लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)। छह महीने पहले तक राधा देवी और उसका पति दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे और दोनों मिलकर एक दिन में मुश्किल से चार सौ रुपये ही कमा पाते। महामारी के समय में जैसे ही काम मिलना बंद हो गया उन्हें अपने पांच बच्चों का पेट भरना मुश्किल होने लगा।
लेकिन अब राधा अकेले ही रोजाना चार सौ से छह सौ रुपये कमा रही हैं। इसका श्रेय उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के समैसा गांव में चल रही अनूठी पहल को जाता है। जिला प्रशासन केले के फेंके जाने वाले तने का इस्तेमाल कर एक तीर से दो निशाने साध रही हैं- इससे फसल के कचरे को तो काम में लिया ही जा रहा है, साथ ही ग्रामीण महिलाओं को रोजगार भी मिल रहा है।
समैसा में मां सरस्वती सेल्फ-हेल्प ग्रुप (एसएचजी) की एक सदस्य राधा देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैं, केले के बेकार तनों को रेशों में बदलकरएक दिन में कम से कम चार सौ से छ सौ रुपये कमाती हूं।” उनकी तरह गांव की 39 और महिलाएं इस काम से हर दिन औसतन चारसौ रुपये कमा रही हैं।
35 वर्षीय राधा देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, “पहले मैं और मेरे पति मिलकर भी दिहाड़ी मजदूरी से एक दिन में चार सौ रुपये से ज्यादा नहीं कमा पाते थे। जब कोविड फैला तो काम मिलना बंद हो गया और हमारे पास अपना और अपने बच्चों का पेट भरने तक के पैसे नहीं थे।” वह आगे कहती है, “अब, मैं अपने पूरे परिवार को पालने में सक्षम हूं।”
बेकार पड़े केले के तने से रेशे
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में लगभग एक हजार एकड़ (405 हेक्टेयर) जमीन पर केले की खेती होती है। केले की फसल लेने के बाद, किसान आमतौर पर इसके तने को फेंक देते हैं। खेत से केले के बेकार तनों को साफ करने के लिए पांच रुपये प्रति क्विंटल (एक क्विंटल=100 किलोग्राम) अतिरिक्त खर्च करने पड़ते हैं।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। जिला प्रशासन की इस अनूठी पहल को शुक्रिया, जिसने फेंके जाने वाले तने को ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का जरिया बना दिया। वह इनसे रेशे निकाल रहीं हैं। केले के रेशों का इस्तेमाल आमतौर पर कपड़ा उद्योग, स्लोप और डायपर जैसे हायजीन उत्पादों में किया जाता है। समैसागावं में इस योजना को पिछले दिसंबर में शुरु किया गया था। इतना ही नहीं ये रेशे जैविक रुप से विघटित हो जाते है और पर्यावरण के अनुकूल भी हैं।
समैसा गांव की 39 महिलाओं को केले के तने से फाइबर निकालने का प्रशिक्षण दिया गया है। लखीमपुर खीरी के मुख्य विकास अधिकारी अरविंद सिहं ने गांव कनेक्शन को बताया, ” हमने गुजरात की एक कंपनी से मशीनरी खरीदी और उसी कंपनी ने महिलाओं को आनलाइनट्रेनिंग दी”
वह कहते हैं, “समैसा प्रोजेक्ट हमारा पहला पायलट प्रोजेक्ट था। इसकी शुरुआत इतनी अच्छी हुई कि अब हम इसका विस्तार करने जा रहे हैं। अब इसे दूसरे गांवों में भी शुरु किया जाएगा।” वह आगे कहते है, ” यह हमारे ‘एक ब्लाक, एक उत्पाद’ पहल का हिस्सा होगा।”
अरविंद बताते हैं, “मां सरस्वती एसएचजी ने गुजरात की एक कंपनी अल्टमेटके साथ एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। यह कंपनी कृषि से निकले कचरे को प्राकृतिक रेशों और धागों में बदलती है जिसका इस्तेमाल कपड़ों और पैकेजिंग में किया जाता है। कंपनी ने 2022 में दो सौ किलो फाइबर खरीदेगी।” उनके अनुसार इसके अलावा भी कई अन्य कंपनियों से लगभग 10 टन ( लगभग 9000 किलो से अधिक) फाइबर के आर्डर मिले हैं। लेकिन अभी तक समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए गए हैं। जुलाई में केले की फसल की कटाई शुरु होने के बाद हो जाएंगे।
जिला स्तर के अधिकारी बताते हैं कि इस पहल से न केवल किसानों के खर्चे में कमी आई है बल्कि गांव की महिलाओं की आमदनी भी बढ़ी है।”
ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक आजादी
इस परियोजना की शरुआतउत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 150 किलोमीटर दूर ईसानगरब्लाक के समैसा गांव में,दिसंबर 2020 में की गई। इस परियोजना ने उन महिलाओं को आर्थिक आजादी मिली है जो हाल तक अपने बच्चों का पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहीं थीं।
राधा देवी गांव कनेक्शन को बताती हैं कि एक केले के पेड़ से लगभग 100 ग्राम फाइबर निकलता है जिसे बीस मिनट में निकाला जा सकता है। वह कहती है, “मैं सुबह आठ बजे घर से निकल जाती हूं और कई बार तो एक दिन में नौ से दस किलो तक फाइबर निकाल लेती हूं।”
निकाले गए एक किलोग्राम फाइबर के लिए सौ रुपये का भुगतान किया जाता है। औसतन एक महिला एक दिन में चार से छह किलो फाइबर निकाल लेती है। जिससे 400 से 600 रुपए की कमाई हो जाती है। राधा देवी कहती हैं, “धागा 180 से 250 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बिकता है।” वह गर्व से बताती है, ” खरीदार ढूंढने के लिए महिलाओं को चिंता करने की जरुरत नहीं थी। कंपनियां धागा लेने के लिए खुद ही गांव तक आती हैं।”
वह कहती है, “मैं हमेशा से पढ़ना चाहती थी। लेकिन गरीबी के कारण ऐसा नहीं कर सकी। लेकिन अब मुझे विश्वास है कि मेरे बच्चों को वो शिक्षा मिल पाएगी जो मैं अपने लिए कभी नहीं जुटा पाई।”
राधा देवी जैसी कई ग्रामीण महिलाओं के पास काम है, वे आत्मनिर्भर हैं, और महामारी जैसे दौर में भी उनके पास जीवन यापन का जरिया है।
तरक्की की राह पर
ईसा नगर (लखीमपुर खीरी) के ब्लाक विकास अधिकारी अरुण कुमार सिंह के अनुसार केले के तने से बने धागों की पहले से ही खासी मांग है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “हमने गुजरात की एक कंपनी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं और इससे महिलाओं के बीच खासा उत्साह है।”
वह बताते हैं, “अल्टमेट कंपनी ने आरटीजीएस (रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट) के जरिए 21,000 रुपये की अग्रिम राशि भेज दी है। हम और मशीन लगाएंगे जिससे उत्पादन बढेगा और महिलाओं की आमदनी भी।”
मुख्य विकास अधिकारी अरविंद सिंह ने यह भी बताया कि वे लखीमपुर खीरी के केले के धागे के प्रचार-प्रसार के लिए सोशल मीडिया को इस्तेमाल कर रहें हैं। वह कहते है, “देश विदेश से कंपनियां आगे आएंगी और इसमें निवेश करेंगी और हमारे गांव को आगे बढ़ाने में मदद करेंगी।”
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय प्रबंधन संस्थान से ग्रेजुएट अरविंद सिंह को दक्षिण एशिया और हांगकांग में तकनीकी अनुसंधान में कई वर्षों का अनुभव है।
इसी बीच समैसा गांव की महिलाएं बेसब्री से इंतजार कर रही हैं। केले की अगली फसल जुलाई में काटी जाएगी और वे पहले से ही दस टन फाइबर के आर्डर को पूरा करने की योजना बना रही हैं।
अनुवादः संघप्रिया मौर्य