आम ही बने आम के पेड़ों के दुश्मन
गाँव कनेक्शन 14 March 2016 5:30 AM GMT

अविनाश सिंह
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी फल पट्टी में आम ही आम के पेड़ों के दुश्मन बन गए हैं। आम पैक करने के लिए पेटियों की डिमांड को पूरा करने लिए हरे-भरे पेड़ काटे जा रहे हैं। रात के अंधेरे में इन पेड़ों को काटकर अवैध रूप ये चलाई जा रही आरा मशीनों पर पहुंचाया जाता है। जहां इन्हें काट-पीट कर पेटियों के लिए कच्चा माल तैयार किया जाता है।
एक तरफ प्रदेश सरकार ने रिकॉर्ड पौधारोपण कर प्रदेश का नाम गिनीज बुक में दर्ज कराकर बड़ी उपलब्धि हासिल की है। वहीं दूसरी तरफ उसी प्रदेश की राजधानी के पास ही पेड़ों की अन्धाधुंध कटाई हो रही है। इन आरा मशीनों की आड़ में आम के हरे-पुराने पेड़ों और पूरी-पूरी बागों के साथ वन विभाग के जंगलों को भी काटा जा रहा है। रातों-रात इन लकड़ियों की चिरान किया जाता है। जिन आरा मशीनों पर लाइसेंस हैं वो भी उसका दुरुपयोग कर लकड़हट्टों से मिलकर कर हरे भरे पेड़ों को कटवा रहे हैं।
जिला मुख्यालय से 35 किमी दूर मलिहाबाद तहसील के अंतर्गत आने वाले दर्जनों गाँव में आरा मशीनों को अवैध तरीके से चलाया जा रहा है। मलिहाबाद तहसील आम उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है और मार्च से लेकर जुलाई तक आम के व्यापारियों को लाखों की संख्या में आम की पेटी की जरूरत पड़ती है। जिस वजह से इन चार महीनों में पेड़ों का कटान बहुत बढ़ जाता है।
लकड़ी माफिया और विभाग के अधिकरियों से सांठगाठ के चलते बिना परमिट के रात के अंधेरे में हरें भरे पेड़ों को काटकर उनका चिरान करवा देते हैं। आम की पेटी बनने के बाद 35 रुपए की बिकती है, जबकि बनाने में सिर्फ 10 रुपए के आस-पास खर्चा आता है। ज्यादा कमाई के चक्कर में लकड़ी माफिया और आरा मशीन संचालक मिलकर काम करते हैं। माल ब्लाक के जगतराम (40) (बदला हुआ नाम) एक आरा मशीन पर काम करते हैं। वो बताते हैं, “इस वक्त लकड़ी की बहुत डिमांड है। हमारे मालिक ने काफी लकड़ी ली है जबकि अभी भी लगातार खरीद रहे हैं। आम की पेटी बनाने का काम तेजी से जारी है। इस समय थानों और वन विभाग को भी ज्यादा पैसा देना पड़ता है।” इस बारे में बात करने पर लखनऊ की जिला वन अधिकारी श्रद्धा यादव ने बताया, “फरवरी महीने में हमारे रेंजर्स ने कुछ आरा मशीनों पर कार्रवाई की थी। अगर ऐसा कहीं होता है तो मैं गश्त बढ़ाऊंगी। आम के सीजन को देखते हुए विभाग सक्रिय है।” डीएफओ ने स्थानीय लोगों से सीधे उनसे बात कर शिकायत करने की भी बात कही।
अधिकांश आरा मशीनें जंगल और झाड़ियों के बीच लगाई गई हैं। गांव कनेक्शन रिपोर्टर जब इस इलाके में पहुंचा तो कई मशीने नज़र आईं लेकिन आसपास के लोगों ने खुल कर बोलने से मना कर दिया। एक ग्रामीण ने बताया लकड़ी माफिया के गुट में 15-20 आदमी होते हैं। रातों-रात लकड़ी काटकर अपने ट्रकों से ही आरा मशीनों तक भिजवा देते हैं। कई बार आसपास के जिलों से भी लकड़ियां या फिर आम की बेटी बनाने के लिए चिरी हुई लकड़ी लाई जाती है।
रायबरेली के डीएफओ ओपी सिंह बताते हैं, “हरे पेड़ों की कटान को देखते हुए 10 वर्षों से आरा मशीनों के नई लाइसेंस नहीं बनाए जा रहे हैं। अगर कहीं कटान की शिकायत मिलती है तो हम लोग उस पर कार्रवाई करते हैं।"
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