Photo Story: नहाय खाय से लेकर अर्घ्य तक, बिहार और झारखंड में लोग कैसे मनाते हैं छठ पूजा

भारत में छठ पूजा के चार दिन के त्यौहार की धूम है। इस त्योहार में सूर्य देवता और छठी मैया की पूजा की जाती और कठोर उपवास रखा जाता है। छठ पूजा क्या है और इसे क्यों मनाया जाता है? मेघ पायने अभियान के संस्थापक एकलव्य प्रसाद छठ पूजा के उत्सव को कैमरे से कैद खूबसूरत तस्वीरों के जरिए बयां कर रहे हैं।

Update: 2021-11-10 06:05 GMT
छठ पूजा के दौरान सबसे अहम होता है नदी, तालाब आदि में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना। सभी फोटो एकलव्य प्रसाद

जैसे ही लोग दीवाली मनाकर निपटते हैं, बिहार और झारखंड राज्य अपने सबसे बड़े त्योहार छठ मनाने की तैयारी में लग जाता है। हिंदी में छठ का मतलब होता है छह। ये त्योहार हर साल दीपावली के छह दिन बाद मनाया जाता है।

चार दिन तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान सूर्य और छठी मैया की पूजा की जाएगी। छठ मैया देवी उषा हैं जिन्हें वैदिक काल से सूर्य की पत्नी माना जाता रहा है। यह त्योहार बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों और नेपाल में भी बड़े जोर-शोर से मनाया जाता है।

अन्य हिंदू त्योहारों की तुलना में छठ पूजा को काफी कठिन माना जाता है। इन दिनों कई अनुष्ठान किए जाते है। भक्त इकट्ठा होकर नदियों, तालाबों और जल निकायों में पवित्र डुबकी लगाते हैं। वे चार दिन तक सख्त उपवास भी रखते हैं।

मेरी नानीजी जिस तरह से त्योहार मनाती थीं, उन्हीं रीति-रिवाजों और प्रथाओं का पालन मेरी मां भी करती है। और अब, मैं भी वही करने की कोशिश कर रहा हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि मेरी नानीजी छठ का पालन करने में मुझसे कहीं अधिक सख्त थी। मेरी नजर में वह हमेशा एक मजबूत महिला बनी रहेंगी। मेरी मां ने काफी हद तक उनका अनुसरण किया है।

छठ पूजा पहला दिन: नहाय खाय

8 नवंबर को छठ पूजा का पहला दिन था। इस दिन हम सुबह जल्दी उठते हैं, सूर्य की पूजा करते हैं और अपने लिए अच्छा खाना बनाते हैं।

पहले दिन के दोपहर के भोजन को नहाय खाय कहते हैं। इसका अर्थ है 'नहाओ और खाओ'। अगले दिन से उपवास शुरु हो जाता है। उपवास से पहले का ये दूसरा आखिरी भोजन होता है। खाने में चावल, चना दाल में लौकी, आलू और सोआ भुजिया, मेथी के पकोड़े, पलक का साग, आलू मटर की सब्जी, धनिया की चटनी, बेसन में तली हुई लौकी (लौकी का बछका), नींबू के रस वाली तली हुई हरी मिर्च होती है।

छठ पूजा के पहले दिन का भोजन

छठ पूजा का दूसरा दिन: खरना

छठ के दूसरे दिन को खरना भी कहते हैं। इस दिन हम सुबह लगभग 3 या 4 बजे उठकर शरबत पीते हैं और फिर शुरु हो जाता है पूरे दिन का उपवास। इसके बाद पूरे दिन हम न तो कुछ खाते हैं और न ही पानी की एक बूंद हमारे मुंह में जाती है।

सूरज छिपने के समय, खीर और पूड़ी खाकर उपवास तोड़ा जाता है। खीर, एक पारंपरिक भारतीय मिठाई है, जिसे गुड़ और दूध के साथ उबले हुए चावल के साथ मिलाकर बनाया जाता है। घर में आने वाले सभी मेहमानों को भी खीर परोसी जाती है।

शाम को खीर-पूड़ी खाने के बाद से चौथे दिन तक उपवास रहता है। चौथे दिन सुबह सूरज उगने के बाद प्रसाद खाकर उपवास तोड़ते हैं। उसके बाद पानी पिया जाता है और फिर सब लोग खाना खाते हैं।


छठ पूजा तीसरे दिन: संध्या अर्घ्य

छठ पूजा के तीसरे दिन को संध्या अर्घ्य कहा जाता है। इस दिन किसी नदी या तालाब में डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है। भक्त पूरे दिन निर्जला (बिना पानी के) उपवास रखते हैं।

झारखंड के धनबाद में हमारे घर में एक छोटा सा तालाब है, जिसे खासतौर पर छठ पूजा के लिए ही तैयार किया गया है। हम इसे सिर्फ छठ पूजा के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। तालाब को साफ कर पानी से भरते हैं और फिर उसे फूलों व गुलाब की पंखुड़ियों से सजाया जाता है।

तीसरे दिन, ठेकुआ मिठाई खासतौर पर बनाई जाती है। यह बिहार की एक पारंपरिक मिठाई है जिसे गेहूं के आटे से तैयार किया जाता है।

छठ पूजा का प्रसाद ठेकुआ (Thekua)

छठ पूजा चौथा दिन, उषा अर्घ्य

छठ पूजा के चौथे दिन को उषा अर्घ्य या सुबह के प्रसाद के रूप में जाना जाता है। इस दिन, सभी लोग सूर्योदय से पहले नदी के किनारे या आस-पास के जल निकायों में उगते सूरज को प्रसाद चढ़ाने जाते हैं। अर्घ्य देने के बाद लोग घाट पर बैठकर पूजा-अर्चना करते हैं, फिर आसपास के लोगों में प्रसाद बांटा जाता है।

सूर्य को अर्घ्य।

छठ का समापन हवन के साथ होता है।

पर्यावरणविदों ने दावा किया है कि छठ का त्योहार पर्यावरण के सबसे अनुकूल धार्मिक त्योहारों में से एक है। जिसे 'प्रकृति संरक्षण के संदेश' फैलाने के रुप में जाने जाना चाहिए। इसके अलावा, यह यकीनन उन कुछ हिंदू त्योहारों में से एक है जो जाति व्यवस्था की बेड़ियो को तोड़ता है। छठ पूजा वैदिक काल से ही समानता, बंधुत्व, एकता और अखंडता के विचारों को साथ मनाई जाती रही है। व्यक्ति चाहे गरीब हो या अमीर सबके लिए एक समान प्रसाद और अन्य सामान तैयार किया जाता रहा है। सभी लोग बिना किसी जाति, रंग या अमीरी-गरीबी के भेदभाव के नदियों या तालाबों के किनारे जाकर, एक साथ पूजा-अर्चना करते हैं।


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