Photo Story: तस्वीरों में देखिए मुसहर समुदाय की जिंदगी

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के 28 गाँवों में से दो गाँव छतेरी और तथरा गाँवों में मुसहर समुदाय की बस्तियां हैं जहां यह सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर रहने वाला समुदाय के लोग रहते हैं।

Update: 2022-06-09 10:02 GMT

मुसहरों को महादलित का दर्जा दिया गया है, जो उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए योग्य बनाता है। लेकिन ये समुदाय को गरीबी और पिछड़ेपन से बाहर निकालने में विफल रहा है। सभी फोटो: प्रियांश त्रिपाठी 

मुसहर समुदाय, सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ समुदाय है, जो भारत की जाति व्यवस्था के निचले भाग में स्थित है। भोजपुरी में मुसहर का अर्थ होता है "चूहा खाने वाला"। ये समुदाय बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में रहता है। इसके पास जमीन नहीं है और वह सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंचने में असमर्थ है और ज्यादातर गरीबी में रहता है।

उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले के 28 गाँवों में मुसहर समुदाय की बस्तियां हैं। इनमें से दो छतेरी और तथरा गांव हैं। छतेरी गाँव में, 10 से 12 मुसहर परिवारों में से किसी के पास जमीन या मवेशी नहीं हैं।

तथरा गाँव में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कुछ लोगों को घर मिले हैं। इन मुसहर गाँवों में, पुरुष मजदूर के रूप में पलायन करते हैं और साल में लगभग छह से सात महीने अपने घरों से दूर रहते हैं।

इन मुसहर गाँवों में पुरुष मजदूर के रूप में पलायन करते हैं और बच्चों और महिलाओं को गांवों में छोड़कर अपने घरों से दूर रहते हैं।

मुसहरों को महादलित का दर्जा दिया गया है, जो उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए योग्य बनाता है। लेकिन ये समुदाय को गरीबी और पिछड़ेपन से बाहर निकालने में विफल रहा है। छतेरी गाँव में शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं, स्वच्छ पेयजल और रोजगार की कमी का मुख्य कारण जातिगत भेदभाव है।

उदाहरण के लिए, छतेरी के निवासियों ने शिकायत की कि उन्हें पीने के पानी के नल या हैंडपंप का उपयोग करने की अनुमति नहीं थी क्योंकि बड़ी जातियों के लोगों ने मुसहरों को उनके उपयोग पर आपत्ति जताई थी। इसलिए बाद में पीने के लिए एक स्थानीय पोखरा (छोटा तालाब) के पानी का इस्तेमाल करते थे और उनके बच्चे अक्सर बीमार पड़ जाते थे।

कोविड महामारी ने इस समुदाय को और बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। उनके बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है और उनके रोजी रोटी के स्रोत भी प्रभावित हुए हैं। महामारी के कारण, समुदाय के सदस्य अपने गांवों को लौट गए लेकिन नियमित काम ढूंढना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

जॉन स्टीनबेक के प्रसिद्ध उपन्यास, द ग्रेप्स ऑफ वर्थ के अंत में, महानगरों / शहरों में कठिन जीवन जीने वाले श्रमिक अपने गांवों में लौट आते हैं, क्योंकि उन्हें पता चलता है कि वे खेतों में काम करके ही अपना आत्म-सम्मान और जीवन प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन स्टीनबेक के कार्यकर्ताओं को न तो शहर में और न ही गांव में सदियों पुरानी जाति व्यवस्था का सामना करना पड़ा होगा। और सदियों बाद भी मुसहर समुदाय के लिए स्वाभिमान एक शब्द से ज्यादा कुछ नहीं है।

यह समुदाय कच्चे घरों में रहता है जो मिट्टी और गोबर से बने होते हैं।


विभिन्न सरकारी योजनाएं समुदाय को गरीबी और पिछड़ेपन से बाहर निकालने में विफल रही हैं।


मुसहर समुदाय, सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ समुदाय है, जो भारत की जाति व्यवस्था के निचले भाग में स्थित है।


कोविड महामारी ने इस समुदाय को और बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। उनके बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है


मुसहर परिवार का घर



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