एमबीए करने के बाद ज्यादातर लोग किसी कंपनी में मैनेजर बनते हैं। और जब किसी ने आईआईएम अहमदाबाद जैसे संस्थान से गोल्ड मेडल हासिल किया हो तो उसके लिए बहुत आसान था कि वो किसी कंपनी का सीईओ बन जाता लेकिन…
खेत से आपकी कॉलोनी तक आते-आते सब्जियां इतनी महंगी क्यों हो जाती हैं, ये सवाल आईआईएम अहमदाबाद में टॉप करने वाले युवक के मन में भी उठता था। इसीलिए एमबीए में गोल्ड मेडल करने के बाद उसने किसी कंपनी में मैंनेजर या सीओ बनने के बजाए वो काम किया जो लाखों लोगों ने लिए रॉल मॉडल बन गया। किसान के बेटे ने एक कंपनी खड़ी कर दी, जिसने न सिर्फ उसे करोड़पति बनाया बल्कि 22 हजार से ज्यादा किसानों को लाभ पहुंचाया।
देश सबसे प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान आईआईएम अहमदाबाद में पढ़ाई करने वाले कौशलेंद्र को जब एमएबीए में गोल्ड मेडल मिला तो मल्टीनेशलन कंपनियां बड़े-बड़े पदों के साथ उनका इंतजार कर रही थीं, लेकिन उनके मन में कुछ और ही चल रहा था। उनके ज्यादातर साथी देश को दूसरे कोनों और विदेश चले गए थे वो अपनी डिग्री के साथ अहमदाबाद से 1700 किलोमीटर दूर अपने राज्य बिहार की राजधानी पटना लौट आए थे। उन्होंने सब्जी की दुकान खोली थी और पहले दिन की बिक्री महज 22 रुपए की थी लेकिन 2016-17 में उनकी कंपनी का टर्नओवर साढ़े पांच करोड़ का था।
कौशलेन्द्र (36 वर्ष) ने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया, “पढ़ाई करके नौकरी करना सबसे आसान काम था। लेकिन मैंने मन में था कुछ ऐसा करुं जिससे बिहार का पलायन रुके। मैं किसान परिवार से हूं तो ऐसा काम करना चाहता था, जिससे छोटे किसानों का भला हो। मैंने छोटे किसानों से सब्जियां लेकर बड़े शहरों में बेचने का काम शुरू किया था।”
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वो आगे बताते हैं, मैंने देखा था छोटे किसान सब्जियां उगाते थे, लेकिन उन्हें उसकी अच्छी कीमत नहीं मिलती थी, जबकि वही सब्जी शहरों में कई गुना महंगी कीमतों पर बिकती थी। आइडिया शुरू से क्लीयर था बिचौलियों को हटाओ अच्छी और ताजी सब्जियां शहर में बेचो। जो फायदा वो किसान और मुझे मिले।” लेकिन ये काम इतना आसान नहीं था, पहले तो एक एमबीए पढ़ा सब्जी बेचेगा, फिर किसानों को तैयार करना और आखिर में ग्राहक खोजना, सब मुश्किल था।
कौशलेंद्र बताते हैं, “किसानों की सोच बदलना इतना आसान काम नहीं था। शुरुवात में दो तीन किसान आगे आये, पहले दिन भिन्डी, मटर, फूलगोभी बेचने जब पटना पहुंचे तो सिर्फ 22 रुपए की बिक्री हुई, सब्जी खरीदी कितने के थी ये मुझे याद नहीं है पर 22 रुपए की बिक्री हुई ये मेरे लिए खुशी की बात थी, कम से कम बिक्री तो हुई, कोई तो लेने आया।”
किसानों से सब्जियां खरीदकर सीधे शहर में बेचती है किसानों की कंपनी
कौशलेन्द्र के लिए एक वो दिन था और एक आज का दिन है। अब इनके साथ 22 हजार से ज्यादा किसान जुड़े हैं और 85 लोगों का स्टॉफ है। इस काम को शुरू करने के लिए शुरुअात में कौशलेन्द्र छोटे सब्जी उत्पादक किसान छोटे विक्रेताओं के पास गये। उनसे मिलकर उनकी परेशानी समझकर इसी क्षेत्र में कुछ नया करने की सोची। जिससे छोटे किसानो को सब्जियों के सही दाम मिल सके और अच्छे से उत्पादन किया जा सके साथ ही बिचौलियों से मुक्ति मिले।
पढ़ाई करके बिहार वापस आने के पीछे कारण के बारे में उन्होंने बताया, “यहाँ का मजदूर वर्ग बहुत ज्यादा पलायन करता है, क्योंकि उन्हें लगता है यहाँ रोजगार के अवसर कम है, इस पलायन को रोकने के साथ ही मैं उन्हें यहीं रोजगार उपलब्ध कराऊँ इस सोंच के साथ मै वापस आया।”
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गोल्ड मेडलिस्ट के बाद आप सब्जी बेंचने जैसा काम शुरू करेंगे लोग आपका मजाक बनायेंगे इस सवाल के जबाब में उन्होंने बताया, “बदलाव करने के लिए मै हर मजाक सहने को तैयार था, किसी भी काम की शुरुवात के लिए आपकी सोंच और आत्मविश्वास ज्यादा महत्वपूर्ण है, मेरा मजाक बनेगा ये मुझे अच्छे से पता था, ये हमारे समाज की रूढ़िवादिता है कि पढ़ाई के बाद सब्जी बेंचने जैसा काम नहीं शुरू किया जा सकता है, कौन क्या कर सकता है सबके लिए काम फिक्स है।”
बदनामी में भी नाम है, ये सोच बस काम में जुटा रहा
समाज की इस मानसिकता को दूर करने के लिए कौशलेन्द्र ने कहा कि मेरे इस काम से हर जगह चर्चा होगी, इस बता को मैंने दो तरीकों से लिया एक तो ये सही काम नहीं दूसरा कोई भी युवा कोई भी काम शुरू कर सकता है। प्रेमचंद्र जी का एक वाक्या याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘बदनामी में भी नाम है’, अच्छा या बुरा नाम तो मेरा हो ही रहा था।”
बिहार राज्य के नालंदा जिले से लगभग 40 किलोमीटर दूर मोहम्मदपुर गाँव में रहने वाले कौशलेन्द्र ने पांचवीं तक की पढ़ाई प्राथमिक विद्यालय में की। छठी से 10वीं तक नवोदय विद्यालय में और 12 वीं की पढ़ाई पटना में करने के बाद एग्रीकल्चर से इंजीनीयरिंग की पढ़ाई गुजरात से पूरी की। भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद (आईआईएमए) से एमबीए की डिग्री गोल्ड मेडल से प्राप्त करने के बाद वापस बिहार आ गये।
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कौशलेन्द्र ने ‘कौशल्या फाउंडेशन’ कम्पनी की स्थापना की और वर्ष 2008 में किसानो को ‘सम्रद्धि’ नाम की परियोजना बनाकर जोड़ा। कौशलेन्द्र का मानना है, “शुरुवात में किसानों के साथ मिलना शुरू किया, पहली मीटिंग में पांच मिनट में सभी किसान उठकर चले गये, ये हमारे लिए निराशाजनक था पर उनकी मानसिकता बदलना इतना आसान नहीं था ये हम अच्छे से जानते थे, बदलाव के लिए मानव संसाधन सबसे बड़ा संसाधन है ये मानकर हमने बदलाव की शुरुआत की।”
बस पलायन रोकने की थी मंशा
वो आगे बताते हैं, “हमारा सपना रिलायंस या अम्बानी बनना बिल्कुल नहीं था, बिहार के लोगों का पलायन रुके, सब्जी विक्रेताओं को वाजिब दाम मिलें और ग्राहक को ताजी सब्जियां बस इसी उद्देश्य के साथ हमने अपने काम की शुरुवात की, बिहार के लिए ये काम बिल्कुल नया था देर से ही सही पर हमे हमारे इस काम में सफलता मिली।”
“किसी भी काम की शुरुआत के लिए बहुत ज्यादा पैसा होना बिल्कुल जरूरी नहीं है, मेरे पास बहुत ज्यादा पैसे थे भी नही जिसे मै लगा सकूं, सब्जी बेंचने वाले काम में बहुत ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं पड़ी, धीरे-धीरे ही सही किसानों को सब्जी उत्पादन के लिए नये तौर तरीके पता चले, उन्हें उनकी सब्जियों के बाजिब दाम मिलने लगे और ग्राहकों को ताजी सब्जियां पहुंचने लगी।” कौशलेंद्र अपने अनुभव और मुश्किलें गिनाते हैं।
कौशलेन्द्र के मुताबिक सब्जी खराब न हो इसके सही प्लानिंग ज्यादा जरूरी है, पौधे में सब्जियां सबसे ज्यादा सुरक्षित रह सकती हैं इसलिए हमने ऐसी प्लानिंग की है कि सब्जियां ताजी रहें और खराब न हो इसके लिए उन्हें पौधों से तबतक न तोड़ा जाए जबतक बेचना न हो।”
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समृद्धि कंपनी ने किया 5.5 करोड़ का टर्नओवर
सरकार की जो भी पॉलिसी बनती है उसे बड़े किसान मिलकर बनाते हैं, छोटे किसानो को ध्यान में रखकर कोई बता नहीं होती है। मुख्यता गेंहू और धान को लेकर ही चर्चा होती है इस बात से कौशलेन्द्र सहमत नहीं है। सब्जी बेचने वाले किसान के लिए भी पॉलिसी बने ये जरूरी है। किसानों की व्यापारिक संस्था हो ये सोंचकर कौशलेन्द्र ने फॉर्मर प्रोडूसर कम्पनी बनानी शुरू की, “इस कम्पनी में किसानों की बड़ी संख्या जुड़ती चली गयी, ये किसान पटना के एक बड़े सेंटर पर सब्जी लेकर आते हैं, जहाँ से अलग-अलग जगहों पर सब्जियां जाती हैं, सब्जियों का एक अलग तरह बाजार बन गया है जहाँ किसानो और छोटे विक्रेताओं के बीच बिचौलियों का काम खत्म हो गया है।”
कौशलेन्द्र के पास पटना में एक 10 टन वाला छोटा कोल्ड चैंबर है। नालंदा की सकरी गलियों में ग्राहकों को ताजी सब्जियां पहुंचे इसके लिए इन्होने आईस कोल्ड पुश कार्ट (गली-गली सब्जी बेचने वाला ठेला) जो फाइबर से बनाया। इस ठेले में 200 किलो तक सब्जी आ जाती हैं पांच से छह दिन तक सब्जियां ताजी रहती है, इसमे इलेक्ट्रॉनिक तराजू भी है इससे ग्राहकों के दरवाजे तक ताजी सब्जी पहुंचती है।
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कौशलेन्द्र ने बताया, “इस वर्ष (2016-17) कम्पनी का टर्नओवर साढ़े पांच करोड़ है, जिस वर्ष मैं वापस आया उसके बाद हमारे यहाँ के युवा बहार पढ़ाई करके वापस आ रहे हैं और यहाँ ही कुछ काम शुरू कर रहे हैं। कुछ युवाओं ने बड़े शहरों से आकर बिहार में अपना काम शुरु किया है।
कौशलेंद्र की समृद्धि योजना अब पूरे देश में लागू करने की तैयारी है। वो हजारों किसानों के लिए रोल मॉडल बन गए हैं। बिहार के साथ दूसरे राज्यों के किसान उनके यहां सब्जी का ये सफल मॉडल सीखने जा रहे हैं। कौशलेंद्र की सफलता इस मायने में भी सराहनीय है इसी देश में हर साल अरबों रुपए की कुल उप्पादन की 40 फीसदी सब्जियां और फल बर्बाद हो जाते हैं।
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