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हर्बल इलाज से दूर भाग रहे पशुपालक

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जहां पहले पशुओं को छोटी-मोटी बीमारियां होने पर पशुपालक हर्बल दवाओं को प्रयोग करके सही लेते थे, वहीं अब पशुपालक पूरी तरह से एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भर होते जा रहे हैं।

“पशुपालक चाहता है कि पशु बीमार है तो वह तुरंत ठीक हो जाए। इसलिए एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भरता ज्यादा है। हर्बल उपचार धीरे-धीरे संभव है इसलिए पशुपालक इससे दूर भागते हैं। कई बार फील्ड में पशुओं को इलाज के लिए जाते हैं, अगर एक ही विजिट में दवा का असर नहीं दिखता है तो पशुपालक डॉक्टर बदल देता है या फिर बीमारी बताकर मेडिकल स्टोर से दवा ले लेता है।” राजस्थान के अजमेर जिले के पशुचिकित्सक डॉ. संतोष कुमार ने गाँव कनेक्शन से फोन पर बातचीत पर ऐसा बताया।

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देश में पशुपालन ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आय का एक बड़ा जरिया है। 19वीं पशुगणना के अनुसार भारत में कुल 51.2 करोड़ पशु है, जोकि विश्व के कुल पशुओं का लगभग 20 प्रतिशत है। भारत के पास 30 देशी गाय की नस्ले, भैंसों की 15, बकरियों की 20, भेड़ की 42, ऊंटों की चार, घोड़ों की आठ और कुक्कुट की 18 नस्लें हैं।

उत्तराखंड के ऋषिकेश में रहने वाले प्रमोद बहुगणा (45 वर्ष) पिछले छह साल से डेयरी व्यवसाय से जुड़े हुए है। प्रमोद फोन पर बताते हैं, “हमारी डेयरी में कोई भी पशु बीमार होता है तो हम एंटीबायोटिक दवा ही देते हैं। दवा का असर जल्दी होता है। पहले गाँव में हर्बल इलाज संभव था क्योंकि जड़ी-बूटियों का लोगों को ज्ञान था। डॉक्टर भी हर्बल दवाओं के बारे में जागरुक नहीं करते हैं। अब जो लोग पशुपालन में आ रहे हैं, वो व्यावसायिक तौर पर जुड़े हुए हैं, नुकसान न हो इसके लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं। रोजाना खर्चों में लगभग 20 प्रतिशत भाग पशुओं के स्वास्थ्य पर खर्च होता है।” प्रमोद के पास 25 पशु हैं, जिनसे रोजाना 200 लीटर दूध का उत्पादन होता है।

हाल में सेंटर फॉर डिजीज डायनैमिक्स, इकनॉमिक्स एंड पॉलिसी के अध्यन में बताया गया है कि एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध इस्तेमाल से इसको बेअसर करने वाले बैक्टीरिया के विकसित होने की आशंका बढ़ गई है, जिससे व्यक्तियों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनका इलाज करना मुश्किल होगा। मौजूदा समय में पोल्ट्री फार्मों में प्रयोग होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल में भारत चौथे स्थान पर है। अगर पोल्ट्री उद्योग में ऐसे ही अंधाधुंध एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल होता रहा तो वर्ष 2030 तक भारत एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल में पहले पायदान पर होगा।

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मथुरा स्थित केंद्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान के औषध विभाग की प्रधान वैज्ञानिक डॉ. अनु राहल बताती हैं, “हर्बल दवाओं के लिए पशुपालकों को सबसे पहले जागरूक होना पड़ेगा। हम मथुरा के कई गाँव में काम कर रहे हैं, जहां पशुपालकों हर्बल इलाज के बारे में जानते ही नहीं थे। लेकिन अब वो हर्बल तरीके से ही इलाज कर रहे हैं। पशु चिकित्सा में वनस्पतियों का उपयोग न सिर्फ पशुओं में होने वाले संक्रमण को रोकता है, बल्कि भविष्य में पशु उपचार में इस्तेमाल की जाने एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग को भी रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।”

पाठे पाठशाला के जरिए दे रहे प्रशिक्षण

जहां भारत में अंधाधुंध एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। वहीं इसके प्रयोग को रोकने के लिए भारत के पूर्व में स्थित ओडिशा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर में रहने वाले पशुचिकित्सक डॉ. बलराम साहू पिछले नौ वर्षों से ‘पाठे पाठशाला’ चला रहे है। इस पाठशाला में बलराम पशुपालकों को हर्बल तरीके से इलाज करने का प्रशिक्षण देते हैं। यह प्रशिक्षण मात्र दो घंटे का होता है। बलराम के इस मुहिम से अब तक लाखों पशुपालक जुड़ चुके है।

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“पशुओं को जो भी एंटीबायोटिक दवा दी जाती है उसका सीधा असर मनुष्यों पर पड़ता है। लेकिन पशुपालक इसे नहीं समझते क्योंकि उत्पादन पर असर न पड़े इसके लिए अंधाधुध एंटीबायोटिक दवाओं को इस्तेमाल करते है। ग्रामीण क्षेत्रों में कई ऐसे पेड़-पौधे, जड़ें होती हैं, जिनका इस्तेमाल करके पशुओं का कम खर्च में अच्छा इलाज किया जा सकता है। इसका कोई दुष्प्रभाव भी नहीं पड़ता है।” ऐसा बताते हैं, डॉ. बलराम साहू।

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