इन ग्रामीण महिलाओं को मिली अपने नाम की पहचान, हर कोई इन्हें अब इनके नाम से है जानता

ये महिलाएं अपनों की चुनौतियां और समाज के ताने सुनती रहीं, पतियों की मार सहती रहीं पर सखी मंडल की बैठक में जाना बंद नहीं किया। किसी की पत्नी, माँ और बहन के नाम से जानी जाने वाली इन महिलाओं को सखी मंडल से जुड़ने का बाद आज हर कोई इन्हें इनके नाम से जानता है।

Neetu SinghNeetu Singh   3 July 2018 10:03 AM GMT

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इन ग्रामीण महिलाओं को मिली अपने नाम की पहचान, हर कोई इन्हें अब इनके नाम से है जानता

रामगढ़ (झारखंड)। वर्षों से चाहरदीवारी के अन्दर सीमित रहने वाली महिलाओं ने जब चौखट के बाहर कदम निकाला तो उनके अपने ही विरोध करे लगे। ये अपनों की चुनौतियां और समाज के ताने सुनती रहीं, पतियों की मार सहती रहीं पर सखी मंडल की बैठक में जाना बंद नहीं किया। किसी की पत्नी, माँ और बहन के नाम से जानी जाने वाली इन महिलाओं को सखी मंडल से जुड़ने का बाद आज हर कोई इन्हें इनके नाम से जानता है।

ग्रामीण विकास विभाग के सहयोग से झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी राज्य के 24 जिलों में महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर काम कर रहा है। आजीविका मिशन के तहत ग्रामीण महिलाओं को सखी मंडल से जोड़कर उन्हें सप्ताह में 10 रुपए बचत करना सिखाया जाता है और हर बैठक में इन्हें सरकार की तमाम योजनाओं की जानकारी दी जाती है। इन महिलाओं को समूह से लोन देकर रोजगार करने के लिए प्रेरित किया जाता है। छोटे-छोटे रोजगार करके जब इनकी आमदनी होने लगती है तो इनका आत्मविश्वास बढ़ता है और धीरे-धीरे ये दूसरी महिलाओं को भी जागरूक करने लगती हैं।

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सखी मंडल से राज्य की 16 लाख से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं जुड़ी हैं। इनमें से लाखों महिलाओं ने स्वयं सहायता समूह से लोन लेकर खुद का व्यवसाय शुरू किया है। जब ये महिलाएं घर से निकलने लगीं, समूह में जाकर नई-नई जानकारी प्राप्त करने लगी तो इनकी आत्मनिर्भरता बढ़ी। अब इनके ही घर में कोई भी फैसला लिया जाता है तो इनकी राय जानी जाती है, ये पढ़ी-लिखी तो नहीं है पर जागरूक और सशक्त हैं। अब इन्हें इनके नाम से जाना जाता है।

हम आपको मिलवाते हैं रामगढ़ जिले की उन चार महिलाओं से जिन्होंने संघर्षों के बीच अपने बदलाव की कहानी खुद गढ़ी है। जो कभी मायके और ससुराल तक सीमित थीं आज वो दूसरे के लिए उदहारण बन गयी हैं। अब इन्हें इनके अपनों के बीच में अपने नाम की पहचान मिली है।

कभी नहाने के साबुन के लिए मोहताज रहने वाली उर्मिला देवी आज हर महीने 25 हजार रुपए कमाती

उर्मिला देवी

"उग्रवादी क्षेत्र होने की वजह से 16 साल में शादी हो गयी। सांवला रंग था इसलिए हमेशा हमारे रंग के ताने मिलते। ससुराल में गरीबी का आलम ये था कि नहाने का साबुन हर दिन नसीब नहीं होता था।" ये बताते हुए उर्मिला देवी (33 वर्ष) ने साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पोंछते हुए कहा, "हम घर की गरीबी दूर करना चाहते थे, पति की मार से बचना चाहते थे। तमाम ताने सुनकर और पति की मार सहकर घर के बाहर कदम निकाला। सखी मंडल से जुड़ी, स्वयं सहायता समूह की बैठक में हर हफ़्ते जाने लगी, सप्ताह में बचत करना शुरू किया। लोन लेकर मुर्गी पालन पति को शुरू कराया और आज हम जेएसएलपीएस में ब्लॉक स्तर पर काम कर रहे हैं, हर महीने 25 हजार रुपए कमा लेते हैं।"

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उर्मिला देवी रामगढ़ जिला मुख्यालय से 22 किलोमीटर दूर मांडूडीह गांव की रहने वाली हैं। शादी के बाद शराब पीकर इनके पति आए दिन मारपीट करते थे। साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुआ कहा, "शादी के कई साल तक ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा जिस दिन हम रोए न हों। हम कुछ करना चाहते थे, घर की गरीबी को दूर करना चाहते थे। एक बार घर से निकल कर किसी काम से ब्लॉक गये थे वहां गांव के एक व्यक्ति से कहासुनी हो गयी वो रिश्ते में हमारे ससुर लगते थे। इस बात को लेकर गांव में पंचायत बैठ गयी, कई दिनों तक समाज के ताने सुने थे और पति की मार खाई थी।" इन विपरीत परिस्थियों में उर्मिला देवी ने हार नहीं मानी। इनके पति मुर्गी पालन से हर महीने 20-25 हजार रुपए कमा लेते हैं।

घर तक सीमित रहने वाली उर्मिला देवी को गांव से लेकर जिलास्तर तक के अधिकारी इन्हें इनके नाम से पहचानते हैं। अब गांव में कोई बैठक हो या इनके घर में कोई फैसला लेना हो उर्मिला की राय लिया जाना जरुरी समझा जाता है।

दिन के 15 रुपए की मजदूरी से महेश्वरी देवी ने अपने बच्चों को पढ़ाया

माहेश्वरी देवी

झारखंड राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों का शराब पीना बहुत ही सामान्य माना जाता है। यहां घर का खर्चा चलाना महिलाओं की जिम्मेदारी होती है। घर का खर्चा चलाने से लेकर बच्चों को पढ़ाने तक की जिम्मेदारी महेश्वरी देवी (48 वर्ष) ने बखूबी संभाली थी। कम उम्र में इनकी शादी हो गयी पति शराब के लती थे, शराब के नशे में हरदिन मारपीट करते। महेश्वरी देवी के दो बेटे और एक बेटी जब बढ़े होने लगे तो उनको पढ़ाने की चिंता इन्हें होने लगी।

अपने तीनों बच्चों को लेकर महेश्वरी देवी अपने मायके चली गईं। फैक्ट्री में 25 साल काम करने के बाद जब बच्चे पढ़ लिखकर बढ़े हो गए तब ससुराल वापसी की। महेश्वरी देवी ने बताया, "फैक्ट्री में आठ घंटे काम करने के 15 रुपए मिलते थे। तब जमाना और था 15 रुपए भी हजार से कम नहीं लगते थे। बच्चे पढ़ जाएं अपने पैरों खड़े हो जाएं बस हम यही चाहते थे। आज हम खुश हैं जो चाहते थे वो हमने पूरा किया।" महेश्वरी देवी ने अपनी बेटी को पढ़ाकर अच्छे घर में शादी कर दी। एक बेटा बीए कर रहा है तो दूसरे को समूह से लोन लेकर ब्लॉक में एक दुकान खुलवा दी है।

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"आधा पेट खाते थे लेकिन बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थे, मायके में भी पति आ जाता था मारपीट करके पैसे ले जाता और दारु पी जाता। कई बार बच्चों की कॉपी-किताब बेचकर उसने शराब पी है। हम रोकर रह जाते थे पर कुछ कर नहीं पाते थे।" ये बताते हुए महेश्वरी देवी भावुक हो गईं, "पाई-पाई जोड़कर घर बनवाया। समूह में बचत करना शुरू किया। पति बहुत शराब पीता था, छह साल पहले मर गया है। अगर हमने अपने बच्चों को मजदूरी करके न पढ़ाया होता तो आज मैं अपने आपको कोसती।"

महेश्वरी देवी अभी मिट्टी के बर्तन बनाने का काम बढ़े पैमाने पर करती हैं। जब इन्हें जरूरत पड़ती है समूह से लोन ले लेती हैं और फिर बर्तन बेचकर चुका देती हैं। बर्तन बनाने से लेकर उन्हें पकाकर बेचने तक का पूरा काम ये खुद करती हैं। महीने में बर्तन बेचकर ये 20 से 25 हजार रुपए कमा लेती हैं। महेश्वरी दीदी के संघर्षों की चर्चा हर कोई करता है, आसपास के लोग इन्हें अपना आदर्श मानते हैं।

मायके और ससुराल तक सीमित रहने वाली रूबी देवी आज चला रहीं दीदी कैफ़े

रूबी देवी

कभी मायके से लेकर ससुराल तक आने जाने वाली रूबी देवी (26 वर्ष) आज ब्लॉक में 'दीदी कैफ़े' नाम की कैंटीन चला रहीं हैं। रूबी बताती हैं, "महिला की जिन्दगी ऐसी ही होती है, उसे ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता। दिनभर घर के काम करो शाम को शराबी पति की मार खाओ। इंटर तक पढ़ाई की थी मैंने, कुछ करना चाहती थी मैं। समूह से जुड़ी बचत करना शुरू किया। हर बैठक में नई-नई बातें सीखती थी, दीदी कैफ़े की शुरुआत हुई तो समूह से 50 हजार का लोन लेकर कैफ़े खोल दिया।" रूबी समूह से एक साल पहले ही जुड़ी थी लेकिन कुछ करने की इच्छा इनमें बहुत ज्यादा थी। जब कैंटीन खोलने की चर्चा हुई तो इन्होंने तुरंत समूह से लोन लेकर इसकी शुरुआत कर दी।

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स्वयं सहायता समूह में सप्ताह के 20 रुपए की बचत करने वाली रूबी अब दीदी कैफ़े से हर महीने पांच हजार रुपए कमा लेती हैं। रूबी की जिंदगी भी बाकी महिलाओं की तरह ही थी। परम्परा के अनुसार कम उम्र में शादी हो गयी और फिर मायके और ससुराल तक आना जाना रहा। कभी अपनों से बात करने में झिझकने वाली रूबी देवी अब ब्लॉक के अधिकारियों से बात करने में नहीं झिझकती है। अब रूबी को उनके पति के नाम से नहीं बल्कि उनके नाम से जाना जाता है।

घर के बाहर कदम निकाला तो सपना देवी ने पति के व्यवसाय में की मदद


सपना देवी चार बहनों और भाइयों में सबसे छोटी हैं। इनके बुजुर्ग माता-पिता ने आठवीं तक पढ़ाकर इनकी 16 साल की उम्र में शादी कर दी। ससुराल में आगे पढ़ने का मौका नहीं मिला। घर से बार निकलने में इनके पति बहुत रोका टोकी करते थे। ये समूह में दो साल पहले जुड़ी थीं। समूह से जुड़ने के बाद पहली बार रांची जाने का मौका मिला तो समूह की दीदियों ने इनके पति से सिफ़ारिश की थी। इसके बावजूद इन्हें अकेले जाने का मौका नहीं मिला था इनकी सास इन्हें लेकर गयी थीं।

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सपना देवी (27 वर्ष) बताती हैं, "घर से औरत का बाहर निकलना हमारे पति को पसंद नहीं है। जब गांव में समूह खुला तो हम भी जुड़ना चाहते, इनसे चोरी-छुपे समूह में बचत करना शुरू किया। पति बर्तन बेचते हैं, एक बार इन्हें पैसों की जरूरत पड़ी तो समूह से सात हजार रुपए का का लोन लेकर इन्हें दिए।" पति की इतनी आमदनी नहीं होती है जिससे सपना के जरूरत की चीजें आसानी से मिल सकें। सपना को लिखा-पढ़ी का काम अच्छे से आता था इसलिए इनके समूह में इन्हें सक्रिय महिला चुन लिया गया। अब इन्हें हर महीने 1500 रुपए मिल जाते हैं।

सपना में घर से बाहर कदम रखने से आत्मविश्वास बढ़ा है। एक बार इन्होंने समूह से लोन लेकर दो बकरी खरीदी। सपना का कहना है, "समूह से डेढ़ रुपए के ब्याज पर लोन मिल जाता है। जिसे हम धीरे-धीरे चुका देते हैं, अब जरूरत पड़ने पर किसी के आए हाथ नहीं फैलाना पड़ता है। पति बाहर अभी भी नहीं जाने देते हैं हम डांट खाते हैं मार खाते हैं लेकिन समूह की बैठक में जरुर जाते हैं।" सपना देवी के घर से बहार निकलने में इनकी सास बुत मदद करती हैं। समूह में लेकर गांव तक हर कोई सपना की समझदारी और बातचीत करने के तौर तरीके की तारीफ़ करता है। सपना जरूरत पड़ने पर समूह से लोन लेकर अपने पति के व्यवसाय में मदद करती हैं और खुद भी आत्मनिर्भर बन गयी हैं।

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