चने की खेती में बढ़िया उत्पादन पाने के लिए भूमि शोधन और बीजोपचार के बाद ही करें बुवाई

चने की बुवाई से पहले बीजोपचार व भूमि शोधन के बाद ही बुवाई करनी चाहिए और जिस खेत में विल्ट का प्रकोप अधिक होता हैं वहां गहरी जुताई के बाद देरी से बुवाई करनी चाहिए ..

Update: 2022-10-14 13:36 GMT

चना देश की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा भी कहा जाता है। इसका उत्पादन उत्तरी भारत मे बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है संरक्षित नमी वाले शुष्क क्षेत्रों में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।

चना एक शुष्क और ठंडी जलवायु की फसल है। इसे रबी मौसम में उगाया जाता है। इसकी खेती के लिए मध्यम वर्षा (60-90 सेमी. वार्षिक) और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त हैं। इसकी खेती के लिए 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है।

चने की खेती हल्की से भारी मिट्टी में की जाती है। लेकिन अधिक जल धारण और उचित जल निकास वाली मिट्टी सर्वोत्तम रहती है, लेकिन लवणीय और क्षारीय भूमि जहां जल निकास की समस्या है वो भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है इसके अच्छे विकास के लिए 5.5 से 7 पीएच वाली मिट्टी अच्छी होती है।

चने की उन्नत किस्में

चना मुख्यतः दो प्रकार का होता है देशी चना और काबुली चना

चने की देशी किस्में :-

1. जी. एन. जी. 2171 (मीरा) :- सिचिंत क्षेत्रो में समय पर बुबाई के लिये उपयुक्त किस्म है, दाना कत्थई रंग का होता है, इसकी फली में 2 या 2 से अधिक दाने पाये जाते हैं ये क़िस्म लगभग 150 दिन में पक जाती है। इसकी औसत उपज 24 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक आंकी गई है।

2. जी.एन. जी. 1958 (मरुधर) :- यह किस्म झुलसा और जड़गलन रोग के प्रति सहनशीलता रखती है बीज का रंग हल्का भूरा होता है, यह औसत 145 दिन में पक जाती है। इसकी औसत उपज 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक आंकी गई है।


3. जी.एन. जी. 1581 (गणगौर) :- यह क़िस्म झुलसा, जड़गलन, एस्कोकाईटा ब्लाइट आदि रोगों के प्रति औसत प्रतिरोधकता रखती है बीज का रंग हल्का पीले रंग का होता है, इसकी औसत उपज 24 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक आंकी गई है।

4. आर. वी. जी . 202 :- इस किस्म के पौधे की ऊंचाई दो फीट से भी कम रहती है, जिससे इस पाले का असर कम पड़ता है। इसमें प्रति हेक्टेयर 22 से 25 क्विंटल तक पैदावार मिलती है।

देशी चने की देरी से बोई जाने वाली किस्म:-

1. जी.एन. जी. 2144 (तीज) :- इस किस्म की बुवाई दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक कि जा सकती है। बीज मध्यम आकार के हल्के भूरे रंग का होता है। यह 130-135 दिन में पककर तैयार हो जाती है इसकी औसत उपज 23 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक आंकी गई है।

2. जी. एन. जी. 1488 (संगम) :- यह क़िस्म झुलसा, शुष्क जड़गलन, एस्कोकाईटा ब्लाईट, फली छेदक आदि के प्रति औसत प्रतिरोधकता पाई गई है बीज भूरे रंग होते है, जिनकी सतह चिकनी होती है, यह 130 से 135 दिन में पक जाती है और उत्पादन 18 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक मिल जाता है।

असिंचित क्षेत्र के लिए चने की देशी किस्म :-

1. आर. एस. जी. 888 :- इसका औसत उत्पादन 21 क्विंटल प्रति हैक्टेयर और यह 141 दिन में पक कर तैयार हो जाती है, यह किस्म जड़गलन व उखटा रोग के प्रति मध्यम रूप से प्रतिरोधक है।

काबुली चने की किस्में :-

1. जी.एन. जी. 1969 (त्रिवेणी) :- इसके दाने का रंग मटमेला सफेद क्रीम रंग का होता है झुलसा और जड़गलन आदि रोगों के प्रति मध्यम सहनशीलता रखती है, इसकी औसत पकाव अवधि 146 दिन है इसकी औसत पैदावार 22 क्विंटल तक पाई जाती है।

2. जी. एन. जी. 1499 (गौरी) :- इसके बीज का रंग मटमेला सफेद होता है 143 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत पैदावार 18 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक हो जाती है।

3. जी.एन. जी. 1292 :- यह किस्म लगभग 147 दिन में पक जाती है झुलसा, एस्कोकाईटा ब्लाइट, शुष्क जड़गलन आदि रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधी है औसत उत्पादन 23-25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक हो जाता है।\


भूमि उपचार :- किसान भाइयों चने में कई प्रकार के रोग और कीट लगते है उनके नियंत्रण के लिए भूमि उपचार जरूरी है।

1. दीमक व कटवर्म से बचाव के लिए क्युनालफॉस (1.5 प्रतिशत) चूर्ण 6 किलो प्रति बीघा आखिरी जुताई से पहले खेत मे मिलाएं।

2. दीमक नियंत्रण के लिए बिजाई से पूर्व प्रभावित क्षेत्र में 400 मिली क्लोरोपाइरिफॉस (20 EC) या 200 मिली इमिडाक्लोप्रीड (17.8 एसएल) की 5 लीटर पानी का घोल बनाकर 100 किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।

3. जड़ गलन और उखटा (उकसा) की समस्या से बचने के लिए बुवाई से पहले 5 किलो ग्राम ट्राइकोडर्मा हरजेनियम और स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस जैव उर्वरक की 5 किलोग्राम मात्रा को 100 किलो अद्रतायुक्त गोबर (FYM) के अच्छी तरह मिलाकर 10-15 दिन छाया में रख दें। इसको बुवाई से पूर्व खेत मे मिला दें, यदि स्यूडोमोनास उपलब्ध नही है तो ट्राइकोडर्मा की मात्रा को 10 किलोग्राम तक किया जा सकता है।

बीजोपचार :-

1. जड़गलन और उकटा की रोकथाम के लिये बुवाई पूर्व 10 किलो ट्राइकोडर्मा हरजेनियम या 1.5 ग्राम कार्बेन्डेजिम (50 WP) या 2.5 ग्राम कार्बेन्डेजिम (25 एस.डी.) प्रति किलो के हिसाब से उपचारित करें।

2. एजोटोबैक्टर और पीएसबी. कल्चर पाउडर के तीन पैकेट /600 ग्राम कल्चर से एक हैक्टेयर क्षेत्र के बीज को उपचारित कर बोने पर नत्रजन एवं फॉस्फोरस की बचत की जा सकती है। इसका परिणाम लाभकारी पाया गया है।

3. बारानी और सिंचित क्षेत्रों में बुवाई से पहले 4 मिली क्लोरोपाइरिफॉस (20 ई.सी. ) या 2 मिली इमिडाक्लोप्रीड (17.8 एसएल.) मात्रा को 50 मिली पानी मे घोल बनाकर 1 किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।

बुवाई का समय:- सिंचित चने की बुबाई 20 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक करें, लेकिन उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 5 नवम्बर तक है।

बीज दर और बुवाई की विधि:- चने के प्रमाणित बीज को 60 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोएं और जी.एन. जी. 469 (सम्राट) जैसी किस्मों का 75 किलो समय पर और 85 किलो प्रति हैक्टेयर देरी से बुवाई के लिए इस्तेमाल करें। काबुली चने की 100 किलो मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रयोग में लाएं।

चने की कतार से कतार की दूरी 30 सेमी. रखें, सिंचित क्षेत्र में बीज की गहराई 7 सेमी. उपयुक्त होती है, जिन क्षेत्रों में उकटा (विल्ट) प्रकोप है वहां बुवाई गहरी और देरी से करनी चाहिए।

उर्वरक :- चने के खेत मे 15 टन गोबर की खाद या 5 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करें। अच्छी पैदावार के लिए 20 किलो नत्रजन , 40 किलो फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से काम इस्तेमाल करें।

मृदा परीक्षण के आधार पर 0.5% प्रतिशत जिंक सल्फेट के विलियन के 2 पर्णीय छिड़काव फल विकास अवस्था पर करना चाहिए

खरपतवार नियंत्रण और निराई गुड़ाई :-

1. बारानी क्षेत्रों में बुवाई के 5-6 सप्ताह बाद तक निराई गुड़ाई करनी चाहिए।

2. खरपतवार नियंत्रण पेंडिमेथालिन (30 ई.सी.) खरपतवारनाशी के व्यपारिक उत्पाद की 2.4 किलो ग्राम मात्रा को 600 लीटर पानी प्रति हैक्टेयर की दर से बुबाई के बाद बीज के उगने से पहले और समान छिड़काव करें।

सिंचाई :- प्रथम सिंचाई बिजाई के 55-55 दिन बाद द्वितीय सिंचाई 100 दिन बाद लेकिन यदि एक ही सिंचाई करनी हो तो 50-60 दिन बाद करें।

(पिन्टू लाल मीना, सरमथुरा, धौलपुर, राजस्थान में सहायक कृषि अधिकारी हैं।)

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