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प्राकृतिक खेती से सिर्फ एक एकड़ ज़मीन पर हर साल 20 फसलें उगाने का कमाल

आंध्र प्रदेश में सामुदायिक स्तर पर की जाने वाली प्राकृतिक खेती एक गेम चेंजर साबित हुई है। इस प्रोजेक्ट से जुड़े 850,000 किसान बिना किसी रासायनिक उर्वरक या कीटनाशकों का इस्तेमाल किए ज़मीन के छोटे से टुकड़े पर भी कई फसलें उगा रहे हैं।
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आंध्र प्रदेश के गाडेपालम गाँव में रहने वाली पी झाँसी के पास एक-चौथाई हेक्टेयर खेती की ज़मीन है। लेकिन ज़मीन के उस छोटे से टुकड़े पर, वह एक साल में 20 फसलें उगाती हैं। 35 वर्षीय किसान अपने खेत में बंगाल चना, सरसों, सूरजमुखी, ज्वार, धनिया के बीज, चारा फसलें जैसी फसलों को बिना कोई ज़्यादा खर्च किए उगा रही हैं।

इससे भी ज़्यादा प्रेरणा की बात यह है कि वह अपने खेत में किसी भी रसायन का इस्तेमाल किए बिना प्राकृतिक खेती कर रही हैं।

झाँसी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं अब उर्वरकों, कीटनाशकों और बीजों पर कोई पैसा खर्च नहीं करती हूँ। मैं सिर्फ गाय के गोबर, गुड़ और कुछ अन्य प्राकृतिक वस्तुओं के मिश्रण का इस्तेमाल करती हूँ। ”

लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। 2017 से उनके हालात काफी अलग थे। दक्षिण भारत के प्रकाशम जिले की ये किसान खरीफ (मानसून) सीजन में सिर्फ लाल चना और रबी (सर्दियों) में बंगाल चना उगाती थी। उर्वरकों, खरपतवारनाशकों और कीटनाशकों पर लगभग 40,000 रुपये का खर्चा अलग से था।

एक सीजन में अपनी आठ क्विंटल (1 क्विंटल = 100 किलोग्राम) उपज बेचने से उन्हें बमुश्किल कोई फायदा मिल पाता था। वह बिचौलिए के कर्ज में लगातार डूबती जा रही थीं। उससे उन्होंने बीज और उर्वरक खरीदे थे और अपनी उपज भी बेची थी।

जब प्राकृतिक खेती के पहल के तौर पर एक प्रोजेक्ट उनके गाँव में आया तो उन्हें इससे काफी मदद मिली। 2016 में आंध्र प्रदेश में यह पहल शुरू हुई थी और इसने दक्षिणी राज्य के खेती करने वाले किसानों की ज़िंदगी को काफी हद तक बदल दिया।

आंध्र प्रदेश में सामुदायिक स्तर पर की जाने वाली प्राकृतिक खेती (लोकप्रिय रूप से इसे एपीसीएनएफ के रूप में जाना जाता है) राज्य के कृषि विभाग का एक प्रोजेक्ट है। इसे चलाने की ज़िम्मेदारी एक गैर-लाभकारी संस्था रायथु साधिकारा संस्था (आरवाईएसएस) के हाथों में है।

आंध्र प्रदेश की समुदाय स्तर पर की जाने वाली खेती पूरी तरह प्राकृतिक है। यह भारत में सबसे बड़े प्राकृतिक खेती कार्यक्रमों में से एक है, और गाडेपालम गाँव की झाँसी उन हजारों लाभार्थी किसानों में से एक हैं जो प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए इस पहल का हिस्सा बनी हैं।

2016 में, जब ये पहल शुरू की गई थी, राज्य के 700 गाँवों में 40,000 किसान थे जिन्होंने प्राकृतिक खेती से जुड़ने का फैसला किया था। आज 3,730 गाँवों के 850,000 किसान इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं। कार्यक्रम के तहत साझा किए गए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, यह आंध्र प्रदेश में 6.3 प्रतिशत भूमि पर खेती करने वाले राज्य के 27 प्रतिशत गाँवों के किसानों का 14 प्रतिशत है।

आधिकारिक आँकड़ों का दावा है कि इस कार्यक्रम ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राज्य के लगभग 12 लाख लोगों पर असर डाला है।

सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और अब गैर-लाभकारी संस्था आरवाईएसएस के उपाध्यक्ष विजय कुमार थल्लम ने गाँव कनेक्शन को बताया, “एपीसीएनएफ ने झाँसी जैसे चैंपियन किसान तैयार किए हैं जो प्राकृतिक खेती करते हैं। साठ प्रतिशत चैंपियन किसान महिलाएँ हैं।”

इस साल अब तक, झाँसी ने चारा फसलों के अलावा चना, सरसों , सूरजमुखी, धनिया के बीज और ज्वार की कटाई कर चुकी हैं।

आज वह एक चैंपियन किसान होने के साथ-साथ ऐसी किसान भी हैं, जो अन्य किसानों को प्राकृतिक खेती के बारे में शिक्षित करती हैं और उन्हें बदलाव लाने में मदद करती हैं।

झाँसी की तरह एक और चैंपियन किसान हैं एच. नारायणप्पा। उन्होंने भी प्राकृतिक खेती को अपनाया है और इसे बाकी किसानों तक फैलाने में मदद कर रहे हैं। 48 वर्षीय किसान अनंतपुर जिले के मलप्पुरम गाँव में रहते हैं, जहाँ की जलवायु अर्ध-शुष्क है और मिट्टी में पानी नहीं समाता है।

नारायणप्पा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “बीस सालों तक, मैं अपनी चार एकड़ ज़मीन पर सिर्फ मूँगफली उगाता रहा। खेती की लागत बढ़ती गई और हालात कुछ ऐसे हो गए कि मुझे घर चलाने के लिए खेत में मज़दूरी करनी पड़ी।”

2018 में नारायणप्पा ने पूरी तरह से प्राकृतिक खेती की ओर रुख कर लिया और वह अपने क्षेत्र में 365 दिनों की फसल का प्रयोग करने वाले किसानों में से एक बन गए। उन्होंने अपनी ज़मीन के एक हिस्से को आम के बगीचे में बदल दिया और उसमें मूँगफली, बाजरा, मटर, लाल चना, अरँडी और फलियाँ उगाईं।

उनके मुताबिक, उनकी मूँगफली की पैदावार आठ क्विंटल से बढ़कर 12 क्विँटल हो गई, और अब उन्हें अन्य फसलों और सब्जियों से भी कमाई होती है।

क्या है प्राकृतिक खेती मॉडल

आंध्र प्रदेश में समुदाय स्तर पर की जाने वाली प्राकृतिक खेती का यह मॉडल बताता है कि साल भर में पेड़ों सहित खेत में कम से कम 15 से 20 फसलें लगानी होंगी। कम से कम जुताई होनी चाहिए और देशी बीजों का इस्तेमाल करना होगा। जानवरों का इस्तेमाल खेती के उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए, और मिट्टी के जीव विज्ञान को गति देने के लिए बायो स्टीमुलेंट का इस्तेमाल करना होगा।

इसके अलावा, कीटों से अपनी फसल बचाने के लिए बेहतर कृषि पद्धतियों और जैव कीटनाशकों का इस्तेमाल करना होगा। यह मॉडल बताता है कि रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशी और शाकनाशियों को हाथ नहीं लगाना है।

आंध्र प्रदेश की समुदाय स्तर पर की जाने वाली प्राकृतिक खेती की शुरुआत 2014 और 2016 के बीच राज्य में गंभीर सूखे के वर्षों में हुई थी। उस समय आईएएस अधिकारी थल्लम 2015-16 में कृषि और सहकारिता विभाग के विशेष मुख्य सचिव थे। उन्होंने यह देखने के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट करने का निर्णय लिया कि सूखे से स्थायी रूप से कैसे निपटा जाए।

थल्लम ने बताया, “किसानों को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया गया था। फिर भी उन्होंने प्राकृतिक खेती को आजमाने का फैसला किया; पहले साल में ही, पैदावार अच्छी हुई और इससे मुझे सरकार में उन बहुत से लोगों को चुप कराने में मदद मिली, जिनका झुकाव पारँपरिक खेती की ओर था।”

2018-19 में आरवाईएसएस के साथ काम करने वाले किसानों ने बताया कि प्राकृतिक खेती के तरीकों की वजह से फसलों को कम पानी की ज़रूरत होती है। रासायनिक उर्वरकों से की जाने वाली पारँपरिक खेती की तुलना में यह फसल 30 दिनों तक सूखे का सामना कर सकती है।

थल्लम ने गर्व के साथ कहा, “शोध से पता चलता है कि फसलें हवा से पानी का इस्तेमाल करती हैं और हमारे किसान पहले से ही अपने खेतों में यह देख रहे थे।”

मानसून से पहले सूखी बुआई

इससे एक नई अवधारणा का जन्म हुआ – मानसून से पहले सूखी बुआई। मार्च-अप्रैल में, जब रबी की फसल की कटाई हो रही होती है, तो 15 से 20 किस्मों की दालें, बाजरा और तिलहन को लकड़ी की राख और अन्य चीजों के साथ मिलाकर खेतों में फैला दिया जाता है।

अनंतपुरमू और श्री सत्य साई जिलों में आरवाईएसएस के जिला परियोजना प्रबंधक वी लक्ष्मा नाइक ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कोटिंग गोली बीज की रक्षा करती है, नमी बनाए रखने और बीज के अंकुरण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करती है। मल्च (पत्तों का कचरा) पूरे खेत में फैला हुआ है, जो वातावरण मैं मौजूद पानी लेने के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम करता है। यह सुबह की ओस के रूप में भूमि की सतह पर गिरता है।” यह नाइक ही हैं जिन्होंने प्री-मानसून सूखी बुआई की योजना तैयार की थी।

नाइक ने गाँव कनेक्शन को बताया, “खरपतवार तब होते हैं जब फसल काटने के बीच अंतराल होता है। साल भर का हरित आवरण वाष्पीकरण हानि और पानी के बहाव को कम करता है। फसल के बचे हुए टुकड़े गीली घास के साथ मिलकर, मिट्टी की पोरसिटी यानी सरंध्रता को बढ़ाते है और मिट्टी की जल सोखने की क्षमता भी बढ़ जाती है।”

आंध्र की प्राकृतिक खेती पहल पर एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि जिन किसानों ने प्राकृतिक खेती को अपनाया, उनकी उपज में औसतन 11 फीसदी की बढ़ोतरी, 44 प्रतिशत कम इनपुट लागत और प्रति हेक्टेयर शुद्ध आय में 99 फीसदी की वृद्धि हुई।

इस साल जुलाई में प्रकाशित अध्ययन के प्रमुख लेखक पवन सुखदेव ने कहा, “यह उस गलत धारणा को खारिज करता है कि प्राकृतिक खेती दुनिया का पेट नहीं भर सकती। एपीसीएनएफ चार प्रकार की पूँजी बना रहा है – ज्ञान, प्रकृति, मानव और सामाजिक – जिससे निजी मुनाफे पर ध्यान में रखने वाले ज़्यादातर अर्थशास्त्री चूक जाते हैं। ”

प्राकृतिक खेती जैसी वैकल्पिक कृषि तकनीक, जिसे झाँसी और नारायणप्पा ने अपनाया है, न सिर्फ उनके खुद के भरण-पोषण के लिए, बल्कि जलवायु और समाज के एक बड़े हिस्से के लिए भी महत्वपूर्ण हो गई है।

सुखदेव ने बताया, “शून्य बजट प्राकृतिक खेती प्रकृति की नकल करती है। एक इनपुट गहन कृषि प्रणाली से जैव विविधता गहन प्रणाली की ओर बढ़ती है। अगर हम प्रकृति का गला घोंटना बंद कर दें, तो सुधार जल्दी होगा।”

किसानों के लिए एटीएम

इस साल की शुरुआत में, आंध्र प्रदेश समुदाय स्तर की प्राकृतिक खेती ने किसानों के लिए एक और कृषि पहल, एटीएम (एनी टाइम मनी) की शुरुआत की है।

एटीएम मॉडल कई तरह की सब्जियों की रिले क्रॉपिंग को बढ़ावा देता है जिनकी कटाई अलग-अलग समय पर की जा सकती है। इस तरह किसानों को बुआई के पहले पखवाड़े के भीतर ही आय होने लगती है और हर महीने लगातार आमदनी होती रहती है।

अनंतपुर जिले के मल्लापुरम गाँव के नारायणप्पा एटीएम मॉडल अपनाने में सबसे आगे हैं। उन्होंने आधा एकड़ ज़मीन में मूली, क्लस्टर बीन्स, चुकंदर, गाजर, टमाटर और पत्तेदार सब्जियां उगाईं हैं।

नारायणप्पा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैंने हमारे स्थानीय बाजार कल्याणदुर्गम में फसल बेचकर लगभग दो लाख रुपये कमाए।”

इस साल मई में, ग्रामीण विकास विभाग के प्रमुख सचिव ने नारायणप्पा के खेतों का दौरा किया और इसे “ग्रामीण आजीविका के लिए सबसे अच्छा मॉडल” बताया।

ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाना

आंध्र प्रदेश की समुदाय स्तर की प्राकृतिक खेती राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मेघालय राज्य सरकारों को प्राकृतिक खेती की ओर जाने में मदद कर रहा है। इसकी योजना छह अन्य राज्यों के साथ भी काम शुरू करने की है। नेपाल, रवांडा और श्रीलंका ने भी मदद के लिए संपर्क किया है।

इस साल जुलाई में, आंध्र प्रदेश समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक खेती ने एक ‘किसान वैज्ञानिक कार्यक्रम’ शुरू किया जो प्राकृतिक खेती में चार साल की बी.एस.सी. कराता है।

थैलम के मुताबिक, उनका 77 फीसदी खर्च मास्टर किसानों को प्रशिक्षित करने पर होता है। राज्य स्तरीय प्राकृतिक खेती कार्यक्रम का लक्ष्य अगले सात सालों में राज्य के 85 फीसदी किसानों तक पहुँचना है।

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