मौन की शब्दावली से संवाद के कुछ शब्द

पेड़ जो स्वेच्छा से या अनिच्छा से एक विदेशी जमीन पर चले गए हैं, समुद्र के पार, अपने घर से कई हजारों मील दूर – निश्चित तौर पर अपने घर वापस आ चुके साथियों से इतर उनके पास एक अलग शब्दावली होगी, संभवतः यह उनके अलगाव, दुःख, खुशी, बेसहारापन, अकेलापन, दोस्ती, या गोद लेने से उपजी है।

Update: 2023-03-27 07:30 GMT

आज के समय में, पेड़ों के बारे में पीढ़ी दर पीढ़ी मिले ज्ञान को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। पेड़ों को देखने, पहचानने, मान्यता देने और उनकी सराहना करने की अधिक जरूरत है।

जो लोग जंगल, घास, पौधों, पत्तियों और पंखुड़ियों के बीच प्रकृति से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं, उनके लिए सुमना रॉय की लिखी किताब ‘हाउ आई बिकम ए ट्री’ को पढ़ना मजेदार होगा। मैं लेखक के विचारों के एक साथ उन पेड़ो के घर तक चला आया, जिसे उन्होंने 'साइलेंस ऑफ ट्री' कहा था। उसकी कुछ पंक्तियां अभी भी मेरे जहन में गूंज रही हैं, "मुझे यह फिर से कहना होगा कि एक पेड़ बनने की सभी इच्छाओं के बीच मेरे लिए सबसे जरूरी था शोर से बचना। इसमें दो बातें थीं, एक इंसानों का शोर, दूसरी थी पेड़ों के सक्रिय जीवन की खामोशी से जुड़ी शब्दावली।"

मुझे लगता है कि समय, परिस्थितियों और आसपास की घटनाओं के साथ पेड़ों की खामोशी की यह शब्दावली भी बदलती रहती है। इसमें देशी और 'विदेशी' पेड़ों द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अलग-अलग शब्द जुड़े हैं।

कभी-कभी, मुझे यह भी महसूस होता है - पेड़ जो स्वेच्छा से या अनिच्छा से एक विदेशी जमीन पर चले गए हैं, समुद्र के पार, अपने घर से कई हजारों मील दूर – निश्चित तौर पर अपने घर वापस आ चुके साथियों से इतर उनके पास एक अलग शब्दावली होगी, संभवतः यह उनके अलगाव, दुःख, खुशी, बेसहारापन, अकेलापन, दोस्ती, या गोद लेने से उपजी है।

एक पेड़ से बात करना, अब चाहे वह देशी हो या एक प्रवासी उपज- अलग समझ पैदा करता है। मैं पेड़ों की दास्तां, उनकी हिचकिचाहट, उनके विलाप, उनकी जरूरतों के जरिए सुनता हूं। जिन पर 'एक्सोटिक्स' का लेबल लगाया है, वे और भी अधिक बोलते हैं। दरअसल यह शब्द ही उन्हें दूसरे दर्जे के - शरणार्थी या प्रवासी होने की मुहर लगा देता है।

वे इन लेबलों को वर्षों तक सहन करते हैं, यहां तक कि सदियों तक, ये शब्द उन्हें पराया, अलग-थलग कर देते हैं, उनके साथ भेदभाव करते हैं - उस बिंदु तक, जब तक कि वे या तो खुद को अपने नए घर में नहीं अपना लेते, या उस जगह की कहानियों, पौराणिक कथाओं, धर्मों, वार्तालापों या जीवन के रंग में एक छदम रूप नहीं धर लेते।

 गुलमोहर के बारे में मशहूर कवि व शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा है 'जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए'

इस तरह के पेड़ का सबसे अच्छा उदाहरण गुलमोहर (डेलोनिक्स रेजिया) है, जो मेडागास्कर का मूल निवासी है और सालों पहले भारत आया था। दुनिया भर में कई जगहों पर पाए जाने वाले पेड़ ने शानदार ढंग से इस घर को अपना लिया है।

यह यहां की मिट्टी में इतनी अच्छी तरह से रच- बस गया है कि भारतीय इसे एक देशी पेड़ मानते हैं, हमारे समाज में इसका आंतरिक आत्मसात दुष्यंत कुमार के शेर में नजर आता है - जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए । समय के साथ, गुलमोहर ने स्वीकृति प्राप्त कर ली है और अपने नए घर के साथ खुद को एक कर लिया है।

पेड़ों को अलग-अलग लोग, अलग-अलग चश्मे से देखते हैं। ज्यादातर मामलों में, इन गैर-देशी पेड़ों की समाज में स्वीकृति उन्हें दिए गए नए स्थानीय नामों से उत्प्रेरित होती है। ऐसा ही एक पेड़ है बालम खीरा, जिसका नाम देशी असर को दर्शाता है। जबकि किजलिया अफ्रीकाना नाम का यह पेड़ वास्तव में अफ्रीका से संबंधित है। इसका स्थानीय नाम इसके फल के आकार से लिया गया है जो खीरा या ककड़ी के समान होता है।

यह घने पत्ते वाला एक सुंदर पेड़ है, जिसके पास एक बड़ा ऊपरी हिस्सा और गहरे हरे रंग की मोटी, सख्त और चौड़ी पत्तियां हैं। बालम खीरा में उच्च अनुकूलन क्षमता है और स्थानीय स्तर पर इसे औषधि में भी इस्तेमाल किया गया है। फल के अलावा, इसकी एक और विशेषता इसका लटकता हुआ एफ्फोलोरेसेंस है - लाल, मोटे, बड़ा नलीदार फूल। इसे इमारतों और पेड़ों से ढकी चौड़ी सड़कों पर लगाया गया है, और यह आमतौर पर दिल्ली जैसे शहरों में पाया जाता है।

बालम खीरा में उच्च अनुकूलन क्षमता है और स्थानीय स्तर पर इसे औषधि में भी इस्तेमाल किया गया है।

गुलमोहर और बालम खीरा को देशी वनस्पतियों में समाहित कर लिया गया है क्योंकि उनके लिए यहां की मिट्टी में फलना-फूलना चुनौतीपूर्ण नहीं रहा है। उन्होंने अपने आपको फैला लिया और खाली जगहों को भरते चले गए। इसलिए एकांत या अलगाव या बेसहारा या तनाव की बहुत अधिक भावना इनके अंदर नहीं है. इससे उन्होंने खुद से निपट लिया है।

लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जिन पर इन भावनाओं का असर पड़ता नजर आता है - जैसे कि कमंडल (क्रिसेंटिया कुजेट) का पेड़। एक लैटिन-अमेरिकी पेड़, जिसके फलों का इस्तेमाल बर्तन और कटोरे बनाने के लिए किया जाता है। इसका नाम कमंडल या साधु-संतो के 'भिक्षा मांगने वाले पात्र' से लिया गया है।

हालांकि, कमंडल के कुछ ही पेड़ नजर आते हैं (दिल्ली में दो या तीन) और उन्हें भी ज्यादा लोग तब तक नहीं पहचानते, जब तक कि उनके भूरे रंग के फूल उनके तने पर बाहर नहीं निकलने लगते हैं और गेंद जैसे हरे फलों में बदल नहीं जाते। चूंकि वे चमगादड़-परागित हैं, यह दिलचस्प है कि वे परागण में मदद करने के लिए स्वदेशी चमगादड़ों से बातचीत करते हैं।

कमंडल एक लैटिन-अमेरिकी पेड़, जिसके फलों का इस्तेमाल बर्तन और कटोरे बनाने के लिए किया जाता है। 

फिर कुछ पेड़ ऐसे हैं जो इतने शांत और इतने छिपे हुए हैं कि वे मुश्किल से ही आसपास दिखाई देते हैं। उनकी शब्दावली में झिझक की भावना नजर आती है। ऐसा है नेटल ट्री (सेल्टिस ऑस्ट्रेलिस या हिंदी में खड़क, जो एक दिलचस्प नाम है)। भूमध्यसागरीय और दक्षिणी यूरोपी इलाके में पाया जाने वाला ये पौधा, ऐसा लगता है कि भारत की अपनी यात्रा पर सिकंदर महान के साथ आया था या किसी तरह उस रास्ते से सिल्क रूट पर आ गया।

पेड़ की एक दिलचस्प विशेषता इसका द्विपक्षीय शाखाओं में फैलना है जो साफ, स्लेटी, चिकनी छाल के साथ लगभग पर्वतारोही की तरह लगती हैं। अब, यह उपोष्णकटिबंधीय, शुष्क पर्णपाती, मिश्रित वनों में पाए जाने वाले एक पेड़ की तरह, अपने आसपास की वनस्पतियों में मिश्रित हो जाता है। यह उपोष्णकटिबंधीय पेड़ों के साथ घुलमिल जाता है जैसे कि उनके बीच अपनी पहचान प्रकट करने का उसका कोई इरादा न हो। मानो, हरे रंग की छत्रछाया में झूलती पत्तियों के साथ अपने एकांत का आनंद ले रहा हो।

एक पेड़ जो अपनी तरफ खींचता है वह है अगाथिस (अगाथिस ऑस्ट्रेलिस)- एक दिलचस्प छाल वाला एक सदाबहार पेड़ - चित्तीदार और स्लेटी-भूरा रंग का ये पेड़ अपने घर से काफी दूर है। इसकी मोटी पत्तियां सूखने पर टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं. लेकिन फिर भी यह भारत की धरती पर शान से कायम है। इसकी विशिष्ट सीधे खड़े होने की प्रकृति ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की मूल है, जैसेकि यूकेलिप्टिस। वहां इसे कौरी के पेड़ के रूप में भी जाना जाता है।

अगाथिस एक दिलचस्प छाल वाला एक सदाबहार पेड़ - चित्तीदार और स्लेटी-भूरा रंग का ये पेड़ अपने घर से काफी दूर है।

कौरी के जंगल दुनिया के सबसे पुराने जंगलों में से एक हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि कौरी के पूर्ववर्ती जुरासिक काल के दौरान, 190 से 135 मिलियन वर्ष पूर्व के बीच प्रकट हुए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि अगाथिस के पेड़ यूरोप में खत्म हो गए होंगे और फिर किसी तरह भारत में आने का अपना रास्ता खोज लिया होगा। इस पेड़ की मजबूत, झूंडनुमा पत्तियां जहां कहीं भी होती है, अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेती हैं। बहिर्मुखी पेड़, यह न सिर्फ खुद को अलग-अलग परिस्थितियों में अपनाने के लिए तैयार दिखता है, बल्कि उनमें पनपता भी है।

ऐसे ही विदेशी पेड़ों की श्रंखला में हम बाओबाब (एडंसोनिया डिजिटाटा) भी पाते हैं, एक अफ्रीकी पेड़ जिसके कई नाम हैं जैसे इनवर्टिड ट्री या बोटल ट्री। यह दुनिया भर में काफी लोकप्रिय है। आबादी के आस-पास इसका बना रहना काफी मायने रखता है क्योंकि यह सूखने पर अपनी खोखली विशाल सूंड में पानी जमा कर सकता है और इसकी ऊंचाई कई दसियों फीट तक पहुंच जाती है। पेड़ की भारतीय प्रजाति के अनुवांशिक वेरिएंस अध्ययन से संकेत मिलता है कि यह मूल नहीं है और अफ्रीकी क्षेत्र से आया है। वह इसकी उत्पत्ति का स्थान है। हालांकि यह काफी दिलचस्प है कि देश में इसे कल्पवृक्ष कहा जाता है – इच्छा पूरी करने वाला पेड़।

कल्पवृक्ष एक प्रमुख पौराणिक वृक्ष है। पौराणिक साहित्य में लिखा है कि यह समुद्र मंथन (देवताओं और राक्षसों द्वारा समुद्र मंथन) से प्रकट हुआ था और इसे समय के साथ शुभ माना जाने लगा। बाओबाब की कहानी में मोड़ तब आता है, जब कुछ जगहों जैसे उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे पारिजात के नाम से भी पुकारा और माना जाता है। वास्तव में यह एक मिथ्या नाम है। यहीं पर पेड़ की दिलचस्प पहचान और उसकी मान्यता सामने आती है।

पारिजात, जिसे आमतौर पर भारत में हरश्रृंगार, शिउली या शेफाली के नाम से जाना जाता है, एक स्वदेशी पेड़ है जो पुराणों, संस्कृत साहित्य और कृष्ण की कहानियों में शामिल है। इस पेड़ से बिल्कुल अलग, जो अक्टूबर में प्रचुर मात्रा में खिलता है, बाओबाब भारत में उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत में कुछ क्षेत्रों में एक स्थान पर अधिकतम एक या दो पेड़ों के साथ छिटपुट रूप से पाया जाता है।

बाओबाब भारत में उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत में कुछ क्षेत्रों में एक स्थान पर अधिकतम एक या दो पेड़ों के साथ छिटपुट रूप से पाया जाता है।

बाओबाब के पेड़ सेमल के पेड़ों की तरह दिखते हैं। उनके भारत आने के बारे में अटकलें ये लगाई गई हैं कि या तो अरबों या पुर्तगालियों ने उन्हें पश्चिमी भारत के कई हिस्सों में चर्चों के पास लगाया था। कल्पवृक्ष की कई वर्षों से इसकी नई पहचान में पूजा की जाती रही है, खासकर उत्तर भारत में। बाओबाब ने देशी मिट्टी में अच्छी तरह से रच-बस गया है और इसकी पौध नर्सरी में उगाई जा सकती है। इसके मशरूम जैसे सफेद फूल जब गिरते हैं और पेड़ के नीची की जमीन को ढंकते हैं तो सुंदर लगते हैं।

आज के समय में, पेड़ों के बारे में पीढ़ी दर पीढ़ी मिले ज्ञान को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। पेड़ों को देखने, पहचानने, मान्यता देने और उनकी सराहना करने की अधिक जरूरत है। हम सभी ईस्ट इंडिया कंपनी के कई शहरों में स्थापित कंपनी बागों या उद्यानों से परिचित हैं, जिनमें आज जॉगर्स और सुबह की सैर करने वालों का आना-जाना लगा रहता है। उनमें से कुछ बाद में भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (जैसे सहारनपुर, इलाहाबाद और कलकत्ता में) के क्षेत्रीय कार्यालय बन गए, जिसका उद्देश्य विदेशी और देशी पेड़ों को एक स्थान पर रखना, उनके बारे में जानना, उनके फेनोलॉजी, व्यवहार और प्रचार करना था।

पेड़ों से जुड़ने और उनके मौन की शब्दावली में तल्लीन होने की यह भावना चलती रहनी चाहिए। हमें पेड़ों और उनकी उत्पत्ति, उनके बेहतर उपयोग के बारे में जिज्ञासा को प्रोत्साहित करने और उनके साथ बातचीत, उनकी यात्रा और उनकी कहानियों को उनके शब्दों के साथ शामिल करने की जरूरत है।

रमेश पांडे भारतीय वन सेवा अधिकारी हैं जो वर्तमान में नई दिल्ली में MoEFCC, भारत सरकार में वन महानिरीक्षक हैं। उन्हें यूएनईपी एशिया पर्यावरण प्रवर्तन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं

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