हुनर से बदला जिन्दगी का ताना बाना

"हमारे क्षेत्र के बहुत लोग हैंडलूम का काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें लगता है कि ये काम बहुत कठिन है। हम चाहते हैं लोग इस हुनर को सीखें और आगे बढ़ाएं, आज हमारे बच्चे हमारी इस जीविका से अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर पा रहे हैं।"

Deepanshu MishraDeepanshu Mishra   8 Feb 2019 7:45 AM GMT

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(पाकुड़) झारखण्ड। ग्रामीण क्षेत्र में जिन हाथों में हुनर है पर वो पैसे के अभाव में अपने हुनर को आकार देने में सक्षम नहीं हैं ऐसे लोगों को झारखंड स्टेट लाइवलीहुड मिशन सोसाइटी आजीविका मिशन के तहत रोजगार से जोड़ने का काम कर रहा है। जिसमें से अब्दुल रहीम एक हैं जो हैंडलूम के जरिए अपने हुनर को निखार रहे हैं।

झारखंड के पाकुड़ जिले के लिट्टीपारा ब्लॉक के कमलघाटी गाँव में रहने वाले अब्दुल रहीम ने शॉल बनाने वाली बांस की मशीन खुद बनाई है। ये दोनों पति-पत्नी हैंडलूम का काम करते हैं। अब्दुल रहीम ने बताया, "हमारी पत्नी समूह से जुड़कर बचत करती थी जब हमने हैंडलूम का बिजनेस शुरू करना तो इन्होंने समूह से 50,000 का लोन लिया। हफ़्ते में एक दिन शाल बेचने जाते हैं, एक शाल 200 से 1000 रुपए तक का बिकता है।" वो आगे बताते हैं, "हमारे क्षेत्र के बहुत लोग हैंडलूम का काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें लगता है कि ये काम बहुत कठिन है। हम चाहते हैं लोग इस हुनर को सीखें और आगे बढ़ाएं, आज हमारे बच्चे हमारी इस जीविका से अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर पा रहे हैं।"

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इस मशीन पर काम हमारी पत्नी करती हैं। मैं उनकी मदद करता हूँ। मेरी पत्नी से मेरी मुलाक़ात असम में हुई थी। हम वहां पर अपने दीदी के घर पर रहकर पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन वहां जाने के कुछ समय बाद हमारी पढ़ाई छूट गयी और मैं वहन पर हैंडलूम का काम करने लगा। काम एक जगह नहीं था जगह-जगह जाते थे और काम करते थे। एक दिन काम करने के लिए एक जगह गया था जहाँ पर इनसे मेरी मुलाक़ात हो गयी। ये मेरी दुकान स्वे रोज़ कपड़ा लेने आती थी और हम इनकी बहुत इज्जत भी करते थे। कभी चाय पिलाता था कभी मीठा खिलाता था। मैं बड़ी होशियारी से जो खिलाता था उसका पैसा भी उनसे कपड़ो में ही जोड़कर ले लेता था लेकिन कभी इनको पता नहीं चला कि जो उन्होंने खाया है उसका भी पैसा मैंने ले लिया है। ऐसे ही सब चलता रहा लेकिन जब इनका शादी के लिए रिश्ता आने लगा तब सब हमारे और इनके बारे में सबको पता चल गया।

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इन्होने सभी से बोल दिया कि अगर शादी करेंगें तो इन्हीं से करेंगे वरना किसी से भी नहीं करेंगे। घर वाले मान नहीं रहे थे और मैं इनको लेकर तेजपुर भाग गया। वहां पर जाकर हम शादी कर लिए। हम झारखण्ड से 1962 में गए थे और 1982 में शादी कर ली थी। 1984 में मैं अपनी पत्नी को लेकर यहाँ झारखंड चला आया। झारखण्ड आने से पहले इनके घर वालों ने हमारे ऊपर हमले भी किये थे जिसमें मेरे सर भी फट गया था।

असम से वापस आने पर मेरे पास जमीन तो थी लेकिन घर नहीं था, काफी मेहनत करने के बाद हमें अपना घर बनवाया। कभी एक समय खाना खाते थे तो कभी वो भी नहीं। मैंने एक दिन अपनी पत्नी से बोला कि तुम तो कपडा बीनना जानती हो तो हम अपना काम शुरू करते हैं तबसे हमने अपना का शुरू कर दिया। काम शुरू हो गया था और कष्ट के दिन दूर हो रहे थे तभी एक दिन मेरी मुलाकात जेएसएलपीएस के सर से हुई इन्होने बताया कि आप समूह से जुड़ जाइए और हम समूह से आपको पैसा दिलावायेंगे जिससे आप अपने काम को और अच्छे ढंग से कर सकें।

लोगों को पता चल गया है कि यहाँ पर शाल का काम होता है तो लोग घर से ले जाते हैं। हम सिर्फ एक दिन बाज़ार के लिए जाते हैं। एक शाल 200-1000 रूपये था का बिक जाता है। जो काम हम करते हैं वो अब कोई करना नहीं चाहता है लोग बोलते हैं ये बहुत कठिन काम जिसे हम नहीं सीख पायेंगे लेकिन हम चाहते हैं कि हैंडलूम का काम आगे बढ़े।

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जेएसएलपीएस के लघु उद्योग सलाहकार संजय कुमार ने बताया, हमारा काम होता है कि जो भी समूह से जुड़ी महिलायें हैं उनका रोजगार के माध्यम से उनका परिवार कैसे आगे बढ़े। मैंने देखा कि इनकी हालत बहुत खराब है लेकिन इनके पास हुनर है जिसके माध्यम से ये बिजनेस कर सकते थे। हमने इनको ट्रेनिंग दी। जिस योजना के बारे में इनको हमने बताया था उसमें इनको 80000 रूपये देने थे लेकिन इनके पास 30000 रूपये थे फिर समूह के द्वारा 50000 रूपये इनको दिलाये गए और इन्होने अपना कम शुरू कर दिया। आज इनके पोते पढ़ लिख रहे हैं घर अच्छा बन गया है और ख़ुशी से रहने लगे हैं।

    

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