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4.5 एकड़ में 210 टन मछली उत्पादन, नई तकनीक से मछली पालन के लिए मिला सर्वश्रेष्ठ मछली पालक का पुरस्कार

अगर आप भी मछली पालन के क्षेत्र में कुछ नया करना चाहते हैं तो यह आपके काम की खबर हो सकती है। मछली पालन के लिए मोहम्मद आसिफ ने वियतनाम की तकनीक का इस्तेमाल किया है, जिससे कम क्षेत्र में मछलियों को पालन कर सकते हैं। इस बार आसिफ को सर्वश्रेष्ठ मछली पालक का पुरस्कार भी मिला है।
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देवा, बाराबंकी (उत्तर प्रदेश)। पिछले कुछ वर्षों में मछली पालन का व्यवसाय की तरफ लोगों का रुझान तेजी से बढ़ा है, बहुत से ऐसे भी लोग हैं, जो इस क्षेत्र में कुछ न कुछ नया कर रहे हैं, ऐसे ही एक मछली पालक मोहम्मद आसिफ सिद्दीकी भी हैं। इन्हें 21 नवंबर को मत्स्य दिवस के मौके पर बेस्ट फिश फार्मर के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

आसिफ कम क्षेत्र में ज्यादा मछलियों का उत्पादन करते हैं, यही नहीं उनसे सीखने कई राज्यों के युवा आते हैं। बाराबंकी जिले के देवा-कुर्सी रोड पर बन्धिया गंगवारा गाँव में एक्यू फिशरीज फार्म है, जहां पर 6.5 एकड़ क्षेत्रफल में 60 से अधिक छोटे-बड़े तालाब हैं, जिनमें पंगेशियस नस्ल की मछलियों का पालन होता है।

6.5 एकड़ क्षेत्रफल में 60 से अधिक छोटे-बड़े तालाब हैं, जिनमें पंगेशियस नस्ल की मछलियों का पालन होता है। सभी फोटो: अभिषेक वर्मा

ऐसा नहीं कि आसिफ शुरू से ही मछली पालन के व्यवसाय से जुड़ हुए हैं, मछली पालन की शुरुआत के बारे आसिफ बताते हैं, “मैंने साल 2015 में मछली पालन शुरू किया, इससे पहले मैं यहां पर केला की खेती करता था, अच्छा उत्पादन भी मिला, लेकिन उस हिसाब से रेट नहीं मिला।”

वो आगे कहते हैं, “हमने मछली पालन के बारे में जानना शुरू किया, मुझे लगा कि ऐसी विधि निकले जिसमें कम लागत हो और अधिक उत्पादन हो। हमारे एक मित्र हैं परवेज जो आरएएस सिस्टम से मछली पालन करते हैं, उन्हीं से जानकारी लेनी शुरू की। उनके कल्चर को देखा और समझा, फिर उसी के हिसाब से सीमेंटेड टैंक से पांच गुना ज्यादा एरिया में तालाब बनाया, क्योंकि पक्के टैंक में उसका स्लज निकल जाता है, लेकिन कच्चे तालाब में पूरी तरह से साफ नहीं होता है। इसलिए उससे ज्यादा एरिया बढ़ाना पड़ा।”

आरएएस सिस्टम में सीमेंट के टैंक में कम क्षेत्र में ज्यादा मछलियों का पालन करते हैं, अगर कम क्षेत्र में ज्यादा मछलियों का पालन करते हैं तो कुछ-कुछ दिनों में पानी बदलना होता है और उनके लिए ऑक्सीजन के लिए सिस्टम लगाना होता है, लेकिन पक्के तालाबों की लागत बहुत ज्यादा होती है। बस वहीं से आसिफ को कच्चे तालाबों में इस तकनीक से मछली पालन का आइडिया आया।

वियतनाम जैसे देशों में कच्चे तालाब में अति सघन विधि से मछली पालन होता है, भारत में किसी ने ऐसी शुरुआत नहीं की थी, आसिफ ने पहली बार इस तकनीक का इस्तेमाल किया।

आसिफ बताते हैं, “जब हमने शुरूआत कि तो लोग हमसे कह रहे थे कि कच्चे तालाबों में तो नहीं हो सकता है लेकिन उसके बाद भी हमने कहा कि हम प्रयास करते हैं कि शायद हो जाए। क्योंकि हमने इसके लिए काफी स्टडी की थी, कि यह वियतनाम में यह कच्चे तालाब में हो रहा है। उसी को देखकर हमने शुरूआत कि जिस तरह से पक्के तालाब में होता है उसी तरीके से पानी डालने और निकालने का सिस्टम बनाना होता है।”

अपने शुरुआत के अनुभव को साझा करते हुए आसिफ कहते हैं, “हमने इसकी शुरूआत एक एकड़ में की और पहले साल में बहुत स्ट्रेस था कि कैसे होगा लेकिन हम पूरी सावधानी बरतते हुए काम करते रहे, मछलियों को फीडिंग कराते, हमने जारी रखा।”

“और जब हमने हार्वेस्टिंग की तो पहली 620 क्विंटल का उत्पादन मिला, इससे हमारा हौसला और बढ़ गया, कि हम कम एरिया में मछली पालन कर सकते हैं, क्योंकि इतनी मछलियों का उत्पादन करीब 12 एकड़ में मिलता है, “यह कहते हुए तालाब के किनारे खड़े आसिफ के चेहरे पर गर्व का भाव था।

यही नहीं तालाब से जो भी पानी निकलता है वो भी काम आ जाता है। वो बताते हैं, “इसमें हमने कम लागत में तालाब तैयार किया जोकि सीमेंटेड तालाब बनाने से बहुत कम है, इसमें जगह भी कम लगती है, मानकर चलिए कि दस गुना कम जमीन लगती है। जबकि हमें 15-20 प्रतिशत कम पानी लगता है और इससे जो पानी निकलता है वो अपने और आसपास के किसानों के खेतों की सिंचाई में लग जाते हैं। इससे एक साथ दो काम होते हैं, इससे खेत भी उपजाऊ होता है।”

आसिफ का प्रयोग सफल रहा, उनकी माने तो एक आम छोटा किसान भी इसे शुरू कर सकता है। वो बताते हैं, “हम कहना चाहेंगे कि इसे आम किसान भी आसानी से कर सकता है। किसान के बजट में आ जाता है। एक एकड़ में ट्यूबवेल और पूरे खर्चे के साथ इसकी लागत सात-आठ लाख आती है। और जिसे कम करना है वो एक लाख में भी शुरू कर सकता है।”

पिछले कुछ सालों में मछली पालन की लागत में वृद्धि हुई, लेकिन ऐसा नहीं है कि मछली पालकों को नुकसान हो रहा है। लागत और कमाई की गणित समझाते हुए आसिफ कहते हैं, “इसमें सबसे ज्यादा खर्चा फीड का ही आता है, जब हमने शुरूआत की थी तब फीड 32 रुपए किलो था और उस समय हमारी मछली 100 रुपए किलो बिकती थी और इसमें और भी बाकी खर्च होते हैं जैसे कि बच्चे का खर्च हमें एक बच्चा लगभग 5 रुपए में पड़ता है। दूसरा दवाई और पानी चलाने के लिए डीजल इंजन चलाना होता है, उसका भी खर्च, क्योंकि लाइट नहीं तो पानी चलाना ही पड़ेगा।”

वो आगे समझाते हैं, “इस तरह हमारी लागत 65-70 रुपए आती थी, तब प्रॉफिट 30-35 रुपए हो जाता था, लेकिन पिछले कुछ साल में फीड की कॉस्ट बढ़ गई है, जबकि मछली की कीमत नहीं बढ़ी है, क्योंकि पहले कम लोग मछली पालन करते थे अब ज्यादा लोग करने लगे हैं, इसलिए कीमत कम ही हुई है। पहले जो लागत 65-70 रुपए की लागत थी अब 80 रुपए तक पहुंच गई है, इस समय हमें मार्केट में रेट 90 रुपए रेट मिल रहा है, तो समझिए कि एक मछली पर हमारे 10 रुपए बचते हैं आगे मछली का रेट 100 से 110 तक भी हो सकता है, इससे बचत भी ज्यादा होगी।”

“ऐसे में किसान 10 रुपए भी कमा रहा है तो फायदे में ही रहेगा, बस इस पर निर्भर करता है कि कितना उत्पादन ले रहा है। क्योंकि अगर उत्पादन करेंगे तो कमाई नहीं समझ में आएगी, जबकि अगर ज्यादा उत्पादन करेंगे तो कमाई भी समझ में आएगी, “उन्होंने आगे बताया।

आसिफ ने एक एकड़ में शुरूआत की थी और इस बार 6.5 एकड़ में मछली पालन कर रहे हैं। यही नहीं उन्होंने कम एरिया में ज्यादा मछली पालन का भी रिकॉर्ड बनाया है। सिद्दीकी बताते हैं, “हमने पहले साल में एक एकड़ से शुरूआत की फिर दूसरे साल एक एकड़ और बढ़ाया और फिर तीसरे साल साढ़े तीन साल कर दिया और पिछले साल हमारा लगभग साढ़े चार एकड़ हो गया। उसमें हमने 210 टन मछली का उत्पादन किया और इस साल हमने साढ़े छह एकड़ कर दिया और इसमें हमारा लक्ष्य 250 से 300 टन लेने का है।”

मोहम्मद आसिफ पंगेसियस नस्ल की मछली का पालन करते हैं। भारत में पंगेसियस सबसे पहले पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के रास्ते थाईलैंड से साल 1995-96 में लायी गई थी। इस समय यह मछली मीठे पानी में पाली जाने वाली दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी प्रजाति है। दुनिया में पंगेशियस नस्ल की मछली उत्पादन में वियतनाम पहले स्थान पर है, जबकि भारत में सबसे अधिक उत्पादन आंध्र प्रदेश में होता है।

आसिफ पंगेसियस नस्ल की मछलियों को पालने की वजह बताते हैं, “इस कल्चर से मछली पालन करते समय हमें देखना होता है कि कौन सी मछलियां इसमें सही रहेंगी, हमने इसपर रिसर्च की तो पता चला कि एक तो हम पंगेशियस पाल सकते हैं, नहीं तो पंगेशियस, क्योंकि तिलापिया का हमारे यहां मार्केट नहीं है, वो आज भी 60-65 रुपए प्रति किलो में बिकती है, क्योंकि लागत यही आती है तो हमने पंगेशियस पालना शुरू किया, क्योंकि इसकी मांग भी ज्यादा और लोगों को सही रेट में मिल जाती है।”

“आज भी हमारे प्रदेश में जितना मछलियों का उत्पादन होना चाहिए उतना नहीं हो पा रहा है, आज भी आंध्र प्रदेश जैसे प्रदेशों से मछलियां आती हैं। क्योंकि हमारे यहां इसका पालन बढ़ा तो है, लेकिन अभी वो पर्याप्त नहीं है, “वो आगे कहते हैं।

यह तकनीक छोटे किसानों के लिए भी काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। कोई भी छोटा किसान भी इसे शुरू कर सकता है, मान के चलिए अगर कोई छोटा किसान है और उसके पास केवल एक बीघा जमीन है तो उसमें एक चौथाई हिस्से में तालाब बना ले और बाकी में खेती करे, तालाब के पानी से खेत की सिंचाई भी कर सकते हैं, इससे पैदावार भी बढ़ेगी।

21 नवंबर को विश्व मत्स्य दिवस मनाया जाता है, उसी दिन मोहम्मद आसिफ को केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन, डेयरी मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने सर्वश्रेष्ठ मछली पालक के पुरस्कार से सम्मानित किया। यह पुरस्कार हर साल तीन श्रेणियों- समुद्री, अंतर्देशीय और पहाड़ी और पूर्वोत्तर राज्यों (Inland, Marine and Hilly & NE Region) में दिया जाता है। मोहम्मद आसिफ को यह पुरस्कार बेस्ट इनलैंड फिश फार्मर का मिला है।

मोहम्मद आसिफ को केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन, डेयरी मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने सर्वश्रेष्ठ मछली पालक के पुरस्कार से सम्मानित किया।

राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार पाने के अनुभव को साझा करते हुए मोहम्मद आसिफ के चेहरे पर खुशी के भाव थे, मुस्कुराते हुए कहते हैं, “अवार्ड का अनुभव बहुत अच्छा रहा, क्योंकि हमारे प्रदेश को सम्मान मिला है, ये इनलैंड फिश फार्मिंग का सम्मान है, क्योंकि मैं कच्चे तालाब में ज्यादा मछलियों का पालन करता हूं जोकि अभी पूरे भारत में कोई नहीं करता है। दूसरे प्रदेशों में मछली उत्पादन ज्यादा है, लेकिन वहां पर 60 एकड़ में जितनी मछलियों का उत्पादन होगा, उतना हम 6 एकड़ में लेते हैं।”

वो आगे बताते हैं, “एक तो हम कम पानी, कम जगह में अधिक उत्पादन लेते हैं और दूसरा मंत्री जी ने मुझे सम्मानित किया और वहां के दूसरे किसानों ने मुझसे पूछा कि क्या कम जगह में अधिक मछलियों का पालन संभव है तब मेरा जवाब कहा कि हम कर रहे हैं ये संभव है।”

पिछले कुछ वर्षों में मछली पालन का व्यवसाय बढ़ा है, मत्‍स्‍य विभाग की ओर आर्थिक रूप से कमजोर मत्‍स्‍य पालकों को आवास के साथ समय पर मत्‍स्‍य बीज उपलब्‍ध करा उनकी आमदनी बढ़ाने काम किया जा रहा है। मछली पालन को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (PMMSY) की शुरूआत की है। इसे आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत साल 2020-21 से साल 2024-25 तक सभी प्रदेशों और संघ शासित राज्यों में लागू करना है।

सरकारी योजनाओं से सहयोग के बारे में वो कहते हैं, “पिछले 5-6 सालों में हमारे प्रदेश में मछली पालन तेजी से बढ़ा है, हमारे जिले में ही देखिए तो 5-6 साल पहले जितने एरिया में मछली पालन होता था, उससे 25-30 गुना ज्यादा एरिया में मछली पालन होने लगा है। पुराने जो जल स्रोत थे उनका भी उपयोग होने लगा है। जोकि सरकार की नीति है उसका भी लाभ हमारे किसान भाइयों को मिलने लगा है, इससे वो लोग भी आगे आ रहे हैं क्योंकि पहले लोग पैसों की कमी के कारण मछली पालन का व्यवसाय नहीं शुरू कर पाते थे। हमारे प्रधानमंत्री ने भी मछली पालन को काफी बढ़ावा दिया है, तभी नीली क्रांति आगे बढ़ पायी है।”

“मछली पालन मछली पालन की सबसे अच्छी बात है, इसे हमें कहीं बाहर नहीं बेचने जाना पड़ता है, सारे खरीददार यहीं आकर खरीद लेते हैं। शाहजहांपुर, कन्नौज, अयोध्या, बहराइच, गोंडा, सुल्तानपुर जिलों से खरीदने आते हैं, जबकि बाराबंकी और लखनऊ जिला तो है ही, वो जिंदा मछलियां बेचते हैं। पहले आंध्र प्रदेश से पेटियों में मछलियां लाते थे, अब यही से जिंदा मछलिया मिल जाती हैं, “आसिफ ने बताया।

उत्तर प्रदेश में पंगेशियस नस्ल की मछलियों का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन पंगेशियस मछली का सीड पश्चिम बंगाल से ही आता है, क्योंकि प्रदेश में अब तक कोई हैचरी नहीं शुरू हो पायी है, जबकि दूसरी मछलियों के सीड तो आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

कोरोना काल में जहां दूसरे व्यवसाय को नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन मछली पालकों उतनी परेशानी नहीं हुई। कोरोना के असर पर आसिफ कहते हैं, “कोरोना महामारी का दूसरे व्यवसायों पर तो असर पड़ा है, लेकिन मछली पालन पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ा है। क्योंकि हम लोग जो कल्चर करते हैं उसमें ज्यादा लोगों की जरूरत नहीं होती है, दिक्कत यही हुई जो हमारा सीड आता था, पश्चिम बंगाल से वो नहीं आ पाया, उसमें थोड़ी दिक्कत हुई, जिससे जो मार्च-अप्रैल में हम तालाब में सीड डाल देते हैं, उस समय मई जून के महीने में डालना पड़ा। बाकी तो कोई दिक्कत नहीं हुई।”

आसिफ के फिश फार्म पर 14 लोगों को रोजगार मिला है। आसिफ कहते हैं, “रही बात रोजगार की हमने 14 लोगों को रोजगार भी दिया है, यही नहीं आसपास के जो लोग मछलियां खरीदकर बाजार में बेचने ले जाते हैं उन्हें भी रोजगार मिलता है।”

मछली पालन के व्यवसाय में युवा भी आ रहे हैं, बहुत से युवा आसिफ के यहां ट्रेनिंग लेने आते हैं। आसिफ बताते हैं, “पिछले कुछ सालों में नई पीढ़ी भी मछली पालन के व्यवसाय में आ रहे हैं, ऐसे लोग जिनके बारे में कुछ साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता है था कि वो मछली पालन का व्यवसाय करेंगे। बहुत से युवा हमारे यहां सीखने आते हैं, हम लोगों से ट्रेनिंग की कोई फीस भी नहीं लेते हैं। कई लोगों ने तो शुरू भी कर दिया है, यूपी ही नहीं मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे राज्यों से भी लोग सीखने आते हैं।”

यही नहीं उत्तर प्रदेश के मछली विभाग और राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (ICAR-NBFGR) से भी लोग यहां पर ट्रेनिंग लेने आते हैं।

पंगेसियस मछली में सबसे ज्यादा दिक्कत सर्दियों में होती है, आसिफ ने इससे बचाने का भी तरीका ढूंढ लिया है। आसिफ बताते हैं, “पहले लोग इससे पालते ही नहीं थे, ये आंध्र प्रदेश से ही आती थी, क्योंकि पहले लोग कहते थे कि ये यहां पर नहीं सर्वाइव नहीं कर पाएगी, लेकिन फिर इसकी शुरुआत हुई, अब यहां पर पालन हो रहा है।”

वो आगे कहते हैं, “ठंड में इन्हें बचाने के लिए हम एक तालाब बनाते हैं, उसमें मछलियों को डाल देते हैं, जब सर्दी बढ़ जाती है और रात में जब तापमान नीचे जाता है तो हर रात में 5-6 घंटे ट्यूबवेल चला देते हैं, उससे पूरे तालाब का पानी के तापमान तो नहीं बढ़ता, लेकिन जहां पर पानी गिरता है, वहां कुछ दूर तक पानी का तापमान कुछ बढ़ जाता है, उसी के आसपास सारी मछलियां इकट्ठा हो जाती है।”

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