कभी एक वक्त की रोटी के लिए जंगल में भटकती थीं आज 1200 महिलाओं को दे रहीं हैं रोजगार

साधारण सी दिखने वाली आरती राना कभी पेट भरने के लिए तालाब से मछली पकड़ती थीं, रोटी बनाने के लिए जंगल में भटककर लकड़ियां बीनकर लाती थीं, लेकिन आज इन्होंने न सिर्फ खुद का बल्कि थारू समुदाय की 1200 से ज्यादा महिलाओं को हैंडीक्राफ्ट उत्पाद बनाने का मौका देकर उनके भविष्य को संवार रही हैं।
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ढलते सूरज के साथ खेत से गेहूं की कटाई करके वापस लौटीं आरती राना दरवाजे के सहारे खड़ी होकर बताती हैं, “पहले हम भी दिनभर जंगल में मछली पकड़ते थे, जलावन (लकड़ी) बीनते थे, ताकि शाम का चूल्हा जल सके। पर आज तो न जाने कहाँ-कहाँ से लोग हमारे घर का पता पूछकर हमसे मिलने आते हैं।”

34 वर्षीय आरती राना मूलरूप से यूपी के सबसे बड़े जिले लखीमपुर खीरी जिला मुख्यालय से लगभग 100 किलोमीटर दूर पलिया ब्लॉक के गोबरौला गांव की रहने वाली हैं, इनका गांव थारूओं के 46 गांवों में से एक है। पलिया ब्लॉक के तराई क्षेत्र में नेपाल से सटे थारू समुदाय के 46 गांव हैं। इन्होंने अब तक अपने थारू समुदाय की 1200 से ज्यादा महिलाओं को रोजगार से जोड़ा हैं। इन्हें साल 2016 में रानी लक्ष्मीबाई जैसे प्रतिष्ठित अवॉर्ड से भी नवाजा जा चुका है। इनके यहां का बना हैंडीक्राफ्ट उत्पाद देश के कई बड़े-बड़े शोरूम में बिकता है।

इनके घर के बाहर एक दीवार में बड़े अक्षरों में पेंट से लिखा है, ‘थारू हथकरघा घरेलू उद्योग समूह’ गोबरौला, सहयोग- विश्व प्रकृति निधि भारत (WWF) एवं टाईगर रिजर्व। आरती लिखे हुए शब्दों की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, “हमारे यहां पहले एक ही लूम (हैंडलूम) लगा था, हमारे पास ज्यादा पैसे नहीं थे। बाहर से जो भी घूमने आते और जिन्हें पता चलता कि मैं हैंडीक्राफ्ट बनाती हूं तो वो मेरे पास सामान खरीदने आते थे।”

आरती राना ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं लेकिन आज बड़े-बड़े मंचों पर जाकर अपनी सफलता की कहानी बताती हैं. फोटो : नीतू सिंह 

“दुधवा नैशनल पार्क में 2008 में डब्लूडब्लूएफ (WWF) की एक टीम विजिट करने आई थी, जब उन्होंने बरसात में पानी से टपकता हमारा घर देखा, जहां एक लूम लगा हुआ था। उन्होंने हमसे पूछा कि हम आपकी क्या मदद कर सकते हैं? मैं कुछ बोल ही नहीं पायी,” आरती ने बताया।

जूट से बने कई तरह के हस्तनिर्मित सामान को दिखाते हुए आरती बोलीं, “उसी समय डब्लूडब्लूएफ (विश्व प्रकृति निधि भारत) वालों ने हमें मदद की। उन्होंने हमारे घर में ही एक टीन सेट डलवाया और पांच लूम लगवाई, जिससे हम ज्यादा से ज्यादा सामान बना सकें।”

ट्राइब्स इंडिया आरती राना से 10 साल से खरीद रहा समान

ट्राइब्स इंडिया एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म है, जो जनजातीय कारीगरों और उनके उत्पादों को वैश्विक ई-मार्केट प्लेटफार्म पर लाने का काम करता है, जिससे बिचौलिये का खात्मा हो सके और जनजातीय कारीगरों को सीधा लाभ मिल सके।

देहरादून में रहने वाले ट्राईफेड-ट्राइब्स इंडिया के रीजनल मैनेजर अल्ताफ अहमद अंसारी ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया, “आरती राना काफी अच्छा काम कर रही हैं। पिछले 10 साल से हमारा उनसे कोलेबरेशन है। उनसे और उनकी महिलाओं द्वारा बनाया सामान हम सीधे खरीदते हैं, जो देश के हर राज्य में जाता है, जहाँ ट्राइब्स इंडिया का शोरूम बना है।”

आरती के बनाये कुछ सामान का ये नमूना है. 

आप साल में लगभग कितने रूपये का सामान खरीदते होंगे? इस पर अंसारी कहते हैं, “ऐसा कोई फिक्स अमाउंट नहीं है, मांग के अनुसार हम समान खरीदते हैं।”

आरती जूट से बनी सैंडिल और बैग दिखाते हुए बोलीं, “हमारे पास ट्राइब्स इण्डिया की इतनी मांग आती है कि हम उतना सामान ही कई बार नहीं बना पाते। कभी-कभी मेरी आमदनी महीने की एक लाख रूपये भी हो जाती है, तो कई बार ये 10,000-15,000 रूपये तक ही रह जाती है।”

सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी किया सम्मानित

यूपी राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत पलिया के ब्लॉक मिशन मैनेजर श्रीदेव सक्सेना ने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया, “जो महिलाएं अंगूठा नहीं लगा पाती थी, आज वो महिलाएं अधिकारियों से बात करती हैं। ये हर महीने 100 रूपये अपने-अपने स्वयं सहायता समूह में जमा करती हैं। एक समूह में 10 से 15 महिलाएं होती हैं। आरती राना को राज्य स्तर पर दो बार सम्मानित भी किया जा चुका है। इनके सक्रिय कामों को देखते हुए इस बार यूपी सरकार द्वारा इन्हें इस साल आठ मार्च को लखनऊ में ‘मिशन शक्ति अभियान’ के तहत मुख्यमंत्री ने सम्मानित किया था। थारू महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए इन्हें 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी रानी लक्ष्मीबाई पुरस्कार से सम्मानित किया था।”

यूपी राष्ट्रीय आजीविका ग्रामीण मिशन ने 2015 में इन महिलाओं के बनवाये स्वयं सहायता समूह

आरती राना वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जुड़कर थारू महिलाओं को स्वयं सहायता समूह से जोड़ रही हैं। आरती अब तक 350 स्वयं सहायता समूह बना चुकी हैं। जिसमें ये 3600 से ज्यादा महिलाओं को जोड़कर थारू जनजाति को राष्ट्रीय पहचान देने का कार्य रही हैं।

आरती बताती हैं, “अभी 1200 महिलाओं को ही रेगुलर काम दे पा रही हूं। महिलाओं के सामान बनाने के अनुसार उनकी आमदनी बढ़ रही है। कोई महिला महीने का 3,000 रूपये कमाती है तो कोई 12,000 रुपये कमा लेती है। कुछ महिलाएं यहां सेंटर पर सुबह 10 बजे से शाम चार बजे तक काम करती हैं, पर ज्यादातर अपने घर पर ही रहकर सामान बनाकर भेज देती हैं।”

ये हैं लूम्स जो आरती ने अपने घर के एक कमरे में लगा रखे हैं जहाँ कुछ महिलाएं काम करने आती हैं. फोटो : नीतू सिंह 

आरती को मिला वर्ष 2016 में रानी लक्ष्मीबाई अवॉर्ड

यूपी सरकार द्वारा हर वर्ष आठ मार्च को उन महिलाओं को सम्मानित किया जाता है, जो महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए लीक से हटकर काम करती हैं। आरती को उनके काम के लिए वर्ष 2016 में उन्हें रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार भी मिल चुका है।

आरती बनाती हैं कई तरह के हस्तनिर्मित उत्पाद

थारू बाहुल्य गांवों में मूलभूत सुविधाओं का भले ही अभाव हो, लेकिन यहां की गांवों में हस्तशिल्प कला ने विशिष्ट पहचान बना रखी है। आरती की लीडरशिप में 1200 महिलाएं हस्तशिल्प निर्मित तमाम तरह के उत्पाद बनाती हैं। ये जूट के बैग, सैंडिल, मोबाइल कवर, कैप, पेपर स्टैंड, मैगजीन बैग, वॉल हैंगिंग बैग, पायदान, फ्लावर पॉट, रोटी की टोकरी, फूल टोकरी, डलिया आदि बनाती हैं।

इसके अलावा ये हैंडलूम से निर्मित बेडशीट, कुशन, हाथ का पंखा, पारंपरिक थारू ड्रेस, इंब्रायडरी साड़ी, बंदनवार, बांस के बने पंखे, लकड़ी की चौकी और झूला जैसे सामान बनाती हैं।

दिल्ली से लेकर लखनऊ तक बज चुका है डंका

आरती और इनसे जुड़ी महिलाओं द्वारा दिल्ली, गोवा समेत देश के कई राज्यों में लगने वाले हुनर हाट में ये अपना स्टाल लगा चुकी है. लखनऊ के अवध शिल्प ग्राम में इस वर्ष लगने वाले हुनर हाट में आरती का भी स्टाल लगा था जिसमें जिसमें आरती और पूजा राना ने प्रदर्शनी में पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जूट से बनी हैट भी पहनाई थी। कई प्रदर्शनियों में इनके द्वारा हस्तशिल्प कला से निर्मित थारू उत्पादों का डंका बज चुका है।

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