नाव से मछली पकड़ने वाली महिलाओं के साथ रिपोर्टर ने बिताए 24 घंटे, पढ़िए इन महिलाओं की जिंदादिली की कहानी

नाव चलाकर मछली पकड़ने वाली इन महिलाओं की कहानी बड़ी जोखिम भरी है। पर इनके उत्साह के आगे इन्होंने इसमें भी महारथ हासिल कर ली है।

Neetu SinghNeetu Singh   5 Aug 2019 9:36 AM GMT

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झारखंड के रांची में एक डैम है। जिसमें कई किलोमीटर तक में पानी रहता है। इसी में कुछ महिलाएं मछलियां पकड़ती हैं। जब हवा का झोंका आता है तो इनकी नाव पानी में डगमगा जाती है। एक बार नाव पानी में उतर गई तो उन्हें 3-4 घंटे उसी में रहना पड़ता है। गांव कनेक्शन की सीनियर रिपोर्टर नीतू सिंह ने इन महिलाओं के साथ 24 घंटे बिताए, देखिए ये अनोखी यात्रा...

रांची (झारखंड)। सुबह के छह बजे शीला नायक रांची के गेतलसूत डैम के बीचोबीच हर रोज की तरह आज भी नाव चलाती हुई पहुंच गईं थीं। लेकिन कुछ देर बाद अचानक से आये हवा के इस तेज झोंके से पानी में उठी तेज लहरों ने उनके मन को बेचैन कर दिया था। ये वो क्षण था जब हमने किसी अनहोनी को बहुत करीब से देखा और महसूस किया था।

लगभग दो तीन मिनट की तेज लहर ने मेरे मन में हजारों सवाल खड़े कर दिए थे। मैंने सोच लिया था आज शायद हम बचकर नहीं निकल पाएंगे। जबकि शीला अपने चेहरे पर चिंता की तमाम लकीरों के बावजूद लहर की दिशा में तेजी से नाव चला रही थी। ये मेरे कैरियर में पहली बार ऐसा था जब हमने इतने डरावने हालात हो करीब से देखा था। खैर दो तीन मिनट के बाद हवा का झोंका थमा और डैम की लहरें थमने लगीं। जब मैंने शीला की ओर देखा तो उसके चेहरे पर किसी बड़े हादसे से बाहर सुरक्षित निकलने का आत्मविश्वास था।

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सुबह के छह बजे नाव चलाती शीला नायक.

मेरे लिए ये डरावना दृश्य पहली बार था पर शीला नायक (33 वर्ष) हर दिन ऐसे जोखिमों का सामना करती है। पर वो नाव चलाना नहीं छोड़ सकती है क्योंकि ये उसके परिवार की रोजी रोटी का सवाल है। गर्मी में जो हवा के झोंके हमें और आपको सुकून देते है वो नाव चलाने वाली शीला जैसी उन तमाम महिलाओं के लिए जोख़िम भरे होते हैं। नाव चला रही शीला ने मुझसे कहा, "मुझे इन लहरों से अपनी परवाह बिलकुल नहीं थी। ये तो हमारे साथ हर दिन होता है। मैं इसलिए परेशान हो गयी थी क्योंकि इस नाव में आप बैठीं थीं।" शीला के इन शब्दों ने मुझे भावुक कर दिया था।

करीब दो घंटे बाद हम डैम के बाहर थे तभी मेरी नजर दूर से आ रही एक दूसरी नाव पर पड़ी। जिसे एक महिला चला रही थी और एक लड़का बैठा हुआ था। मैं तो बाहर सुरक्षित निकल गयी थी पर तबतक मुझे उस महिला की चिंता सताने लगी क्योंकि उस समय आसमान में काले बादल मंडरा रहे थे। मैं कुछ पूंछती उससे पहले ही शीला बोली, "ये मेरी छोटी बहन सीता है और साथ में उसका 15 साल का बेटा। ये रोज ऐसे ही अपने बेटे को लेकर जाती है। क्योंकि डैम के अन्दर दो लोगों की जरूरत होती है। कोई एक नाव चलाता है और दूसरा जाल निकालता है।"

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ये सुनकर मैं कुछ सोचने लगी। मैं सीता से ये जानना चाहती थी कि आखिर उसकी ऐसी क्या मजबूरी है जो वो अपने 15 साल के बेटे को लेकर रोज ऐसा जोखिम उठाती है। शीला की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा, "घर चलिए, मेरे बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे होंगे। देखूं चलकर उन्होंने कुछ नाश्ता बनाया या नहीं।" शीला जब डैम के बीच में थी तब वो जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही थी और परेशान थी लेकिन अभी उसकी प्राथमिकताएं कुछ और थीं। मैंने ये महसूस किया कि उसके पास इतना भी वक़्त नहीं था कि वो डैम के अन्दर हुई परेशानियों के बारे में कुछ सोंच पाए जबकि मेरे दिमाग में अभी भी सबकुछ वही घूम रहा था।

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मैंने शीला को घर जाने को कहा और सीता से मिलकर खुद के वापस आने की बात कही। शीला इतना सुनते ही छट से अपने पति की मोटर साइकिल पर बैठी और घर के लिए निकल गयी। क्योंकि उसे फ़िकर थी कहीं उसके बच्चे आज स्कूल भूखे न चले जाएँ। सीता अभी भी मुझसे काफी दूर थी। मैं एक बार पुनः डैम के अन्दर जाना चाहती थी और सीता के अनुभव को करीब से देखना और महसूस करना चाहती थी। पर जाती कैसे मुझे तो नाव चलाना ही नहीं आता था। तबतक मैंने उस बस्ती के दो लड़कों को अपनी ओर आते हुए देखा। मैंने उनसे कहा, 'आपको नाव चलानी आती है मुझे उस महिला तक जाना है'. उसमें से एक लड़का बोला, "हमारी बस्ती में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे नाव चलाना नहीं आता होगा।"

ये हैं सीता देवी जो पिछले पांच वर्षों से ऐसे ही नाव चला रही हैं.

उसने छट से किनारे पर लगी एक नाव को खोलकर वो मुझे उस महिला के पास लेकर चल दिया। जब उस महिला ने मुझे अपने पास आते देखा तो वो दूर से ही हंसने लगी। हवा फिर से चलने लगी थी, लहरें भी उठने लगी थी। लेकिन अभी ज्यादा डर मुझे इसलिए नहीं लग रहा था क्योंकि हम किनारे से बहुत दूर नहीं थे। सीता देवी (30 वर्ष) अब तक हमारे करीब आ चुकी थी वो हंसते हुए मुझसे बोली, "दीदी आज आपको खूब मजा आयी होगी, आपके लिए तो पिकनिक हो गयी। हम लोगों के लिए तो ये रोज का काम है। पांच-छह साल से ऐसे ही चला रही हूँ।" सीता मुझे बहुत खुश लग रही थी पर मैं शायद खुश नहीं थी। क्योंकि मैं अभी डैम के अन्दर होने वाली चुनौतियों को महसूस करके आयी थी।

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मुझे सीता के हाव-भाव से ऐसा लग रहा था जैसे उसे नाव चलाने में महारथ हासिल हो। उसके चेहरे पर खौफ़ की एक भी लकीरें नहीं थीं। वो बिलकुल मस्त मौजी महिला लग रही थी। उसकी निडरता को देखकर मैंने उससे पूंछ ही लिया, 'इस छोटे से बच्चे के साथ आपको डैम के अन्दर डर नहीं लगता' उसने बड़ी बेपरवाही से जबाब दिया, "बिलकुल डर नहीं लगता. पांच साल से यही काम कर रही हूँ। मेरे दो बेटे हैं एक अपने पापा के साथ नाव पर जाता है एक मेरे साथ। जब हम दोनों और इन बच्चों को लगाकर मेहनत करते हैं तब कहीं आज पक्का घर बनवा पाए हैं।" सीता की शादी बचपन में हो गयी थी उसका वैसे तो कोई सपना नहीं था बस एक अच्छा टाइल्स वाला घर हो जो पूरी बस्ती से सबसे अलग हो वो ये जरुर चाहती थी।

गेतलसूत डैम से मछली निकालते हुए शीला का पति कार्तिक नायक.

जब हम सीता के घर पहुंचे तो वाकई उसका चमचमाता टाइल्स का घर देखकर मेरी आँखे ठहर गईं। ये वही घर है जिसे पूरे करने का सपना कभी सीता ने देखा था। उसके घर में जरूरत की वो हर एक सुविधाएँ हैं जिसे वो चाहती थी। पर अपने इस सपने को पूरा करने के लिए सीता हर दिन भोर के तीन बजे गेतलसूत डैम के बीच नाव चला रही होती है। कल तक वो अपने सपने को पूरा करने के लिए ये काम करती थी और आज उसके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ सकें इसलिए वो ऐसा कर रही है। सीता की तरह इस बसती की हर महिला की कहानी बहुत ही दिलचस्प और सीख लेने वाली है।

हम जिन नाव चलाने वाली महिलाओं की बात कर रहे हैं ये रांची जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर अनगढ़ा ब्लॉक के महेशपुर बगान टोली में रहती हैं। इस बस्ती में 45 घर हैं। यहांपर रहने वाले ज्यादातर परिवारों का मछली मारकर बेचना ही उनका पुश्तैनी काम है। पहले ये काम यहाँ के पुरुष करते थे लेकिन पिछले पांच छह वर्षों से ये काम महिलाएं करने लगी हैं। ये सभी महिलाएं राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत सखी मंडल से जुड़ी हुई हैं।

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महिलाओं की इस मेहनत और लगन को देखकर झारखंड में चल रही जोहार परियोजना के अंतर्गत इनका वर्ष 2018 में उत्पादक समूह बनाया गया। इनके उत्पादक समूह का नाम महेशपुर बगान टोली आजीविका उत्पादक समूह है जिसमें 63 महिलाएं इसकी सदस्य हैं। सीता और शीला की तरह इस उत्पादक समूह की 40 महिलाएं मछली मारने से लेकर बेचने तक का काम खुद करती हैं। गेतलसूत डैम में जो मछलिय पड़ी हैं वो मत्स्य विभाग द्वारा डाली गयी हैं जिसे इस बसती के लोग पकड़कर अपनी रोजी-रोटी चला सकते हैं। इसके लिए इन्हें किसी तरह का कोई भुगतान नहीं करना पड़ता है। पर इस काम को करने में इनकी जिंदगी में जो रिस्क रहता है उसकी भी कोई भरपाई नहीं कर सकता।

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इस उत्पादक समूह की अध्यक्ष सुनीला देवी (25 वर्ष) बताती हैं, "मायके में मछली मेरी माँ बेचती थी तब उन्हें हम साइकिल से बाजार तक छोड़ने और लेने जाते थे। गरीबी की वजह से 16 साल की उम्र में हमारी शादी हो गयी थी। ससुराल आये दो साल बाद अपनी छह महीने की बेटी को गोद में लेकर मछली बेचने बाजार जाने लगे थे।" वो आगे बोली, "पहले आटो से जाते थे हफ्ते के दो बाजार मंगल और शुक्र टाटी सिल्वे जाते थे। हजार पांच सौ की आमदनी हो जाती थी। अभी तो स्कूटी ले ली है उसी में रखकर मछली बेचने जाते हैं। अपने खर्चे के लिए पति के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता।"


जाल में मछली फंसाने से लेकर बाजार तक पहुँचाने तक की पूरी जिम्मेदारी ये महिलाएं बखूबी निभा रहीं हैं। पर इन सबके बीच इन्हें जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है हर दिन अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है तब कहीं जाकर आपकी थाली तक ये ताजी मछली पहुंचा पाती हैं। सीता शीला और सुनीला की तरह इस बसती में रहने वाली मछली मारकर जीविका चलाने वाली महिलाओं की कहानियाँ लगभग एक जैसी ही है। इस बसती में हमने इनके साथ 24 घंटे से ज्यादा का वक़्त गुजारा वो अनुभव फिर कभी साझा करेंगे।

सुबह तीन से चार बजे के बीच ये महिलाएं होती हैं डैम के भीतर

हर दिन अगर हवा न चले तो ये महिलाएं इस डैम से मछली का जाल डालने के लिए दोपहर के तीन चार बजे के बीच डैम के अन्दर होती हैं। डैम में जाल डालना हो या निकालना हो हमेशा नाव में दो लोगों की जरूरत पड़ती है जिसमें एक नाव चलाता है दूसरा जाल डालता है वही प्रक्रिया जाल निकालने के समय लागू होती है। दोपहर में जाल डालने के बाद अगर सुबह भोर में तीन चार बजे हवा नहीं चलती है तो ये उसी समय पति-पत्नी या माँ बेटा नाव लेकर डैम के भीतर होते हैं।

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जाल में फंसी मछली निकालकर ये छह बजे तक डैम से बाहर हो जाते हैं और सात आठ बजे तक अपने घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर रांची में लगने वाले लालपुर बाजार में मछली बेचने आ जाते हैं। मछली बेचकर 12 से एक बजे तक ये घर पहुंचते हैं और फिर एक दो घंटे बाद वही जाल डालने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। रोजाना जिस हिसाब से जाल में मछली फंसती उस हिसाब से एक महिला की आमदनी 500-2000 रुपए तक हो जाती है।

इनकी छुट्टी उसी दिन होती है जिस दिन हवा नहीं चलती है। बाकी ये इनका हर दिन का काम है, ये समय के बहुत पाबन्द होते हैं बस इनकी दिनचर्या तब अस्त-व्यस्त होती है जब इनके काम के समय हवा चलने लगती है। जिस दिन हम इनकी बसती में रुके थे उस दिन सुबह तीन चार बजे तेज हवा चल रही थी इसलिए उस दिन सुबह छह बजे हवा बंद होने के बाद डैम में गये थे।

इस बसती की हेमंती देवी (29 वर्ष) बताती हैं, "दोपहर में मछली का जाल डालने और अगले दिन सुबह जाल निकालने में लगभग चार से पांच घंटे लग जाते हैं। चार से पांच घंटे बाजार में बेचने में लगता हैं। सुबह ढाई तीन बजे सोकर उठ जाते हैं और रात नौ दस बजे तक सो जाते हैं। यही हमारा रोज का काम है।"

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