युवा प्रधान ने नौकरी छोड़ गाँव संग संवारा स्कूल

विद्यालय प्रबंधन समिति व प्रधानाध्यापक के साथ मिलकर स्कूल को दी नई पहचान, अब कई किमी. दूर से पढ़ने आते हैं बच्चे

Divendra SinghDivendra Singh   23 Aug 2018 7:42 AM GMT

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युवा प्रधान ने नौकरी छोड़ गाँव संग संवारा स्कूल

बर्डपुर (सिद्धार्थनगर)। ग्रामीण युवा पढ़ाई के बाद बड़े शहरों में नौकरी करना चाहते हैं, लेकिन यहां बात हो रही है ऐसे युवा प्रधान की जिसने इंजीनियरिंग करने के बाद प्रधान बनना पसंद किया और अब अपने गाँव में शिक्षा का स्तर सुधारने में जुट गए।

सिद्धार्थनगर जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी. दूर बर्डपुर ब्लॉक के पिपरसन गाँव के प्राथमिक विद्यालय की एक अलग पहचान है। इस पहचान को बनाने का श्रेय जाता है यहां के ग्राम प्रधान सर्वेश कुमार जायसवाल (28 वर्ष) व विद्यालय प्रबंधन समिति को।


सर्वेश जिले के सबसे कम उम्र के और सबसे शिक्षित प्रधान हैं। उन्होंने बीटेक करने के बाद मल्टीनेशनल कंपनी में प्रोजेक्ट इंजीनियर के पद पर भी काम किया। सर्वेश बताते हैं, "मैं प्रधान बनने के पहले नौगढ़ में कोचिंग क्लास चलाता था। मेरे एक दोस्त प्रदीप चौधरी पहले से ग्राम प्रधान थे, उनका मैं प्रचार करने निकला था, तब मुझे लगा कि मुझे प्रधान बनना चाहिए और लोगों की मदद से यह हकीकत भी हो गया।"

वह आगे कहते हैं, "मैंने उसी समय सोच लिया कि सबसे पहले गाँव की शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था में सुधार करूंगा। जब मैं यहां पर आया तो विद्यालय की हालत बहुत खराब थी, न तो छत सही थी न फर्श था, जब भी मैं स्कूल आता था, मुझे तीस-चालीस से ज्यादा बच्चे नहीं दिखते थे, ये देखकर बहुत बुरा लगता था कि मैं भी इसी स्कूल में पढ़ा हूं।"

"स्कूल की दीवारों में क्लास के हिसाब पेंटिग की गई है। पहली-दूसरी क्लास के बच्चों के कमरे में एबीसीडी, क ख ग, व गिनती की पेंटिंग की गई है और बड़ी क्लास के बच्चों के कमरों में देश-दुनिया के नक्शों के साथ आकाशगंगा को पेंट किया गया है, जिससे बच्चे आसानी से सीख सकें।"
सर्वेश कुमार जायसवाल, ग्राम प्रधान

सर्वेश कहते हैं, "मैंने तभी ठान लिया कि अपने स्कूल को बदलूंगा। जब मॉडल स्कूल की योजना आयी तो अधिकारियों के पास गया। उनसे अपने स्कूल को मॉडल बनाने को कहा। स्कूल शामिल तो हो गया, लेकिन सरकार की तरफ से उतनी मदद नहीं मिल पायी, तब अपने पास से प्रयास शुरू किया, इसमें ग्रामीणों और प्रधानाध्यापक ने भी काफी साथ दिया।"


स्कूल की छत और दीवारें बन गईं किताब

स्कूल की दीवारों और छतों पर अंग्रेजी और हिंदी के अक्षरों के साथ ही देश-दुनिया के नक्शों की पेंटिंग बनायी गयी है, जिससे बच्चों को सीखने में आसानी होती है। स्कूल के नाम से डरने वाले बच्चों की आंखों में सपने दिखने लगे हैं। कोई टीचर बनना चाहता है तो कोई पुलिस में जाना चाहता है।

"हमारे यहां अब भी बच्चे एडमिशन कराने आ रहे हैं, लेकिन हमारा विद्यालय इतना बड़ा नहीं है कि और एडमिशन ले सकें। यह प्रधान जी का ही योगदान है कि आज स्कूल की तस्वीर बदल गई है।"
बलवंत चौधरी, प्रधानाध्यापक


बढ़ी बच्चों की संख्या

एक समय था जब स्कूल में नाममात्र के बच्चे थे। आज बच्चों की संख्या 150 को पार गई है। प्रधानाध्यापक बलवंत चौधरी बताते हैं, "जब मैं यहां पर आया तो कक्षा पांच पास करके जाने वाले छात्रों के बाद सिर्फ 53 बच्चे ही बचे थे। बाद में प्रधान जी के सहयोग से पंफलेट छपवाया गया, लोगों से संपर्क किया गया, कई बच्चे निजी स्कूल छोड़कर आ गए, अब संख्या बढ़कर 165 हो गई है।"

सिद्धार्थनगर में विद्यालय

प्राथमिक: 1916

पूर्व माध्यमिक: 743

कई किमी दूर से आते हैं बच्चे

इस स्कूल से कई किमी. दूर से बच्चे पढ़ने आते हैं। पांचवीं क्लास में पढ़ने वाली नंदिनी को अब स्कूल आना बहुत अच्छा लगता है। नंदिनी बताती हैं, "पहले हमारा स्कूल बहुत टूटा-फूटा था, हमें अच्छा नहीं लगता था, लेकिन जब से स्कूल अच्छा बन गया, हम रोज स्कूल आते हैं। मैं ही नहीं हर कोई एक दिन भी अबसेंट नहीं होता है।"

    

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