“गांव में जब बुखार बढ़ना शुरू हुआ तो पहले एक-दो केस थे, फिर एक-एक परिवार में 3-4 लोग बीमार हो गए। हमारे गांव से सरकारी सिविल अस्पताल करीब 100 किलोमीटर दूर है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भी डॉक्टर हैं न दवाएं। कोरोना की गंभीरता देखते हुए मैंने अपने घर को ही छोटा अस्पताल बना दिया। अब तक करीब 5000 लोगों को बेसिक इलाज दे चुके हैं।” माया विश्वकर्मा ने बताया।
माया (38वर्ष) दिल्ली से करीब 900 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के मेहरागांव की मूल निवासी हैं। उनका गांव आदिवासी बाहुल्य रायसेन और होशंगाबाद जिले की सीमा पर बसा है। यहीं पर उन्होंने अपने घर को 10 बेड वाले अस्पताल में बदल रखा है। पिछले कई वर्षों से वो अमेरिका के कैलिफोर्निया में रह रहीं थीं।
वो आगे बताती हैं, “पिछले साल कोविड के दौरान मैं इंडिया में थी और इस बार फिर 19 जनवरी को इंडिया आ गई थी। मार्च में गांवों में केस आने शुरू हुए। शहर के अस्पतालों में बेड थे न डॉक्टर। हालात खराब हो रहे थे, ज्यादातर लोगों को मामूली लक्षण थे। समय पर दवा मिल जाए तो दिक्कत नहीं होती। इसलिए हमने पर जहां टेलिमेडिसन सेंटर चल रहा था वहां प्राथमिक इलाज का भी इंतजाम किया। मरीज बढ़ने पर घर पर बेड लगाए। भाप, ड्रिप चढ़ाने का इंतजाम किया।”
माया और उनके साथी पिछले साल कोविड के दौरान लॉकडाउन से प्रवासियों की मदद कर रहे हैं। उन्होंने आसपास के बहुत सारे गांवों में राहत सामग्री पहुंचाई थी, इसलिए इस बार दूर-दूर से लोग उनसे मदद मांगने भी आ रहे थे। इसके जरिए भी उन्हें पता चलता था कि किस गांव में लोगों को जुकाम-बुखार के ज्यादा मरीज हैं।
माया बताती हैं, “पिछले डेढ़ साल से मैं टेलीमेडिसिन सेंटर चला रही थी, मशीनें भी लगी थीं। इस बार केस बढ़ने पर मैंने सभी वालेंटियर को सक्रिय किया और काम में जुट गए। ऑक्सीमीटर, नॉर्मल दवाएं पहले से थीं। लोगों को आइसोलेशन में रहना सिखाया। बुखार-ऑक्सीजन की मॉनिटरिंग होने से लोगों को बहुत फायदा हुआ। कोविड की दूसरी लहर में हमारे यहां सर्दी बुखार वाले लक्षणों के तीनों जिलों के ग्रामीण आए हैं। बहुत लोगों को गांव जाकर दवाएं दी हैं। इस तरह 5000 से ज्यादा लोगों को सुविधाएं दी होगी।”
“हमारी पत्नी आरती (31वर्ष) की तबियत खराब हो गई। बहुत तेज बुखार आओ हतो। कहीं डॉक्टर ही नहीं थे तो मेहरागांव ले गए थे। वहां ग्लूकोज चढ़ाया गया, इंजेक्शन लगे फिर ठीक हुई। घर खाने की दवा दी, दवा दवा के 300 रुपए लगे थे।” माया के घर वाले हेल्थ सेंटर में कुछ दिन पहले इलाज कराने वाले गनेश नामदेव (38 वर्ष) कहते हैं। गनेश के मुताबिक जिन दिन वो अपनी पत्नी को लेकर पहुंचे थे वहां 15-20 और लोगों का इलाज चल रहा था।
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15 से 100 किमी पर भी अच्छा अस्पताल नहीं है-माया
अमेरिका जाने से पहले माया विश्वकर्मा दिल्ली स्थित एम्स में रिसर्च फेलोशिप कर चुकी हैं। वो बताती हैं, ” मैंने ऑल इंडिया मेडिकल साइंस में रिसर्च फेलो के रूप में काम किया है। वहां से फिर अमेरिका गई और कई बड़ी कंपनियों और संस्थाओं के साथ काम किया। एम्स में काम करते हुए मेरी मरीजों से बहुत सहानुभूति रही। मैं अक्सर सोचती थी कि काश मैं डॉक्टर बन पाती। डॉक्टर नहीं, लेकिन साइंटिस्ट जरूर बन गई। अमेरिका में 2-3 किलोमीटर पर हेल्थ सेवाएं हैं। हमारे यहां 15 से 100 किलोमीटर पर अच्छा अस्पताल नहीं। इसलिए मैंने हेल्थ सेक्टर में काम शुरू किया।”
करीब 6 साल पहले माया अमेरिका से इंडिया लौटी और अपनी जन्म भूमि गांव में गैर सरकारी संगठन सुकर्मा फाउंडेशन बनाकर महिलाओं की हेल्थ और जागरूकता पर काम शुरू किया। कई लोग उन्हें मध्य प्रदेश की पैड वुमेन भी कहते हैं। माया के पति अमेरिका के कैर्लीफोनिया में रहते हैं, साल के कुछ महीने वो वहां रहती हैं।
“शुरु में मेरा आइडिया सिर्फ इतना भर था कि जिस गांव में मेरा जन्म हुआ, वहां के आसपास के लोगों को सुविधाएं मिल जाए। क्योंकि ये बहुत पिछड़ा गांव है। जिले का आखिरी गांव है तो स्वास्थ्य सेवाएं नहीं है। मेरे गांव में प्राइमरी हेल्थ सेंटर भी 15 किलोमीटर दूर है। वहां का डॉक्टर भी प्राइवेट में मरीज देखता था। कई बार ऐसा हुआ कि हमारे गांव से शहर जाते वक्त मरीज की रास्ते में मौत हो गई।”
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माया के मुताबिक अभी किसी मरीज से कोई डॉक्टरी फीस नहीं ली जाती है। कुछ दवाओं को छोड़कर बाकी मुफ्त हैं। पैसा इसलिए अभी नहीं ले रहे क्योंकि आदिवासी इलाका है। मरीज को आने में झिझक न हो। हमने ऑक्सीजन कंसस्टेट्रर का भी इंतजाम किया है। इस दौरान जो खर्च आता है उसे सुकर्मा फाउंडेशन देता है।
“अब तक करीब 5 लाख खर्च हुए हैं, लेकिन खर्च की ज्यादा टेंशन नहीं है। क्योंकि जो डॉक्टर टेलीमेडिसिन के जरिए दवाएं देते हैं वो उस कंपनी के हैं, जिसने मशीनें लगाई हैं। साल में 2-3 लाख उन्हें देने होते हैं। बाकी दवाएं और दूसरे खर्च के लिए बाहर के लोग भी सहयोग करते हैं। इस वक्त 2 नर्स मिलाकर 12 वालेंटियर का स्टाफ है। हम गांव भी जाते हैं, फोन पर भी परामर्श देते हैं। इसके अलावा मेरे कुछ मित्र डॉक्टर भी हैं, जो जरुरत होने पर ऑनलाइन और मोबाइल पर इमरजेंसी केस देखते हैं।” माया बताती हैं।
लोगों ने जो काम किया, उससे कितने हालात बदले? इस पर माया कहती हैं,” दो महीने से बहुत सक्रिय होकर हम लोगों ने काम किया है। हमारी कोशिश है कोई बीमार न हो, अगर हो तो इलाज और दवा के लिए बाहर न जाए। आसपास के कई गांवों में गिनती के लोगों की मौत हुई होगी, वो भी ऐसे लोग थे, जिन्होंने लक्षणों के छुपाया या बताया ही नहीं। वर्ना ज्यादातर लोग ठीक हो गए हैं।”