झारखंड की ये महिलाएं अब मजदूर नहीं, सफल उद्यमी हैं... रोजाना सैकड़ों रुपए कमाती हैं...
Neetu Singh 3 May 2018 3:06 PM GMT

झारखंड (रांची)। जो महिलाएं कभी दूसरों के यहां ईंट गारा ढोने का काम करती थीं, जंगल से लकड़ी और तेंदू पत्ता बीनती थीं, भरी दोपहरिया में दूसरों के खेतों में मजदूरी करती थीं, दिनभर खटने के बदले में इन्हें 10 से 100 रुपए दिहाड़ी मिलती थी। लेकिन अब ये महिलाएं मजदूर नहीं बल्कि सफल उद्यमी हैं। मजदूरी छोड़ अलग-अलग उद्यम की तरफ बढ़ रहीं झारखंड की ये महिलाएं देश में महिला सशक्तिकरण का अनूठा उदाहरण पेश कर रहीं हैं।
बाजार में सब्जी बेच रही राजमनी (46 वर्ष) तराजू में भिन्डी तौलती हुई मुस्कुराते हुए बताती है, "हफ़्ते में दो दिन बाजार में सब्जी बेचकर 1500-2000 तक कमा लेते हैं। जब भाव कम होता है तो हजार रुपए तो आराम से कमा लेते हैं। चार दिन खेतों में सब्जियों की देखरेख करती हूँ, दो दिन बाजार में सब्जी बेचती हूँ। आठ साल से अपना ही काम कर रही हूँ, अब मजदूरी करने नहीं जाती।" राजमनी की तरह इस बाजार में 70 से 80 फीसदी महिलाएं खेत में सब्जी उगाने से लेकर बेचने तक का काम बखूबी संभाल रही हैं।
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राजमनी के बच्चे अब बड़े होने लगे थे, घर का खर्चा मजदूरी से चलना अब मुश्किल हो रहा था। राजमनी ने मजदूरी छोड़ अपनी खेती की तरफ रुख किया पर पैसे के अभाव में इनके लिए बीज खरीदना ही मुश्किल था। राजमनी ने जो बचत की थी उसी बचत से सखी मंडल से लोन लेकर बीज खरीदे और खेती के नये तौर-तरीके सीखकर खेती करने लगीं।
अब ये हफ़्ते में दो दिन सब्जी बेचकर 2000 रुपए कमा लेती हैं, ये पशु सखी भी हैं जिससे महीने की 2500 से 5000 रुपए तक की आमदनी हो जाती है। जो महिला कभी दिन भर मजदूरी करके दिन का 10 रुपए ही कमाती थी आज वही महिला महीने का दस से पन्द्रह हजार रुपए अपने खुद के व्यवसाय से कमा लेती है।
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राजमनी झारखंड राज्य के रांची जिला मुख्यालय से लगभग 45 किलोमीटर दूर अनगड़ा ब्लॉक के बुकी बलोरा गांव की रहने वाली हैं। राजमनी 20 साल पहले गारा मिट्टी ढोने का काम करती थी या फिर दूसरों के खेतों में धान लगाती थी बदले में इन्हें दिन के 10 रुपए मजदूरी मिलती थी।
राजमनी ने बताया, "पहले 10 रुपए मजदूरी भी बहुत लगती थी, तब इतनी महंगाई नहीं थी। एक दिन दो तीन किलो चावल खरीद लेते थे वही हफ्ता भर माड़ भात खाते थे। सब्जी हीं बनती थी लेकिन उसी समय अपना पेट काटकर समूह में हफ़्ते के पांच रुपए जमा करने शुरू कर दिए। बचत करना मुश्किल था पर करती थी, धीरे-धीरे महंगाई तो बढ़ी लेकिन हमारी मजदूरी नहीं बढ़ी।"
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राजमनी झारखंड राज्य की पहली आदिवासी महिला नहीं है जिन्होंने सखी मंडल से लोन लिया हो और खुद का व्यवसाय शुरू किया हो बल्कि इनकी तरह देशभर में चल रही दीन दयाल अंत्योदय योजना के तहत केवल झारखंड राज्य में ही 15,733 गांवो में करीब 1,32,531 सखी मंडलों का गठन कर उन्हें आजीविका के साधनो से जोड़ा गया है। जिसमें से राजमनी एक हैं।
एक लाख से ज्यादा महिलाएं जो आजीविका के संसाधनों से जुड़ी हैं उनमे से कोई सब्जी की दुकान लगाता है तो कोई ब्यूटी पार्लर और कास्मेटिक की दुकान चलाता है, कोई कृषि मित्र है तो कोई पशु सखी है, कोई महिला रानी मिस्त्री है तो किसी ने सोलर मैकेनिक बन आमदनी का जरिया खोज निकाला है। झारखंड राज्य की अब ये महिलाएं दूसरों के यहां मजदूरी करने नहीं जाती हैं बल्कि गांव में रहकर ही अपने खुद के व्यवसाय से महीने का पांच से दस हजार रुपए आसानी से निकाल लेती हैं।
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देश भर में सरकार की चल रही महिला किसान परियोजना के अंतर्गत 22 राज्यों के 196 जिलों में 32.40 लाख महिलाएं लाभान्वित हुई हैं। स्टार्टअप विलेज ऑन्ट्रप्रनर प्रोग्राम के तहत देशभर में एक लाख 82 हजार उद्यमी तैयार किए गये हैं। इस परियोजना के अंतर्गत 24 राज्यों में 3 लाख 78 हजार ग्रामीणों को रोजगार से जोड़ा गया।
कास्मेटिक की दुकान चला रही सुगिया तिग्गा (42 वर्ष) ने खुश होकर कहा, "अपना काम है जब मन आता है दुकान खोल लेती हूँ जब मन आता है बंद कर देती हूँ। हफ़्ते में 20 रुपए सखी मंडल में बचत करती हूँ। जब दुकान में समान कम पड़ता है तो लोन लेकर दुकान भर लेती हूँ। जैसे-जैसे आमदनी होती है वैसे सारा पैसा चुका देती हूँ। हमारे पास किसी भी समय कम पैसे में कर्च लेने का एक ऐसा ठिकाना है जहां से बिना झिझक के कभी भी ले सकते हैं।"
राष्ट्रीय आजीविका मिशन के तहत झारखंड में 24 जिले के 215 प्रखंड के 15 लाख 96 हजार गरीब परिवारों को सखी मंडल से जोड़ा गया। दीन दयाल अंत्योदय योजना के तहत राज्य में 70,321 सखी मंडलों को बैंक ऋण उपलब्ध कराया गया। सात लाख से ज्यादा परिवारों की आजीविका को सशक्त किया गया।
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बाजार में सब्जी बेच रही अनीता देवी (26 वर्ष) ने अपने पुराने दिनों को याद करते हुआ मायूसी से बताया, "ईंट गारा ढोने का काम करते थे, जहां काम मिलता था वहीं जाना पड़ता था। आठ घंटे का 50 रुपए मिलता था क्योंकि हमारी उम्र उस समय बहुत कम थी इसलिए ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती थी। अपने आस पड़ोस की दीदियों को देखकर हम भी सखी मंडल से जुड़ गये।" समूह में जुड़ने के बाद अनीता को कई नई चीजों की जानकारी मिली।
अनीता ने कहा, "समूह से लोन लेकर पानी वाला टुल्लू मशीन लगाया। बाजार से अच्छा बीज खरीदा। पहले सब्जी थोक के भाव खरीदते थे तब बेचते थे, उस समय दिन के तीन सौ रुपए बच जाते थे। जबसे घर की खेती करने लगे तबसे दिन का हजार रुपए तक बच जाता है।"
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सखी मंडल से लोन लेकर ये महिलाएं न सिर्फ सफल उद्यमी बनी बल्कि अब ये दूसरी महिलाओं के लिए उदाहारण भी बनी हुई हैं। अब ये अपने बच्चों को मनपसंद स्कूल में उन्हें पढ़ा पाती हैं और उनके जरूरत के सामान उपलभ्ध करा पाती हैं। अब ये महिलाएं जरूरत पड़ने पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलातीं बल्कि जब जितने रुपए की इन्हें जरूरत पड़ती है कम ब्याज दर पर तुरंत समूह से पैसे ले लेती हैं।
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