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ख़राब हवा के कारण भी गाँवों में बढ़ रहे हैं ख़ुदकुशी के मामले

अमेरिका और इंग्लैण्ड के विश्वविद्यालयों में वायु प्रदूषण को लेकर हुए रिसर्च में ये सामने आया है कि इसके बुरे प्रभाव से गाँवों में न सिर्फ फेफड़ों की बीमारी बढ़ रही है बल्कि आत्महत्या के मामले भी बढ़ते हैं।
#Air pollution

अगर आपसे कहा जाए कि किसी को अपनी जान लेने से आप कैसे रोक सकते हैं तो इसका कोई सीधा जवाब आपके पास नहीं होगा। लेकिन आप को अगर ये बताया जाए की ख़ुदकुशी की एक वजह ऐसी है जो सार्वजनिक है तो शायद कुछ लोग यकीन न करें। जी हाँ, हाल ही में आई कुछ रिपोर्ट में कहा गया है कि ख़राब हवा के कारण सिर्फ फेफड़ों पर असर नहीं पड़ता है बल्कि आत्महत्या का यह एक बड़ा कारण भी है। वह भी गाँवों में सबसे ज़्यादा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, हर साल दुनिया भर में 700,000 से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं। मरने वालों की संख्या के पैमाने और इसके कारणों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए 10 सितंबर को, डब्ल्यूएचओ विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस भी मनाता है। लेकिन प्रदूषण का आत्महत्या से सम्बन्ध चिंताजनक जरूर है।

अभी तक तो प्रदूषण को लेकर बचपन से हम आप सुनते आ रहे हैं कि ये सेहत के लिए ख़तरनाक है। लेकिन अब नयी रिसर्च इसे आत्महत्या से जोड़ रही है।

आप पूछेंगे भाई ख़राब हवा का आत्महत्या से क्या सम्बन्ध है?

सम्बन्ध है, बहुत गहरा सम्बन्ध है। एक एक करके सब जानकारी देंगे। उससे पहले उन रिपोर्ट्स पर नज़र डालते हैं जो बढ़ते प्रदूषण को जानलेवा बता रही हैं।

अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉय अर्बाना-शैंपेन ने अपनी एक रिसर्च में कहा है कि जंगलों में लगने वाली आग से होने वाले वायु प्रदूषण का देहाती इलाकों में बढ़ती आत्महत्या से गहरा संबंध है। उन्होंने अपने अध्यन में पाया कि करीब के गाँवों में पार्टिकुलेट मैटर या पीएम 2.5 प्रदूषण में हर 10 प्रतिशत की वृद्धि मासिक आत्महत्या दर में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि से जुड़ी हुई थी।

इस यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर और जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में प्रकाशित रिपोर्ट के सह-लेखक डेविड मोलिटर के अनुसार, वायु प्रदूषण, जो लंबे समय से शारीरिक स्वास्थ्य पर इसके बुरे प्रभावों के लिए जाना जाता है, को चिंता, अवसाद और आत्महत्या जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जोड़ने के भी सबूत मिले हैं। साफ है ज़हरीली हवा कहीं भी हो सेहत के लिए ठीक नहीं है। भारत के खेतों में पराली (फसल की कटाई के बाद बचा अवशेष) जलने या पड़ोस के कारखानों से निकलते धुएं से कुछ ऐसा ही हाल होता है जो गाँवों के लिए ठीक नहीं है।

एक दूसरी रिपोर्ट जो लंदन के एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव जर्नल में प्रकाशित हुई है वो भी कुछ ऐसा ही दावा करती है। उसके मुताबिक 16 देशों के आंकड़ों की समीक्षा करने वाले एक अध्ययन में ये बात सामने आई है कि उच्च स्तर के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने वाले लोगों में अवसाद का अनुभव होने या आत्महत्या करने की संभावना अधिक होती है।

ब्रिटिश जर्नल साइंटिफिक में छपी एक रिपोर्ट और चौकाने वाली है। उसके मुताबिक वातावरण में बढ़ती नमी आत्महत्या के लिए जिम्मेवार हो सकती है। इतना ही नहीं अध्ययन से यह भी पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के चलते वातावरण में बढ़ती नमी, लू की तुलना में आत्महत्या के बढ़ते मामलों के लिए कहीं ज़्यादा जिम्मेवार है। इस शोध में यह भी सामने आया है कि विशेष रूप से महिलाएं और युवा बढ़ती गर्मी और नमी से कहीं ज्यादा प्रभावित हुए थे। वातावरण में बढ़ती नमी उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है।

इंग्लैंड के फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट कहती है कि अगर आप लगातार तीन साल तक अधिक वायु प्रदूषण वाले इलाके में रहते हैं, तो आपको फेफड़ों का कैंसर होने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है। उनके मुताबिक जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती जाती है, हमारे शरीर में कैंसर को बढ़ाने वाली कोशिकाएं बढ़ती जाती हैं। लेकिन आमतौर पर यह सक्रिय नहीं रहतीं। वायु प्रदूषण इन कोशिकाओं को सक्रिय कर देते हैं , जिससे ट्यूमर होने और बाद में कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

डॉक्टर भी कहते हैं कि खराब हवा मौत की वजह बन सकती है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

लखनऊ में किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में पल्मोनरी मेडिसिन एंड क्रिटिकल केयर विभाग के अध्यक्ष डॉ वेद प्रकाश कहते हैं, “वायु प्रदूषण की वजह से इंसान कई तरह की बीमारियों का शिकार हो रहा है। हाल के साल में वायु प्रदूषण का लेवल जहरीले स्तर से भी अधिक हो चुका है। गाँवों में तक हवा अब शुद्ध नहीं है। हवा में मौज़ूद जहरीले और रासायनिक पदार्थ फेफड़ों को नुकसान पहुँचा रहे हैं जिससे दूसरी कई बीमारी हो रही हैं। “.

डॉक्टर का मानना है कि शरीर से निकलने वाला पसीना जल्दी नहीं सूखता, जिस वजह से हमारे शरीर को कहीं ज्यादा गर्मी महसूस होती है। पसीना हमारे शरीर को प्राकृतिक रूप से ठंडा करने की प्रणाली का हिस्सा है। यह गर्मी बढ़ने पर हमारे शरीर के अंगों को उससे बचाता है। ऐसे में वातावरण में बढ़ती उमस और नमी हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती है।

डॉक्टर वेद के मुताबिक फेफड़ों की बीमारी में खराब हवा बड़ी वजह है जिससे शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी खराब हो सकता है। इसकी वजह से लोगों में नकारात्मक विचार आते हैं। ख़राब हवा को ठीक करना है तो कोशिश करें आपके आसपास ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ पौधें हो, नहीं है तो लगाना चाहिए। बाहर निकलने तो मास्क बेहतर विकल्प है।

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