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जिन्हें घर और समाज ने भी नहीं अपनाया, उन्हें बेहतर ज़िंदगी दे रहा है ये स्कूल

लखनऊ का भारतीय बधिर विद्यालय उन बच्चों की ज़िंदगी बदल रहा है जिन्हें उनके ही घर वालों ने उपेक्षित या नदी में फेंक दिया।
#TheChangemakersProject

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। मध्य प्रदेश के रीवा की सिम्मी मिश्रा जब पैदा हुईं तो घर में खुशी का माहौल था, लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुईं तो पता चला कि वे तो सुन ही नहीं सकतीं। सिम्मी के पिता उन्हें छोड़कर चले गए और उनकी माँ ने उन्हें तीन बार नदी में डुबोकर मारने की कोशिश की, लेकिन हर बार वो बच गईं।

तब सिम्मी के नाना को चित्रकूट में किसी से लखनऊ के भारतीय बधिर विद्यालय के बारे में पता चला और उन्होंने सिम्मी को यहाँ पढ़ने भेजा। 14 साल की सिम्मी अभी चौथी क्लास में पढ़ती हैं और आगे चलकर अपने जैसे बच्चों को पढ़ाने के लिए टीचर बनना चाहती हैं।

ये तो थी एक सिम्मी की कहानी, भारतीय बधिर विद्यालय में सिम्मी जैसे 13 लड़के-लड़कियाँ रहते हैं, जिसकी साल 2016 में शुरुआत की थी गीतांजलि नायर और धर्मेश कुमार ने।

यहाँ पर रहने वाले बच्चे सुन नहीं सकते लेकिन दूसरे बच्चों के तरह ही आगे बढ़ रहें, अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं; लेकिन ये इन बच्चों के लिए इतना आसान नहीं था। आखिर 53 वर्षीय गीतांजलि ने इस ख़ास स्कूल को क्यों शुरू किया के सवाल पर गीतांजलि गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “इसे शुरू करने में मुझे आठ साल लगे, लेकिन डिसेबिलिटी के साथ मेरी यात्रा तभी शुरू हो गई थी जब मैं आठ साल की थी; तब स्कूल में बोला गया कि तुम्हें जर्मन या फिर ब्रेल में से किसी एक को चुनना होगा तो मैंने ब्रेल को चुना।”

ग्रेजुएशन के बाद गीतांजलि दिल्ली के एक एनजीओ के साथ जुड़ गईं जो झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों के लिए काम करता था।

गीतांजलि कहती हैं, “जब मैं स्लम में बच्चों को पढ़ा रही थी तो वहाँ पर मुझे दो बच्चे मिले जो सुन या बोल नहीं सकते थे , हम किसी तरह का कम्युनिकेशन नहीं कर पाते थे। तब मैंने खुद से कहा कि गीतांजलि अब टाइम आ गया कि कुछ आगे किया जाए।”

फिर क्या था, गीतांजलि ने नौकरी छोड़कर मुंबई में अली यावर जंग नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पीच एंड हियरिंग डिसेबिलिटी में दो साल का कोर्स किया।

वहाँ से पढ़ाई करने के बाद गीतांजलि ने कई सारे डेफ स्कूलों में पढ़ाया, लेकिन उनकी असली यात्रा लखनऊ से शुरू हुई जहाँ पर उन्होंने भारतीय बधिर विद्यालय की शुरुआत की। गीतांजलि कहती हैं, “आप पूछ सकते हैं कि मैंने लखनऊ को ही क्यों चुना तो दरअसल एक रिसर्च के अनुसार यूपी में सबसे अधिक मूक बधिर बच्चे हैं।”

वो कहती हैं, “अभी 13 बच्चे हैं, लेकिन हम इससे ज़्यादा बच्चों को नहीं ले पाएँगे, क्योंकि अभी स्टाफ में सिर्फ मैं और धर्मेश सर हैं।”

यहाँ पर बच्चों को इंडियन साइन लैंग्वेज सिखायी जाती है, बच्चों को एकेडमिक कोर्स के साथ ही जैविक खेती, फोटोग्राफी, वेब डिजाइनिंग जैसी चीजें भी सिखायी जाती हैं।

यहाँ पर ज़्यादातर बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं, हर बच्चे के पीछे कोई न कोई कहानी है, किसी बच्चे के माता-पिता छोड़कर चले गए, क्योंकि जिन गाँवों से बच्चे आए हैं वहाँ इनके लिए पढ़ाई मुश्किल थी। कुछ बच्चों के साथ तो यौन हिंसा तक हुई है। एक बच्चे की कहानी बताते-बताते गीतांजलि रो पड़ती हैं।

गीतांजलि और भी बच्चों को यहाँ रखना चाहती हैं, लेकिन किराए के घर में और ज़्यादा बच्चों को रखना आसान नहीं। उनके पास अलग-अलग जगह से फोन आते रहते हैं। गीतांजलि और धर्मेश पिछले छह साल से बिना किसी सैलरी के बच्चों को पढ़ा रहे हैं।

गीतांजलि अपने इस स्कूल को शेल्टर या फिर हॉस्टल नहीं, बल्कि घर कहती हैं। “ये मेरा घर है और मैं इन बच्चों की माँ हूँ; अगले चार-पाँच साल में ये बच्चे हमारे ट्रस्ट के मेंबर बनेंगे और हमारे सपने को और आगे तक ले जाएँगे।” गीतांजलि ने कहा।

“इतने साल उनको पढ़ना-लिखना सिखाया, अब उन्हें ऐसे ही समाज में गुम नहीं होने देंगे, हम इन्हें बहुत आगे तक ले जाएँगे।” गीतांजलि ने गाँव कनेक्शन से कहा।

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