आरक्षण की बात के बहाने पासवान का जोखिम

रवीश कुमाररवीश कुमार   25 March 2016 5:30 AM GMT

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आरक्षण की बात के बहाने पासवान का जोखिमgaon connection ravish kumar

केन्द्र और राज्य सरकारों को एक कानून के तहत हर छह महीने पर बताना चाहिए कि किस विभाग में, किस श्रेणी में कितनी नौकरियां निकाली गईं हैं और कितने लोगों की छंटनी की गई है और कितनी नौकरियों की संख्या पहले की तुलना में कम की गई हैं। 

ज़रूरी है कि हम संवैधानिक रूप से जान सकें कि नौकरियों की संख्या क्या है। नेताओं और मंत्रियों की गप्पबाज़ी बहुत हो चुकी है। अच्छा होता कि वे भी इन सूचनाओं को नियमित रूप से ट्वीट करते और

लोगों को बताते कि ये संख्या है। तभी हम जान सकेंगे कि सरकारों के पास नौकरियों का कितना बड़ा बाज़ार है। उसमें कितनी सीटें आरक्षण से भरी गई हैं और कितनी ख़ाली रह गईं हैं। प्राइवेट कंपनियों की नौकरियों का अंदाज़ा अगर मुश्किल है तो सरकारी नौकरियों की गिनती बहुत आसान है। अव्वल तो प्राइवेट नौकरियों की गिनती भी आसानी से हो सकती है फिर भी सरकारी नौकरियों की गिनती का काम इसी वक्त और कम से कम हफ्तेभर की मेहनत में हो सकता है।

यह पता होना ज़रूरी है कि सरकारें विभिन्न स्तरों पर कितना रोज़गार पैदा करती हैं। स्थायी और अस्थायी नौकरियों को लेकर उनकी नीतियां क्या हैं। कानून के तहत यह भी बताया जाना चाहिए कि अस्थायी प्रकृति की नौकरियों का प्रतिशत स्थायी किस्म की नौकरियों की तुलना में कितना है। 

प्रोफेसर विवेक कुमार का कहना है कि आमतौर पर अस्थायी नौकरियों में आरक्षण नहीं होता है और अब सरकारी महकमों में ज़्यादातर काम इसी तरह से लिए जाते हैं। अगर यह सही है तो इसकी भी गिनती होनी चाहिए उन अस्थायी नौकरियों में अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग के कितनों लोगों को जगह मिली है।

कई विभाग अपने काम को आउटसोर्स कराने लगे हैं। इससे सरकारी क्षेत्र में नौकरियां कम पैदा हो रही हैं। सवाल आरक्षण के रहने का तो है ही, यह भी तो पता चले कि सरकार के पास नौकरियां हैं भी या चली गईं। उनकी प्रकृति बदलकर आरक्षण को समाप्त कर दिया गया।

प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि आरक्षण को कोई हाथ नहीं लगा सकता। आरक्षण अधिकार है लेकिन इस बहस की शुरूआत विपक्ष ने शुरू की या आरएसएस ने? आरएसएस ने आरक्षण को लेकर कई तरह के बयान दिए। जिनमें समीक्षा से लेकर आरक्षण तब तक रहने की बात है जब तक समाज से भेदभाव नहीं मिट जाता। बीजेपी को समर्थन करने वाला नौजवानों का एक बड़ा तबका आरक्षण विरोधी है। इधर-उधर की बातों से उसके भीतर उम्मीद जगाए रखने का प्रयास होता रहता है कि आरक्षण को लेकर कुछ हो रहा है या चर्चा की शुरूआत हो रही है। उम्मीद है अब ऐसे लोगों को बीजेपी और संघ की तरफ से जवाब मिल गया होगा कि आरक्षण कोई नहीं हटा सकता। 

जो लोग आरक्षण समर्थक हैं उन्हें पता करना चाहिए कि राज्य से लेकर केंद्र के स्तर पर नौकरियों और आरक्षण की क्या हालत है। जो आरक्षण विरोधी हैं वे भी पता करें कि नौकरियां निकल रही हैं या नहीं। नौकरियों को आरक्षण नहीं खा जाता है। सरकार नौकरियां खा जाती हैं। जब नौकरियां नहीं होंगी तो इसका लाभ न तो आरक्षण समर्थकों को मिलेगा न ही विरोधियों को।  

प्रधानमंत्री ने आरक्षण को लेकर अपनी तरफ से अंतिम बात कह दी है। उम्मीद है उनकी पार्टी और संघ के भीतर की शाखाओं ने साफ साफ सुन लिया है। अब चूंकि वे संघ का नाम लेकर खारिज नहीं कर सकते थे तो विपक्ष का नाम ले लिया। राजनीति में इतना चलता है। विपक्ष ने तो अपनी प्रतिक्रिया दे दी होगी लेकिन आरएसएस ने चुप रह कर सुना या सुनने के बाद चुप रह कर अपनी प्रतिक्रिया दे दी है। यह उन लोगों की बड़ी जीत है जिन्हें लग रहा था कि आरक्षण के हक के लिए सड़क पर उतरने की ज़रूरत पड़ सकती है। मामूली बहस में ही वो ये लड़ाई फिर से जीत गए। इससे ज्यादा तो आरक्षण विरोधियों ने ट्वीटर और फेसबुक पर अपना पसीना बहा दिया। 

आपने केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का आरक्षण पर एक बयान सुना होगा। यह बयान सिर्फ आरक्षण के लिए महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इसे दलित आदिवासी वर्ग की बेचैनियों के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। पासवान अभी तक मोदी सरकार के भीतर चुप ही रहे हैं। रोहित वेमुला की खुदकुशी की घटना के बाद उनकी पार्टी ने सक्रियता दिखाई थी मगर पासवान और उनकी पार्टी केंद्र सरकार के साथ ही खड़ी नज़र आई। पासवान ने कहा कि आदिवासियों की ज़मीन छीनी जा रही है। उन्हें विस्थापित कर उनकी ज़मीन से सोना निकाला जा रहा है। उन्हें नौकरियां नहीं मिलेंगी तो वे नक्सलवादी बनेंगे। इन दिनों पासवान की सरकार के पाले के समर्थकों की तरफ से नक्सलवादियों को देशद्रोही बताने और देशद्रोही को नक्सलवादी बताने का चलन हो गया है। उस पाले में पासवान पहले नेता है जिन्होंने पहली बार हिम्मत कर ये बताने का काम किया है कि नक्सलवाद कैसे पैदा होता है। सरकार की नीतियों से पैदा हो रहा है। क्या पासवान यह भी कह रहे हैं कि उनकी सरकार ने जिन नीतियों के तहत आदिवासी इलाकों में खनन के लाइसेंस बांटे हैं उनसे भी यह प्रक्रिया और तेज़ हुई है। लेकिन उनका यह बयान उन तमाम सरकारों की नीतियों पर एक टिप्पणी तो है ही।

दरअसल प्राइवेट कंपनी में आरक्षण की बात भी नई नहीं है लेकिन इस सरकार में ये सवाल उठाने का साहस पासवान ने ही किया है खासकर तब जब इस सरकार के सहयोगी या मातृ संगठनों के लोग आरक्षण की समीक्षा के बहाने उस तबके को सपना दिखा रहे थे जो मानता है कि भाजपा आरक्षण विरोधी है। बीजेपी के दलित सांसद भी आमतौर पर संघ के बयान के बाद चुप ही रहे। क्या प्रधानमंत्री या उनकी सरकार के बाकी मंत्री पासवान की बात पर कुछ बोलेंगे। इसलिए पासवान इस बहस को फिर से आगे ले जा रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री यथास्थिति पर टिके रहना चाहते हैं। नक्सलवाद का समाधान आरक्षण हो सकता है पासवान ने एक दिलचस्प बात कह दी है। अगर प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि आरक्षण अधिकार है तो क्या इस अधिकार का विस्तार निजी क्षेत्र की कंपनियों तक होगा? 

क्या यह कोई नई खींचतान की स्थिति पैदा कर सकती है? क्या बीजेपी के दलित सांसद और विधायक पासवान के इस प्रस्ताव का समर्थन करेंगे या पार्टी लाइन पर ही चलेंगे। यह बात मायावती भी कहती हैं मगर चुप रह जाती हैं। मीरा कुमार ने भी काफी प्रयास किया था बल्कि ठोस प्रयास मीरा कुमार ने ही केंद्रीय मंत्री रहते किया था।

प्राइवेट कंपनियों में आरक्षण की वकालत और सरकारी नीतियों की वजह से आदिवासियों का नक्सलवाद की तरफ जाने का बयान पासवान को नए सिरे से कोई बड़ा दलित नेता तो अब नहीं बना सकेगा लेकिन उन्होंने जोखिम तो लिया है। हो सकता है कि इसके बाद वे मोदी सरकार के भीतर किनारे कर दिए जाएं मगर पासवान ने अपनी जमापूंजी के आधार पर एक दांव तो लगा दिया है। अगर उन्होंने अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए भी संकेत दिया है तो भी सरकार को समझना चाहिए कि आरक्षण का मुद्दा उसके भीतर नई चुनौती खड़ी करने वाला है। इस मसले पर अभी और टकराव होना है। यह टकराव बीजेपी ही नहीं बाकी दलों का भी इम्तहान लेगा।

(लेखक एनडीटीवी में सीिनयर एक्जीक्यूिटव एिडटर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

 

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