने बताया, "सरकार स्वास्थ्य के क्षेत्र में पैसा तो बहुत खर्च कर रही है, लेकिन उसका सही प्रयोग नहीं हो रहा है। सरकारी अस्पताल में डॉक्टर समय से नहीं आते, इलाज के नाम पर दो-चार गोलियां थमा दी जाती हैं। कर्मचारियों का व्यवहार भी ठीक नहीं होता है,इसलिए लोग सरकारी अस्पतालों से दूरी बना रहे हैं।"


बागेश्वर जिले के सीएमओ डॉक्टर जेसी मंडल ने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया, " उत्तराखंड में नर्सिंग स्टाफ और विशेषज्ञ डॉक्टरों की भी भारी कमी है। मैदानी जनपदों का हाल फिर भी ठीक है, लेकिन दुरुह पर्वतीय क्षेत्रों में स्थिति और बुरी है। हमारे जनपद में 33 विशेषज्ञ डॉक्टरों की जरुरत है लेकिन इस समय सिर्फ डॉक्टर हैं। आप खुद समझ सकते हैं किन हालातों में हम लोग का रह हैं।"

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प्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर प्रदेश में बड़े-बड़े अस्पताल, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य खोल तो दिए हैं, लेकिन डॉक्टरों के अभाव में ये बेकार साबित हो रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या प्रदेश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी को लेकर है। इस समय प्रदेश विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। स्थिति यह कि हृदय रोग, न्यूरो, मनोरोग आदि के गिने-चुने चिकित्सक हैं।


हल्द्वानी के रहने वाले मोहन लोसहाली (40वर्ष) ने बताया," पूरे उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। पहाड़ पर तो स्थिति और भी बदतर है। मेरे एक परिचित हो ह्दय से संबंधित बीमारी है,लेकिन यहां पर कोई डॉक्टर ही नहीं है। किसी भी गंभीर बीमारी के इलाज के लिए यहां के लोग बरेली, मुरादाबाद या दिल्ली जाने के लिए मजबूर होते हैं। सीएचसी-पीएचसी में डॉक्टर नहीं मिलते। दवाइयों का भी टोटा है। सरकार की इच्छा शक्ति की कमी से यह हाल है। "


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उत्तराखंड के डॉक्टर एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर डीपी जोशी ने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया, " डॉक्टर की कमी से हम लोग ग्रामीणों को बेहतर इलाज नहीं कर पा रहे हैं। मेरे जनपद में एक भी बेहोशी का डॉक्टर नहीं है। ऐसे में कोई ऑपरेशन कैसे हो सकता है। मैदानी क्षेत्र के डॉक्टर पहाड़ पर आना नहीं चाहते हैं। किसी गंभीर बीमारी के लोग या तो देहरादून जाते हैं या बरेली। "


केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11गुना कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भयावह है। वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है।

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