चारा संकट: "हम अपने जानवरों को कसाई को तो नहीं दे सकते, इसलिए उन्हें धीरे-धीरे भूखे मरने देते हैं"

उत्तर भारत के कई राज्यों में एक साल के अंदर कई बार चारे की कीमतों में वृद्धि हुई, जिसके पीछे कई कारण हैं। गर्मी की वजह से गेहूं उत्पादन पर असर, पानी की कमी, सरसों की फसल की तरफ बढ़ता किसानों का रुझान और दूसरे प्रदेशों से आने वाले चारे पर लगी रोक ने पशुपालकों को अपने पशुओं को कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर कर दिया है। चारा संकट से प्रभावित देश के दूसरे सबसे अधिक पशु आबादी वाले राज्य राजस्थान से ग्राउंड रिपोर्ट ..

Update: 2022-06-17 07:14 GMT

धानक्या गाँव (जयपुर), राजस्थान। महेश यादव का परिवार पीढ़ियों से पशुपालन पर निर्भर रहा है, लेकिन इस बार 55 वर्षीय महेश यादव अपने पशुओं के लिए चारे का खर्च न उठा पाने के कारण परेशान हैं।

"मेरे पास कुछ महीने पहले तक 9 भैंस, 19 गाय समेत 31 पशु थे, अब सिर्फ 14 बचे हैं। चारे की बढ़ती कीमतों के कारण मुझे अपने सारे पशु बेचने पड़े, "जयपुर के धानक्या गाँव के रहने वाले महेश यादव बताते हैं।

 "पहले हर महीने 30-35 हजार रुपये बचते थे लेकिन अब चारे की बढ़ती कीमत के कारण हर महीने इतना ही नुकसान हो रहा है। ऐसे में लोग पशुपालन से अपना पेट कैसे पालेंगे" ,इतना कहते ही महेश यादव गंभीर हो जाते हैं।

2019 में जारी 20वीं पशुधन गणना के अनुसार, राजस्थान में पशुधन की आबादी 5.68 करोड़ है। पशुओं की संख्या के मामले में राजस्थान देश में दूसरे स्थान पर है। इसमें आधी संख्या गाय और भैंसों की है, इनमें 1.39 करोड़ गायें और 1.37 करोड़ भैंस हैं।

आमदनी न होने के कारण पशुपालक अपने पशुओं को बेच रहे हैं। फोटो: सोमू आनंद

चारा ही नहीं पशुओं लिए पानी की कमी भी पशुपालकों के लिए एक बड़ी समस्या है। धानक्या गाँव के ही 30 वर्षीय मुकेश की भी परेशानी महेश से कुछ कम नहीं, मुकेश गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "हमारे गाँव में पानी की समस्या पहले से थी, हम पशुओं के लिए पानी का टैंकर मंगवाते हैं। रोज 1 टैंकर पानी लगता है। 500 रुपये प्रतिदिन तो सिर्फ पानी का खर्च है और अब चारे की बढ़ती कीमत ने हमारे खर्च को दोगुना कर दिया है। आमदनी अब भी वही है।"

आमदनी न होने के कारण पशुपालक अपने पशुओं को बेच रहे हैं। मुकेश आगे कहते हैं, "हमें गर्भवती भैंसों को बेचना पड़ रहा है। क्योंकि उनसे दूध नहीं मिलता और चारे के इस संकट में हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं कि हम उनके लिए चारे का इंतजाम कर पाएं। पहले हम इन्हें पालते थे लेकिन अब बेच रहे हैं। हम ऐसा करना नहीं चाहते लेकिन मजबूर हैं।"

मुकेश को पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने पिताजी का डेयरी वाला काम संभाल लिया। परेशान मुकेश कहते हैं, "सोचा था कि इससे घर चल जाएगा लेकिन यहां भी नुकसान ही हो रहा। यही हाल रहा तो हमें कोई और काम देखना होगा।"

यह स्थिति सिर्फ महेश और मुकेश की नहीं है। बल्कि राजस्थान समेत देश विभिन्न हिस्सों के पशुपालकों की है। दरअसल, इन दिनों पशु चारे की कीमतों में बहुत ज्यादा वृद्धि हुई है। जो चारा पहले 500 से 700 रुपये प्रति क्विंटल मिलता था, वह अब 1300 से 1800 रुपये प्रति क्विंटल तक मिल रहा है। चारे की बढ़ती कीमतों ने पशुपालकों के सामने एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है।

पशुओं की संख्या के मामले में राजस्थान देश में दूसरे स्थान पर है। राजस्थान की आबादी का करीब 60% हिस्सा कृषि और पशुपालन पर आश्रित है। यह पूरी आबादी चारे के संकट से जूझ रही है।

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क्यों महंगा हुआ चारा

चारे के अचानक महंगे होने की कई कारण हैं। गेहूं का कम उत्पादन उसमें एक बड़ी वजह है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के मुताबिक देश में करीब 335-340 लाख हेक्टेयर में गेहूं की फसल होती है। इस वर्ष रबी फसल के समय 334 लाख हेक्टेयर में गेहूं की खेती हुई। सरकार को फरवरी में इससे 11.13 करोड़ टन गेहूं के उत्पादन की उम्मीद थी लेकिन मई में तीसरे अग्रिम अनुमान में कृषि मंत्रालय ने इसे घटाकर 10.6 करोड़ टन कर दिया। कृषि मंत्रालय द्वारा फरवरी और मई में जारी किए गए अग्रिम अनुमान में गेंहू के उत्पादन में 4.4% की कमी दर्ज की गई।

विशेषज्ञ मानते हैं कि मार्च में महीने में पड़ी गर्मी ने गेहूं के उत्पादन को प्रभावित किया। मौसम विभाग के मुताबिक इस साल मार्च की गर्मी ने 122 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया। इसी रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की वजह से गेंहू की पैदावार कम हुई।

डब्ल्यूआरआई इंडिया के क्लाइमेट प्रोग्राम में बतौर रिसर्चर काम कर रहे मणिभूषण झा कहते हैं, "यह अचानक आयी समस्या नहीं है। आप अगर बीते कुछ सालों में हर साल गर्मी पिछले कुछ दशकों या सालों के रिकॉर्ड तोड़ देती है। जाहिर तौर पर कार्बन उत्सर्जन के कारण उत्पन्न हुई वैश्विक समस्या है। कृषि क्षेत्र पर इसका सबसे बुरा असर पड़ा है। गेहूं, ज्वार के साथ-साथ आम और लीची के उत्पादन पर भी इसका असर पड़ा है।

गेहूं की जगह सरसों के उत्पादन के कारण कम हुआ चारा

कई किसान गेहूं के फसल पर सरसों की फसल को तरजीह देने को भी एक कारण मानते हैं। हनुमानगढ़ के 35 वर्षीय किशनलाल बताते हैं, "पिछले साल सरसों की अच्छी कीमत मिली। इसलिए हमने भी इस साल सरसों की फसल लगाई थी। इसमें पानी भी कम लगता है और दाम भी अच्छे मिल जाते हैं।"

कृषि महाविद्यालय भीलवाड़ा के डीन डॉ किशन लाल जीनगर कहते हैं, "पिछले साल जुलाई में बारिश नहीं हुई, इससे स्वाभाविक तौर पर किसानों ने सरसों और चने की फसल ज्यादा लगाई। क्योंकि इसमें 1 से 2 बार ही पानी लगता है। जौ की फसल को कम से कम 4 बार पानी की जरूरत होती है, गेहूं को 5-6 बार पानी की जरूरत होती है। लेकिन जब पानी है ही नहीं तो किसान क्या करेंगे? इसलिए गेहूं का रकबा कम हुआ। इससे दाना और भूसा दोनों कम हुआ और यह संकट हमारे सामने है।"

राजस्थान के कृषि विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल राजस्थान में 33 लाख 87 हजार हेक्टेयर में सरसों की फसल लगाई गई। यह कृषि विभाग के 28 लाख हेक्टेयर के लक्ष्य से भी कहीं ज्यादा है। राजस्थान में बीते 5 साल में औसतन 25 लाख 39 हजार हेक्टेयर में सरसों की खेती होती थी।

चारा हमें पहले 6-7 रुपए प्रति किलो मिल जाता था, वह अब 14 से लेकर 18 रुपये तक मिल रहा। उसमें भी धूल निकल आती है। वह हटाएं तो चारा 20-22 रुपये प्रति किलो पर रहा। इसमें क्या बचेगा?

वहीं प्रदेश में गेहूं की फसल का रकबा कम हुआ है। राजस्थान में रबी की फसल के दौरान 27 लाख हेक्टेयर में गेहूं की फसल बोई गई। जबकि सरकारी लक्ष्य 30 लाख हेक्टेयर का था। बीते 5 सालों में औसतन 32 लाख हेक्टेयर में गेहूं की फसल लगाई जाती थी।

यही नहीं चारा संकट के पीछे एक और भी कारण है। कई किसान ईट-भट्टों के द्वारा चारे को काम में लाने को भी इस संकट की एक वजह बताते हैं।

श्रीगंगानगर के 45 वर्षीय किसान लालचंद शर्मा बताते हैं, "हरियाणा और पंजाब के कई इलाकों में ईंट पकाने के लिए चारे को उपयोग में लाया जाता है। जहां लकड़ियां कम मिलती हैं या सूखी लकड़ियों की कमी होती है, वहां भट्टा मालिक चारे का उपयोग करते हैं। इससे पशुपालकों को चारे की कमी और बढ़ती कीमतों का सामना करना पड़ता है।"

इन संकटों के कारण मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब ने दूसरे राज्यों में चारा भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इससे यह समस्या और बढ़ गयी है।

लागत और मेहनत के मुकाबले नहीं मिल रहा फायदा

धानक्या गाँव की 55 वर्षीय रामप्यारी देवी सुबह साढ़े 3 बजे जगती हैं और अपने पशुओं की देखभाल में लग जाती हैं। वो कहती हैं, "20 लीटर दूध देने वाली गाय को 10 किलो चारा देना पड़ता है। हमारे बोरिंग में पानी नहीं है, पानी भी खरीदना पड़ता है। इसमें एक गाय पर दिन का खर्च करीब 400 से 500 रुपये बैठता है। गाँव में गाय का दूध अधिकतम 30 रुपये प्रति लीटर बिकता है। कभी अगर कोई गाय बीमार पड़ गयी या कुछ हो गया तो ये पैसे भी उसी में चले जाते हैं।"

धानक्या गाँव की 55 वर्षीय रामप्यारी देवी 

वे आगे कहती हैं, "चारा हमें पहले 6-7 रुपए प्रति किलो मिल जाता था, वह अब 14 से लेकर 18 रुपये तक मिल रहा। उसमें भी धूल निकल आती है। वह हटाएं तो चारा 20-22 रुपये प्रति किलो पर रहा। इसमें क्या बचेगा?

औने-पौने दामों में अपने पशुओं को बेचने, गौशाला में छोड़ने पर मजबूर हैं किसान

चारे की कमी ने पशुपालकों को कम दाम पर अपने पशु बेचने को मजबूर कर दिया है। जयपुर के मुंडिया रामसर की 76 वर्षीय मनभर देवी बताती हैं, "उन्होंने अपनी दो भैंसे 24 हजार में बेच दी। चारे का संकट नहीं होता तो ये भैंसे एक लाख रुपये से कम में नहीं बिकती। लेकिन इस समस्या की वजह से कोई भी पशु पालने को तैयार नहीं है। मजबूरी में हमें इस कीमत पर अपनी भैंसे बेचनी पड़ रही हैं।"

कई पशुपालक अपने पशुओं को गौशाला भेज रहे हैं, जयपुर के सांझरिया स्थित गौशाला के संचालक बाबूलाल चौधरी गाँव कनेक्शन से बताते हैं, "बीते छह महीने में हमारे पास 200 गायें आ गयी हैं। पहले हमारे पास 800 गायें थी, अब हजार हो गयी हैं। इससे संचालन में भी परेशानी हो रही है। पहले इन गायों पर एक महीने में 7-8 लाख रुपये खर्च होते थे। अब 17-18 लाख रुपये खर्च होने लगे हैं।"


बीते 20 वर्षों से निमेड़ा में श्याम गौशाला का संचालन कर रहे वर्मा की भी परेशानी बाबूलाल से कम नहीं, वो कहते हैं, "मैंने अपने जीवनकाल में चारे का ऐसा संकट नहीं देखा। इस समस्या की वजह से कई लोग अपने पशु लेकर हमारी गौशाला में आने लगे। शुरू में हमने 20-25 गायें ली लेकिन बीते एक महीने से हमने गाय लेनी बंद कर दी। हमारी भी दिक्कतें हैं, हम और गाय लेंगे तो उनके लिए चारे की व्यवस्था कहां से करेंगे? सरकारी स्तर पर हो रही मदद नाकाफी है।"

लंबे समय से जयपुर और आसपास के इलाकों में पशुओं का व्यापार कर रहे श्योजीराम भोपा बताते हैं कि पहले हमें पूरे दिन घूमने पर बहुत मुश्किल से एकाध पशु मिलते थे लेकिन अब हर दिन 10-12 किसानों के फोन आते हैं, जो अपने पशु बेचना चाहते हैं। हमें कहीं घूमना भी नहीं पड़ता और रोज 10-12 पशु मिल जाते हैं।

चारे की कमी ने एक और परेशानी खड़ी कर दी है, मजबूरी में पशुपालक ऐसा कदम उठा रहे हैं, जो पहले सोच भी नहीं सकते थे। नाम न छापने की शर्त पर कई पशुपालकों ने बताया कि नवजात पशुओं को गौशाला या बूचड़खाने में नहीं दे सकते तो उन्हें न पालने का एक दूसरा तरीका अपनाया है। हम 2 दिन तक उन्हें कम, कम खिलाते हैं और तीसरे दिन बिल्कुल नहीं खिलाते। इससे उसकी मौत हो जाती है। हम जानते हैं कि यह गलत है लेकिन हमारे पास कोई और उपाय नहीं है।"

दूसरे राज्यों से बात कर प्रतिबंध हटाने की कोशिश कर रही है सरकार

पशुपालन विभाग के संयुक्त निदेशक महेश यादव ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हमने अभी हरियाणा, मध्यप्रदेश, पंजाब में अपनी टीम भेजी थी। उन्होंने वहां चारे की उपलब्धता की जानकारी ली है, हम यह प्रयास कर रहे हैं कि प्रतिबंध हटाये जाएं ताकि सभी को चारा उपलब्ध कराया जा सके। इसके लिए सक्षम अधिकारियों के स्तर पर बातचीत हो रही है।"

उन्होंने आगे कहा, "हमारी टीम ने यह सुझाव दिया कि सरकार अगर परिवहन पर सब्सिडी दे तो किसानों को अपेक्षाकृत सही मूल्य पर चारा मिल सकता है। साथ ही आपदा प्रबंधन विभाग ने चारे के स्टॉक को भी नियंत्रित किया है। अब कोई भी व्यापारी 100 टन से ज्यादा चारा स्टॉक नहीं कर सकता।"

"साथ ही पंचायतों में पंचायत समिति, एनजीओ या गौशाला द्वारा चारा डिपो खुलवाने की व्यवस्था की है। इन डिपो के द्वारा जो चारा दूसरे राज्यों से लाया जाता है, उस पर सरकार परिवहन सब्सिडी देती है। इससे भी पशुपालकों को थोड़ी राहत मिल सकती है, "संयुक्त निदेशक ने आगे कहा।

राजस्थान के कृषि आयुक्त कानाराम बताते हैं कि चारे की व्यवस्था और प्रबंधन का काम तो पशुपालन विभाग का है। लेकिन हम यह प्रयास कर रहे हैं कि आगे बाजरे की फसल का रकबा बढ़ाया जा सके। इससे यह समस्या थोड़ी कम हो सकती है।

बदलने होंगे खेती के तौर-तरीके

कृषि महाविद्यालय भीलवाड़ा के डीन डॉ किशन लाल जीनगर असामान्य बारिश को इस समस्या की प्रमुख वजह बताते हैं। वो कहते हैं, "बीते साल जुलाई और अगस्त में हुई आसमान बारिश के कारण खेतों की मेड़ पर लगाया जाने वाला चारा बहुत कम हुआ। किसानों ने जरूरत के अनुसार जुलाई, अगस्त में ही चारा काट लिया। जबकि आमतौर पर वे इसे सितंबर में काटते हैं और फिर सुखाते हैं। इससे कई महीने का चारा मिल जाता है।"

उन्होंने आगे बताते हैं, "राजस्थान में ही कोटा, बूंदी और झालावाड़ के इलाके में सिंचित जमीन है। यहां के किसान पराली जलाते हैं और बाकी जगहों पर भूसे का संकट रहता है, इसका बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है।


चारे की खास किस्मों के बारे में वो कहते हैं, "कुछ खास किस्म की घास हैं, जो कम पानी में भी अच्छी उपज देती है। ज्वार की कई किस्में हैं, जो चार से पांच बार कटती हैं। अगर ऐसे फसलों को प्रोमोट किया जाए तो यह समस्या कम हो सकती है।"

क्लाइमेट प्रोग्राम में बतौर रिसर्चर काम कर रहे मणिभूषण झा कहते हैं, "तकनीक एवं जलवायु अनुकूल खेती (Climate Resilient Agriculture) जैसे पहल को बढ़ावा देकर इस समस्या को कम किया जा सकता है। अनुकूलित बीज का चयन, खाद की सही मात्रा, खेती में स्थानीयता को बढ़ावा देकर और कटाई के लिए कुशल तकनीक का प्रयोग कर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। लेकिन यह संकट तब तक बरकरार रहेगा जब तक यह वैश्विक स्तर पर समाधान नहीं होता है।

संकट को लेकर गंभीर नहीं है सरकार

श्रीगंगानगर के किसान और सामाजिक कार्यकर्ता हरविंदर सिंह बरार कहते हैं कि "एक ओर सरकार कहीं भी फसल खरीद-बिक्री की व्यवस्था बनाने की वकालत करती है और दूसरी ओर चारे के बिक्री पर प्रतिबंध लगाती है। ऐसे में "एक देश-एक बाज़ार कैसे बनेगा?"

राजस्थान में गोचर भूमि पर बड़े पैमाने पर अवैध कब्जे हैं। 17 लाख हेक्टेयर गोचर भूमि यूँ ही पड़ी हुई है। रखरखाव के अभाव में कई जगहों पर झाड़ियां उग आयी हैं। सरकार अगर चाहे तो काऊ सेस से मिली 2100 करोड़ राशि से भी चारे-पानी की व्यवस्था कर सकती है। अगर मनरेगा योजना से गोचर भूमि को विकसित कर सेमन और धामन घास उगाई जाये तो पशुपालको और बेसहारा पशुओ के लिए सालाना 8 महीने चारा उपलब्ध हो सकता है।

इससे जहां मनरेगा की उपयोगिता बढ़ेगी दूसरी तरफ आवारा पशुओ से होने वाली जन धन की हानि में भी कमी आएगी।

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