लेखक, थियेटर कलाकार और गोंड आर्ट पेंटर बन रहे हैं 'शिकारी' जनजाति पारधी के बच्चे

पारधी एक गैर-अधिसूचित खानाबदोश समुदाय, सामाजिक कलंक का सामना कर रहा है। इसके अधिकांश सदस्य कचरे को इकट्ठा करने या चूड़ियां बेचने के लिए घूमते हैं। भोपाल में अरण्यवास पारधी बच्चों को मुफ्त में रख रहा और पढ़ाई में उनकी मदद कर रहा। यही बच्‍चे अब कहानी लेखकों और कलाकारों के रूप में 'शिकारी जनजाति' के दाग को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं।

Satish MalviyaSatish Malviya   13 Sep 2022 7:21 AM GMT

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सुनैना 15 साल की हैं और मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहती हैं। सुनैना विदिशा जिले के एक जंगल के बगल में बड़ीवीर गाँव में रहती थी और दिन भर घूमती रहती थी, जंगलों से जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करती, पक्षियों का शिकार करती या फल और जामुन बीनती।

"जबकि गाँव के स्कूल में हमारा एडमिशन था। लेकिन हम वहां कभी नहीं पढ़ सके। हम पूरे दिन जंगल में घूमते थे, "सुनैना ने गाँव कनेक्शन को बताया।

लेकिन यह सब एक दशक पुरानी बात है। अब 15 साल की सुनैना को अब लिखने का शौक है और उनकी कई कहानियां हिंदी में एकतारा और चकमक प्रकाशन में प्रकाशित हो चुकी हैं। आज वो भोपाल के एक आईटीआई (औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान) में पढ़ रही हैं।

सुनैना की छोटी बहन, 13 वर्षीय जया भी जंगल में घूमती थी, वह भी अब भोपाल में पढ़ रही और दसवीं कक्षा में है। "मुझे थिएटर करना पसंद है और मैं इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन), थिएटर ग्रुप के साथ कई जगहों पर परफॉर्म भी कर चुकी हूं, "उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया।


सुनैना और जया की कहानी बेहद प्रेरणादायक और गर्व की बात है क्योंकि ये बहनें मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में हाई स्कूल तक पढ़ने वाली पहली दो पारधी लड़कियां हैं। पारधी एक गैर-अधिसूचित जनजाति है जो कम उम्र में बाल विवाह (10-12 वर्ष) के लिए बदनाम है।

अगर भोपाल स्थित गैर-लाभकारी संगठन अरण्यवास नहीं होता तो सुनैना और जया की शादी भी हो सकती थी। लेकिन पिछले एक दशक से पारधी बहनें अरण्यवास द्वारा संचालित होम-कम-हॉस्टल में रह रही हैं जो विशेष रूप से पारधी समुदाय के बच्चों के लिए है।

अरण्यवास की निदेशक अर्चना शर्मा ने गाँव कनेक्शन को बताया, "अरण्यवास पांच से 14 साल की उम्र के पारधी बच्चों के साथ-साथ गैर-अधिसूचित समुदायों के बच्चों के लिए एक हॉस्टल चलाता है, जो यहां पढ़ाई के लिए भोपाल में रहते हैं।" अरण्यवास जैव विविधता संरक्षण के क्षेत्र में काम करता है और पारधी समुदाय, पारंपरिक रूप से खानाबदोश शिकार जनजाति होने के कारण वनस्पतियों और जीवों का ज्ञान समेटे हुए है।

पारधी समुदाय कभी वन क्षेत्रों में रहता था और उनकी जीविका और आजीविका वन उपज के शिकार और व्यापार पर निर्भर थी। इस समुदाय के सदस्य मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में रहते हैं। शर्मा ने कहा कि पारधी हाशिए पर (सामाजिक कलंक) से अधिक हैं, किसी भी पुनर्वास योजना का हिस्सा नहीं हैं और सीमित जीवन जीते हैं।

"वे बहुत अनिश्चित जीवन जीते हैं, और, जब से 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया था, उन्हें अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और अब वे जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, "वे आगे कहती हैं।

"हमने सीखा कि इस जनजाति के बच्चों को आगे पढ़ाई के लिए गाँव के स्कूलों में जगह नहीं मिल पा रही है। उन्हें दूसरों से भेदभाव और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है, जिसके चलते वे शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए हैं। हमने इसे बदलने का फैसला किया, "अरण्यवास की निदेशक ने कहा।

पारधी बच्चों के लिए एक घर, अरण्यवास

घुमंतू और गैर-अधिसूचित जनजातियों के बच्चों के लिए छात्रावास के रूप में काम करने के लिए लगभग ग्यारह साल पहले अरण्यवास की स्थापना की गई थी। ये बच्चे अरण्यवास में फ्री में रहते हैं।

शर्मा ने कहा, "हमने इस छात्रावास की शुरुआत सिर्फ दो बच्चों के साथ की थी और अब हमारे पास 30 बच्चे हैं जो पूरे मध्य प्रदेश से आते हैं।" उन्होंने कहा कि इन बच्चों के माता-पिता गाँव-गाँव जाकर चूड़ियां, जड़ी-बूटियां बेचते हैं या प्लास्टिक बिना करते हैं।

अरण्यवास में प्रयास बच्चों को सहज करने का है। "हम उन्हें जैव विविधता की रक्षा के लिए प्रकृति के प्रति अपने ज्ञान और प्रेम का पोषण करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हम सुनिश्चित करते हैं कि वे अपनी भाषा और सांस्कृतिक पहचान के संपर्क में रहें।"

17 वर्षीय उमेश को अरण्यवास में रहकर आदिवासी कला की गोंड शैली को अपनाने का मौका मिला। "कुछ साल पहले एक गोंड कलाकार हमारे छात्रावास में आया था और उसने हमें चार दिनों में काफी कुछ सिखाया। इसके बाद मैंने भोपाल के आदिवासी संग्रहालय में छह दिवसीय गोंड पेंटिंग वर्कशॉप में हिस्सा लिया।"

उमेश अब कैनवास पर अच्छे से पेंट करते हैं। उन्होंने कहा, "जंगलों का मेरा अनुभव, उसमें रहने वाले जीव, जो कुछ मैंने वहां देखा है, मैं उसे अपने ब्रश से कैनवास पर उतारने की कोशिश करता हूं।" उमेश ने तीन साल पहले अपने पिता को टीबी से खो दिया था और उनकी माँ चूड़ियां बेचने के लिए गाँव-गाँव जाती थी।


"छात्रावास में आने वाले बच्चों को शुरुआती समस्याएं थीं। हमें भी उन्हें समझने में थोड़ा वक्त लगा। अरण्यवास छात्रावास की वार्डन पूजा परमार ने गाँव कनेक्शन को बताया कि उन्होंने भाषा को समझने में समय लिया क्योंकि वे केवल पारधी बोली ही जानते थे।

"ये बच्चे अन्य बच्चों की तरह नहीं हैं जो अपने माता-पिता की देखरेख और संरक्षण में एक ही स्थान पर बड़े होते हैं। पारधी बच्चे मुक्त-उत्साही होते हैं, बार-बार घूमने के आदी होते हैं। उन्हें एक स्थान तक सीमित रखना सबसे बड़ी चुनौती रही है, "परमार ने कहा। लेकिन वे उज्ज्वल, सतर्क और सबक लेने में तेज थे, उन्‍होंने कहा।

अरण्यवास छात्रावास में रहने वाले प्राथमिक और मध्य विद्यालय के बच्चे भोपाल के बावड़िया कलां स्थित शासकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में पढ़ते हैं।

स्कूल के प्रभारी शिक्षक अरविंद श्रीवास्तव ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हमारे शिक्षक पारधी समुदाय के बच्चों पर विशेष ध्यान देते हैं।" "किसी भी अन्य बच्चों की तरह कुछ ऐसे भी हैं जो पढ़ाई में अच्छे हैं और अन्य जो खेल में आगे हैं। वे यहां शिक्षा प्राप्त करने के लिए हैं ताकि वे एक आपराधिक जनजाति से होने के टैग को मिटा सकें, "श्रीवास्तव ने कहा।

आपराधिक जनजाति और बाल विवाह का दाग

अंग्रेजों ने 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के माध्यम से पारधी समुदाय को एक आपराधिक जनजाति घोषित किया था। स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने 1952 में जनजाति को गैर-अधिसूचित कर दिया था, लेकिन सात दशक बाद भी पारधी समुदाय अभी भी हाशिए पर है और सामाजिक कलंक का सामना कर रहा है।

अरण्यवास के निदेशक शर्मा ने कहा, "आपराधिक जनजाति के टैग के परिणामस्वरूप, पारधियों को नीच और खतरनाक रूप में देखा जाता था।" उन्हें शिक्षा, रोजगार और बुनियादी ढांचे तक पहुंच से वंचित रखा गया था। उन्होंने कहा कि वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में भी नहीं आते हैं।


"समुदाय किसी भी कानूनी पहचान से वंचित था और धीरे-धीरे यह समाज हासिए से बाहर हो गया। समुदाय अपने आप में वापस आ गया है और अपनी दुनिया में रह रहा है," शर्मा ने कहा।

परंपरागत रूप से पारधी समुदाय की लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में कर दी जाती है। शर्मा ने कहा, "हमारे प्रयासों के बावजूद लड़कियों को 12 या 13 साल की उम्र में हमारे छात्रावास से बाहर निकाल दिया जाता है और जब वे आठवीं या नौवीं कक्षा तक पढ़ती हैं तो उनकी शादी कर दी जाती है।" उन्होंने बताया कि बच्चों पर शादी करने का दबाव होता है और बदले में उनके माता-पिता उनके समाज पर दबाव डालते हैं।

शर्मा ने कहा कि हालांकि यह खेद का कारण है, जिन्होंने कम से कम आठवीं या नौवीं तक पढ़ाई की है, उन्होंने कुछ शिक्षा प्राप्त की है। शर्मा ने कहा, "एक ऐसे समुदाय में जहां महिलाएं पूरी तरह से अशिक्षित हैं, यह एक सुधार है।"

"कुछ पारधी लोगों के साथ बातचीत से पता चला कि कैसे वे अभी भी बहुत आसान टारगेट है। उन्हें लगा कि केवल शिक्षा ही उनके और दूसरों के बीच की खाई को कम कर सकती है और उन्हें समान अवसर और सम्मान दे सकती है," शर्मा ने कहा। शर्मा ने निष्कर्ष निकाला, "पारधी समुदाय ने भी अरण्यवास पर अपना भरोसा रखा है और अपने बच्चों को यहां रहने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा है।"

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