वोकल फॉर लोकल का जीता-जागता उदाहरण हैं ये झारखंडी गुड़िया, शोभा ने 45 आदिवासी महिलाओं को दिया रोजगार, महीने कमाती हैं 8,000-25,000 रुपए

विलुप्त होती झारखंडी संस्कृति को बीते 15 वर्षों से संजोने में जुटी हैं शोभा कुमारी। इनकी बनाई हस्त निर्मित, इको फ्रेंडली गुड़ियों की मांग विदेशों तक में है। शोभा ने 45 आदिवासी महिलाओं के हुनर को तराश कर उन्हें रोजगार से जोड़ा है। ये महिलाएं महीने का अब 8,000-25,000 रुपए कमा लेती हैं।

Neetu SinghNeetu Singh   14 Jan 2021 4:14 PM GMT

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वोकल फॉर लोकल का जीता-जागता उदाहरण हैं ये झारखंडी गुड़िया, शोभा ने 45 आदिवासी महिलाओं को दिया रोजगार, महीने कमाती हैं 8,000-25,000 रुपए

जंगल से सर पर लकड़ी का गट्ठर रखे और पीठ में बच्चे को बांधे एक आदिवासी महिला, सूप से धान साफ़ करती एक महिला, तराजू से सामान तौलता एक किसान, गले में झारखंडी हसुली, बालों में गजरा और पैरों में कड़ा ... झारखंड की ऐसी अनगिनत झवियों को गुड्डे-गुड़ियों में उकेर रही हैं शोभा कुमारी। इन्हें देखकर आपको ऐसा लगेगा कि अब ये बोल पड़ेंगी।

बचपन से गुड्डे-गुड़िया बनाने का शौक रखने वाली उन्चास वर्षीय शोभा कुमारी को ये अंदाजा भी नहीं था कि एक उनका ये शौक कभी उन्हें एक कंपनी का मालकिन बना देगा। शोभा कुमारी द्वारा हस्त निर्मित बनी इन इको फ्रेंडली गुड़ियों की मांग देश- विदेश में है। वोकल फॉर लोकल की जीती-जागती मिसाल है ये 'झारखंडी गुड़िया'। ये गुड़िया आकर्षण का केंद्र इसलिए भी हैं क्योंकि इनमे झारखंडी संस्कृति को उकेरा गया है।

रांची के न्यू अलकापुरी में रहने वाली शोभा कुमारी गाँव कनेक्शन को फोन पर बताती हैं, "मुझे 13 साल की उम्र से गुड्डे-गुड़िया बनाने का शौक था पर कभी ये नहीं सोचा था कि लोग हमारी बनाई गुड़ियों को इतना पसंद करेंगे। झारखंड में तो लोग खरीदते ही हैं विदेशों में भी लोग मंगवाते हैं। मेरी सिखाई 10 महिलाएं खुद के बिजनेस की मालकिन बन गयी हैं। ये महीने के 20,000-25,000 रुपए कमा लेती हैं। अभी 35 महिलाएं हमारे साथ काम कर रही हैं जो महीने के 10,000-12,000 रुपए कमा लेती हैं।"


मिट्टी और बुरादे से बनी ये गुड़िया दुनियाभर में प्रसिद्ध बेबीडॉल (बार्बी) को कड़ी प्रतिस्पर्द्धा दे सकती हैं, बशर्ते इसे ग्लोबल किया जाए। शोभा के अनुसार इन गुड़ियों की मार्केटिंग का जिस तरह से प्लेटफ़ॉर्म मिलना चाहिए वो नहीं मिला है। इस एक गुड़िया बनाने में 20-25 घंटे लगते हैं। जिस वजह से ये थोड़ी महंगी हैं। इसमें लागत खर्चा तो बहुत कम है पर मेहनत बहुत ज्यादा है। एक गुड़िया की कीमत 500-15,000 रुपए तक है। 35 महिलाओं का ये समूह सिर्फ मिलकर बिजनेस ही नहीं करतीं बल्कि एक दूसरे के सु:ख-दुःख में मदद भी करती हैं।

शोभा कुमारी बताती हैं, "हर महिला में एक हुनर होता है बस उसे तराशने की जरुरत है। मैं ज्यादा बड़ी बात नहीं करती पर इतना जरुर विश्वास दिलाती हूँ कि यदि कोई महिला मेरे यहाँ सीखने आये तो हम उसे तीन महीने की ट्रेनिंग में उसे इस योग्य बना देंगे जिससे वो महीने के 8,000-10,000 रुपए आसानी से कमा सकती है। जो सक्षम नहीं हैं उन्हें नि:शुल्क ट्रेनिंग देते हैं जो पैसे दे सकते हैं उनसे पैसे ले लेते हैं।"

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2020 के अंतिम में कार्यक्रम 'मन की बात' में संबोधित करते हुए किया था कि हमें वोकल फॉर लोकल की भावना को बनाये रखना है, बचाए रखना है, और बढ़ाते ही रहना है। देश में नया सामर्थ्य पैदा हुआ है, जिसका नाम आत्मनिर्भरता है। आप हर साल न्यू ईयर रेजोल्यूशन लेते हैं, इस बार वोकल फॉर लोकल की भावना बनाए रखने का रेजोल्यूशन लें।


शोभा कुमारी द्वारा बनाई 'झारखंडी गुड़िया' वोकल फॉर लोकल की जीती-जागती मिसाल हैं। शोभा ने अपनी बनाई इन गुड़ियों को कई जगह म्यूजियम में भी रखा है जिसमें उनका संपर्क नम्बर पड़ा है। यहाँ घूमने आये लोग इन्हें फोन करके ये गुड़िया मंगवाते हैं। शोभा एक हजार से ज्यादा महिलाओं को प्रशिक्षण भी दे चुकी हैं। शोभा को इन गुड़ियों की मार्केटिंग की हमेशा दिक्कत रही है लेकिन 25 अगस्त 2020 से इनकी मार्केटिंग की मुश्किलें खतम हो गयी हैं।

शोभा कहती हैं, "लोकल फॉर वोकल कार्यक्रम के तहत यहाँ के सांसद संजय सेठ जी मुझसे मिलने आये थे तबसे लगातार मीडिया में हमारी खूब चर्चा हुई। इस काम को बहुत साल से कर रहे थे लेकिन इसे सही मायने में लोगों ने जब जाना जब सांसद महोदय हमारे यहाँ आये। अभी हमारे पास पांच-छह महीने तक का ऑर्डर है। हम छह महीने बाद ही कोई दूसरा ऑर्डर लेने की स्थिति में होंगे। मैं सांसद महोदय को बहुत शुक्रिया कहना चाहूंगी कि आपके आगमन की वजह से आज हमें अच्छी मार्केटिंग मिल गयी है।"


इनकी गुड़ियों के सृजन में पूरी तरह स्थानीयता की झलक है। माथे पर नेठो के ऊपर मिट्टी का घड़ा लिए लाल पाड़ साड़ी में सांवली-सलोनी युवती बरबस ही ध्यान खींच लेती है। वहीं धोती, कुर्ता, गमझा में युवक हरी-पीली-गुलाबी ड्रेस में घुंघरू पहने तलवार और ढाल के साथ वीरभूमि झारखंड की कला और गौरव का बखान करते हैं।

इनके यहाँ बीते आठ सालों से काम कर रहीं पैंतालीस वर्षीय सुशीला देवी कहती हैं, "महीने का 10,000 से 12,000 रुपए कमा लेती हूँ। गुड़िया बनाने के अलावा यहाँ अचार, पापड़ और बड़ी सब बनता हैं। जरुरी नहीं कि जो महिला गुड़िया नहीं बना सकती उसे यहाँ काम न मिले। जो भी काम करना उसे आता है वो उसे और अच्छे तरीके से सिखा दिया जाता है जिसकी बाजार में मांग हो। जिन महिलाओं के बच्चे कोरोना में स्कूल बंद होने से स्कूल नहीं जा रहे उन्हें यहाँ पर फ्री में वो महिलाएं ट्यूशन भी पढ़ा देती हैं जो पढ़ी-लिखी हैं।"

    

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