पीएम के आश्वासन के बावजूद मुसलमान परिवार NRC के डर से खोज रहे पुरखों के मृत्यु प्रमाण पत्र
रणविजय सिंह/मोहम्मद फहद
लखनऊ। ''मेरी वालिदा (मां) का इंतक़ाल 38 साल पहले हुआ था। अब 38 साल बाद मैं उनके कब्रिस्तान के कागजात बनवाने के लिए दौड़ रहा हूं। कागजात तैयार रखें तो बेहतर होगा, वरना यह सरकार कब NRC लगाकर हमें देश से बाहर भेज दे, कह नहीं सकते!'' इतना कहते हुए 52 साल के मोहम्मद मुजीब की नजरें मायूसी से भर जाती हैं।
यह मायूसी सिर्फ मोहम्मद मुजीब की आंखों तक सीमित नहीं है। इस मायूसी ने एक बड़े तबके के दिल में घर कर लिया है। लखनऊ के 'अंजूमन इस्लाहुल मुस्लिमीन' में मोहम्मद मुजीब जैसे कई लोग मिल जाते हैं जो अपने पुरखों के कब्रिस्तान में दफ्न होने से जुड़े कागजात बनवा रहे हैं। इन सभी लोगों के मन में CAA और NRC को लेकर एक डर बैठा हुआ है। यह डर कि CAA के बाद NRC लागू होगा और सरकार पुरखों से जुड़े कागजात मांगेगी, अगर ये वो कागजात नहीं दे पाए तो इन्हें डिटेंशन सेंटर भेज दिया जाएगा।
अंजूमन इस्लाहुल मुस्लिमीन के जॉइंट सेक्रेट्री थर्ड इंतखाब जिलानी बताते हैं, ''अंजूमन इस्लाहुल मुस्लिमीन लखनऊ के पांच कब्रिस्तानों से जुड़े कागजातों की देखरेख करता है। हमारे पास 100 साल पुराने तक के कागजात हैं। ऐसे में वक्त-वक्त पर लोग अपने पुरखों से जुड़े कागजात बनवाने आते रहते हैं। लेकिन जब से CAA और NRC की चर्चा शुरू हुई है, लोग बड़ी संख्या में कागजात बनवाने आ रहे हैं। यह संख्या आम दिनों के मुकाबले पांच गुना अधिक है। इस बात का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि काम के बोझ की वजह से हमारे दो कर्मचारी काम छोड़कर ही चले गए।''
इंतखाब जिलानी जिस काम के बोझ की बात करते हैं उसकी गवाही खुद आंकड़े भी दे रहे हैं। अक्टूबर 2019 की शुरुआत होते-होते CAA और NRC की चर्चा होने लगी थी। ऐसे में अक्टूबर के महीने में करीब 198 कब्रिस्तान के कागजात बने, फिर नवंबर में 139 कागजात बनें, दिसंबर में 147 कागजात बने और जनवरी की 13 तारीख तक कुल 77 कागजात बने हैं। जिलानी बताते हैं, ''CAA-NRC की चर्चाओं से पहले यह आंकड़ा महीने भर में 10 से 30 तक रहता था, लेकिन चर्चाओं ने लोगों को डरा दिया और अब लोग अपने कागजात दुरुस्त कराने में लगे हैं। एक बात और है कि पहले लोग कब्रिस्तान के एक या दो साल पुराने कागजात ही निकलवाने आते थे, लेकिन अब जो भीड़ आ रही है वो पुराने-पुराने कागजात निकलवा रही है।''
कब्रिस्तान के कागजात निकलवाने आए लोगों से बात करते हुए एक बात तो साफ महसूस होती है कि इन लोगों के मन में डर बैठ चुका है। हालांकि सरकार की ओर से इसी डर के मद्देनजर पीएम नरेंद्र मोदी ने एक सभा में साफ-साफ कहा था कि एनआरसी पर कोई चर्चा ही नहीं हुई है। 22 दिसंबर 2019 को दिल्ली में आयोजित बीजेपी की आभार रैली में पीएम मोदी ने आश्वासन दिया, ''मेरी सरकार आने के बाद साल 2014 से ही एनआरसी शब्द पर कोई चर्चा नहीं हुई। कोई बात नहीं हुई है। सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के कहने पर यह असम के लिए करना पड़ा। एनआरसी को लेकर देश में झूठ फैलाया जा रहा है।''
जहां एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ-साफ आश्वासन दिया कि एनआरसी पर कोई चर्चा नहीं हुई है। वहीं, उनकी ही सरकार के गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा और राज्यसभा में यह स्पष्ट किया था कि देश में एनआरसी लागू होकर रहेगा। 09 दिसंबर, 2019 को संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था, ''ओवैसी साहब कह रहे हैं कि एनआरसी का बैकग्राउंड बना रहे हैं। एनआरसी पर कोई बैकग्राउंड बनाने की जरूरत नहीं है। हम इस पर बिल्कुल साफ हैं कि देश में एनआरसी होकर रहेगी। कोई बैकग्राउंड बनाने की जरूरत नहीं है। हमारा घोषणापत्र ही बैकग्राउंड है।''
अमित शाह संसद में लोकसभा चुनाव में आए बीजेपी की घोषणापत्र का जिक्र कर रहे थे। बीजेपी के घोषणापत्र के पेज नंबर 13 पर एनआरसी का जिक्र है। इसमें लिखा है कि ''घुसपैठ से कुछ क्षेत्रों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान में भारी परिवर्तन हुआ है और स्थानीय लोगों की आजीविका तथा रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ऐसे क्षेत्रों में प्राथमिकता पर एनआरसी का कार्य किया जाएगा। देश में चरणबद्ध तरीके से चिन्हित करके इसे लोगू करेंगे।''
इन्हीं सब चर्चाओं और विरोध प्रदर्शनों का जमीन पर असर यह हुआ कि लोग डरे हुए हैं और अपने कागजात दुरुस्त करने में जुट गए हैं, भले ही उन्हें इसकी मोटी रकम क्यों न चुकानी पड़ रही हो। लखनऊ स्थित अंजूमन इस्लाहुल मुस्लिमीन की ओर से कब्रिस्तान के कागज निकालने की फीस 100 रुपए प्रति साल है। यानी किसी को 10 साल पुराने कागजात निकलवाने हैं तो उसे एक हजार रुपए जमा करने होंगे। हालांकि कागजात निकलवाने वाले ज्यादातर गरीब तबके से जुड़े लोग हैं, ऐसे में उनकी गाढ़ी कमाई इस चीज में जा रही हैं।
मोहम्मद मुजीब की वालिदा की मौत 38 साल पहले 1982 में हुई थी। ऐसे में उन्हें अपनी वालिदा के कब्रिस्तान के कागजात के लिए 3800 रुपए जमा करने पड़े हैं। मोहम्मद मुजीब 12 हजार रुपए की प्राइवेट नौकरी करते हैं। छह लोगों के परिवार का खर्च अकेले मोहम्मद मुजीब की कमाई से ही चलता है। मुजीब बताते हैं, ''मैं पूरे साल बचत करता तो भी 3800 रुपए नहीं बचा पता। इसलिए मैंने अपने मालिक से उधार लेकर यहां पैसे जमा किए हैं। यह पैसा धीमे धीमे मेरी तनख्वाह से कटता रहेगा।''
मोहम्मद मुजीब की तरह ही पुराने लखनऊ के रहने वाले 45 साल के असलम ने भी अपने वालिद (पिता) अब्दूल हमीद के कब्रिस्तान के कागजात निकलवाए हैं। असलम के वालिद की मौत 31 साल पहले हुई थी तो उन्होंने साल के हिसाब से 3100 रुपए जमा कराके यह कागजात हासिल किए। कबाड़ का काम करने वाले असलम बताते हैं, ''मेरी एक दिन की कमाई 250 से 300 के बीच होती है, लेकिन यह कागजात जरूरी हैं तो जैसे तैसे पैसों का जुगाड़ करके इसे हासिल किया है। सरकार कल कुछ मांगे तो हमारे पास होना चाहिए, वरना कौन जाने क्या होगा।''
एक ओर जहां लोग डरे हुए हैं और अपने कागजात दुरुस्त करने में जुटे हैं, वहीं कई लोग ऐसे भी हैं जो अभी तक कागजात निकलवाने नहीं जा पाए, लेकिन चर्चाओं से दो चार हुए हैं और कागजात निकलवाने का मन बना रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं मोहम्मद इब्राहिम जो लखनऊ के सराय आगा मीर के रहने वाले। इब्राहिम बताते हैं, ''मैं काम की व्यस्तता की वजह से अब तक जा नहीं पाया हूं। मोहल्ले में ऐसी चर्चा है कि लोग कागजात बनवा रहे हैं। मैं भी जल्द ही जाऊंगा।''
इतना कहने के बाद इब्राहिम कुछ सोचकर एक सवाल करते हैं, ''वैसे इसकी जरूरत ही क्या थी। हम यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए। हमारा खानदान यहीं पला बढ़ा। अब हमसे कागजात मांगने की तैयारी की जा रही है। यह तो गलत है न!''