गोरखपुर। हम आप जब अपने घरों से बाहर निकलते हैं अक्सर सड़क किनारे कुछ बच्चे कूड़ा-कचरा बीनते हैं, कई बार हम उनकी तरफ देखते तक नहीं, और देख लिया तो कार या बाइक की स्पीड बढ़ा लेते हैं। शहरों में कचरा उठाने आने वाले लोगों के साथ अक्सर उनके बच्चे होते हैं, हम उन्हें देखते हैं और अक्सर दीनहीन समझ आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन इनकी मदद के लिए हाथ बहुत कम लोग बढ़ाते हैं।
गोरखपुर में भी ऐसे बहुत सारे बच्चे हैं, जो कचरा बीनते हैं। लोगों के घरों से कूड़ा-करकट उठाकर लाते हैं। लेकिन ये बच्चे स्कूल भी जाते हैं। गोरखपुर शहर से 4 किलोमीटर दूर राप्ती नदी के किनारे बसी राजघाट बस्ती में ऐसा ही एक स्कूल है। जहां पढ़ने वाले सभी बच्चे रैग पिकर्स यानी कूड़ा-कचरा बीनने वाले हैं।
“दो एकम दो, दो दूनी चार, दो तियां छ” पढ़ते उमर सलाम को एबीसीडी के साथ 100 तक गिनती भी याद हैं। उमर की उम्र 8 साल है वो उसके जैसे यहां करीब 45 बच्चे पढ़ते हैं। गांव कनेक्शन का कैमरा स्कूल पहुंचा तो उमर में पहले कुछ झिझक दिखी लेकिन बाद में स्कूल और घर की खूब बातें की।
“सुबह कचरा बीनते थे, खाली दिनभर इधर-उधर घूमते रहते थे अब ये यहां आकर पढ़ाई करते हैं। पहले ये लोग गंदे भी रहते थे, लेकिन जब से स्कूल आने लगे हैं साफ सुथरे रहते हैं अच्छी भाषा बोलते हैं, बहुत कुछ बदल गया है इनमें।” इन बच्चों को पढ़ाने वाली अध्यापिका नीता साहनी बताती हैं।
राजघाट बस्ती को कूड़े वाली बस्ती भी कहा जाता है। ये स्कूल रोज दोपहर 3 बजे से पांच बजे तक चलता है। इसी बस्ती की एक लड़की से जब नाम पूछा तो वो अंग्रेजी में बताती है माई नेम इज प्रीती वर्मा और फिर 1 से लेकर 100 तक की गिनती अंग्रेजी में सुनाती है टीचर बनने का सपना देखती हैं प्रीती।
प्रीति और उमर जैसे बच्चों के हाथों में कूडे वाले झोले हटाकर किताबे थमाने के लिए शहर के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने साढ़े 4 साल पहले इस स्कूल की शुरुआत की थी।
“अपने मां बाप के साथ कूड़ा बीनने जाते थे वापस आकर पूरा दिन खाली रहते थे। खाली होने की वजह से उनमें आसामजिक प्रवृत्तियां आती थीं, इस बस्ती के कई बच्चे गलत कार्यों में भी लिप्त पाए गए थे। इन बच्चों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए मेरे पिता स्वर्गीय पीके लाहिड़ी ने अपने मित्र स्वीर्गीय ख़ेतान जी के साथ मिलकर इसी बस्ती में एक झोपड़ी में शुरुआत की थी।” अचिंत लहिड़ी बताते हैं। अंचित एक तरह से अब इस स्कूल के अभिभावक और कर्ताधर्ता हैं।
“हमारा उद्देश्य है कि बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान देना ही नहीं बल्कि, बल्कि उन्हें मानवीय मूल्यों को समझाना है। उनके अंदर साफ सफाई, अच्छे से बात करने की आदत को विकसित करना है। विचार अच्छे हो जाएंगे तो आगे चलकर ये न सिर्फ खुद बदलेंगे बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करेंगे।” अचिंत आगे जोड़ते हैं।
लोगों के आर्थिक सहयोग से चलने वाले इस स्कूल में 45 से अधिक बच्चे आते हैं। उनसे किसी तरह की कोई फीस नहीं ली जाती है। बच्चों की कापी किताब औऱ बाकि तरह के पढ़ाई में आने वाले खर्चों को लोगों के द्वारा दी जाने वाली मदद से पूरा हो जाता है। अचिंत के मुताबिक स्कूल के बढ़े कई बच्चे अब बड़े स्कूलों में जाने लगे हैं, वो भी बाकायदा प्रवेश परीक्षा पास करके। इनका खर्च भी वो लोग मिलकर उठाते हैं। अचिंत चाहते हैं कि स्कूल में अलग कमरा बन जाए ताकि बहुत छोटे बच्चों को अलग से पढ़ाया जा सके।