विश्व स्तनपान सप्ताह: ब्रेस्ट मिल्क एक नहीं कई वजहों से है फॉर्मूला मिल्क से बेहतर

पूरे देश में 1 से 7 अगस्त तक विश्व स्तनपान सप्ताह मनाया जा रहा, पिछले कुछ साल में संस्थागत प्रसव बढ़े, लेकिन स्तनपान की दर में बढ़ोतरी नहीं हुई। इसमें सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक मान्यताएँ, मिथक, परंपराएँ, रुढ़ियाँ और अशिक्षा हैं।

“स्तन  के दूध को दूध नहीं,  जीवन का सत्व कहूँगी
सार कहूँगी, तत्व कहूँगी, जीवन की बुनियाद कहूँगी।”

किसी डॉक्टर कवि की यह पंक्तियाँ उन तमाम महिलाओं के जीवन का आधार बन रहीं हैं, जिन्होंने भय, भ्रम, परंपराओं और रूढ़ियों की फांसों से मुक्त होकर अपने नवजात शिशु को पहले घंटे के भीतर स्तनपान कराया, अपना पहला गाढ़ा-पीला दूध पिलाया।

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के एक अस्पताल में बेटी को जन्म देने वाली पूजा दिवाकर हो या आष्टा की सुमन या फिर खंडवा जिले के आदिवासी बाहुल्य इलाके खालवा और पंधाना ब्लॉक की किरण और आशा। ये सभी तो जागरूकता और परिवार का साथ मिलने से कामयाब रहीं,  लेकिन रायसेन जिले के एक छोटे से गाँव बरखेड़ा की 80 फीसदी महिलाएँ पूजा या सुमन की तरह खुशनसीब नहीं रहीं।  वह बच्चे के जन्म के बाद उसे स्तनपान नहीं करा पाईं। परिवार के बड़े-बुजुर्गों ने इन माँओं को अपने पारंपरिक ज्ञान के बोझ तले दबा दिया, किसी बच्चे को शहद चटाया, किसी को गुड़ का पानी पिलाया.. गाँव में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी भी इसकी बड़ी वजह बनीं।

स्तनपान सप्ताह क्यों?

स्तनपान को लेकर सफलता और असफलता की ये दो तस्वीरें बताती हैं कि बदलाव तो हो रहा है, लेकिन बदलावों की रफ्तार ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली कहावत जैसी है। यह स्थिति भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देशों की है। इसी अंतर को पाटने के मकसद से साल 1992 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की साझा पहल पर पूरी दुनिया में विश्व स्तनपान सप्ताह मनाने की घोषणा की गई थी। हर साल के अभियान की एक नई थीम घोषित की जाती है। इस साल ‘अंतर को कम करना और सभी के लिए स्तनपान में सहयोग’ थीम रखी गई। भारत में हर साल 1 अगस्त से 7 अगस्त तक विश्व स्तनपान सप्ताह मनाया जाता है। मध्य प्रदेश महिला एवं बाल विकास विभाग ने अपने अभियान का स्लोगन दिया है ‘सफल स्तनपान-माँ की ही नहीं, पिता की भी जिम्मेदारी’, ‘सबका मिले समर्थन और सहयोग’।

पहला दूध जैसे पहला टीका

भोपाल के जेपी अस्पताल में वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. श्रद्धा अग्रवाल माँ के पहले गाढ़े दूध और स्तनपान के महत्व को लेकर बताती हैं, “आपने कहावतों में, आपस में बातचीत में ‘तूने माँ का दूध पिया है’ या ‘छठी का दूध याद दिला दूँगा’ जैसे शब्द खूब कहे-सुने होंगे, दरअसल यह शब्द बताते हैं कि माँ का दूध कितना ताकतवर होता है; स्तनपान एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य और विकास के लिए बहुत ज़रूरी है।”

वो आगे कहती हैं, “माँ का शिशु को जन्म के पहले घंटे में पहला गाढ़ा दूध (कोलोस्ट्रम) पिलाना बहुत जरूरी और फायदेमंद होता है; यह दूध कैलोरी, विटामिन से भरपूर और रोग प्रतिरोधक शक्ति से परिपूर्ण होता है, इम्यूनिटी बढ़ाने वाले इस दूध को इसलिए बच्चे के लिए पहला टीका भी कहा जाता है; कई ग्रामीण क्षेत्रों में कोलोस्ट्रम को अशुद्ध माना जाता है और इसे फिंकवा दिया जाता है, जबकि यह गलत धारणा है।”

शुरुआत में इसकी मात्रा बहुत कम होती है, लेकिन शिशु की भूख मिटाने के लिए बहुत पर्याप्त होती है। शिशु के स्तनपान से माँ के मस्तिष्क से ऑक्सीटोसिन हार्मोन का रिसाव होता है, जिससे माँ के दूध में वृद्धि होती जाती है।

डॉ. श्रद्धा अग्रवाल आगे बताती हैं कि पहले शिशु को जन्म के बाद अलग ट्रे में लिटा दिया जाता था, लेकिन नए शोध सामने आने के बाद अब सीधे पेट पर लिटाया जाता है, यह प्रकृति का वरदान है कि बच्चा अपने आप स्तनों की ओर घूम जाता है। स्तनपान कराने से बच्चे और माँ के शरीर का तापमान भी संतुलित रहता है, स्तनपान से माँ के स्वास्थ्य में  तेजी से सुधार होता है और जन्म के बाद हुए घाव जल्दी भरते हैं।

उन्होंने कहा कि बच्चे को अलग से पानी नहीं पिलाना चाहिए। क्योंकि माँ के दूध में ही पर्याप्त पानी होता है। बच्चे को जन्म के बाद 6 माह तक केवल स्तनपान कराना चाहिए। इससे बच्चा ही सेहतमंद नहीं रहता, बल्कि माँ के शरीर से भी अतिरिक्त चर्बी (Fat) अपने आप कम हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बच्चों को जन्म के पहले 6 महीने तक केवल माँ का दूध पिलाने की सिफारिश करता है और 6 महीने के बाद पूरक आहार के साथ 2 साल तक बच्चे को स्तनपान कराने की सलाह देता है।

देश और मप्र की तस्वीर हकीकत के आईने में

बीते तीन दशकों के दौरान तमाम अभियानों और सरकारी-गैर सरकारी कोशिशों के बावजूद आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भारत में शिशुओं को स्तनपान की दर अभी भी बहुत कम है। आज भी भारत में हर दूसरा बच्चा माँ के पहले दूध से वंचित रहता है। हर चौथे-पांचवे बच्चे को 6 महीने तक माँ का दूध नहीं मिल पाता। उसे फार्मूला मिल्क, गाय के दूध, टोंड मिल्क जैसे अन्य विकल्पों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह हम नहीं कहते, बल्कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (3-5) के आंकड़े बयां कर रहे हैं।

सर्वे के मुताबिक 2005 में जहाँ पहले घंटे में माँ का दूध (कोलोस्ट्रम) पिलाने की दर 23.1 फीसदी थी, जो 2015 में बढ़कर 41.5 फीसदी हो गई। मप्र में अब जाकर शिशुओं को पहले स्तनपान की दर शहरी इलाकों में 41.3 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 42.8 फीसदी हो पाई है। सबसे बेहतर स्थिति मप्र के शिवपुरी जिले की है, जहाँ 64 प्रतिशत बच्चों को पहले घंटे में माँ का दूध मिल जाता है। इसके बाद सिवनी में 59.3, आगर-मालवा में 59.1, खंडवा में 57.9, मुरैना में 57.2 का नंबर आता है। सबसे बुरी स्थिति मप्र के सतना जिले की है, यहाँ 17.7 प्रतिशत, अनूपपुर में 21.5 प्रतिशत और छतरपुर में 22.5 प्रतिशत बच्चों को पहले घंटे में माँ  का दूध मिल पाता है।

संस्थागत प्रसव 90 फीसदी, लेकिन स्तनपान 42 फीसदी, क्यों?

मप्र महिला बाल विकास विभाग के संयुक्त संचालक डॉ. सुरेश तोमर कहते हैं कि निजी और सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य संसाधनों के बढ़ने और जागरूकता अभियान के असर से संस्थागत प्रसव तो बढ़कर 90 प्रतिशत से ज़्यादा होने लगे हैं, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संस्थागत प्रसव बढ़ने के बावजूद शिशुओं को स्तनपान कराए जाने का प्रतिशत नहीं बढ़ा है।

वह स्वीकार करते हैं कि कहीं न कहीं हमारे प्रयासों में कमी है। साझा प्रयासों को और तेज़ करने की ज़रूरत है।

तोमर कहते हैं कि स्तनपान शिशु के स्वास्थ्य और विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसके बावजूद कई परंपराएं और रूढ़ियां ऐसी हैं, जो स्तनपान के सही तरीके अपनाने में बाधा डालती है। सदियों की पारंपरिक मान्यताओं, धारणाओं, मिथकों, रूढ़ियों  के आधार पर किए जा रहे सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन बड़ी चुनौती है। इसके लिए विभाग पूरे प्रदेश में बड़े पैमाने पर प्रशिक्षक तैयार करने जा रहा है।

ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली भी जिम्मेदार

संस्थागत प्रसव बढ़ने के बावजूद स्तनपान की दर क्यों नहीं बढ़ रही है, इसके एक कारण पर हाल ही जुलाई माह के तीसरे हफ्ते में मप्र हाईकोर्ट की इंदौर बेंच में दायर एक याचिका से अनुमान लगाया जा सकता है। इस याचिका पर कोर्ट ने सरकार को राज्य में  ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली को लेकर एक नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। यह याचिका सामाजिक कार्यकर्ता, गांधीवादी विचारक चिन्मय मिश्र ने दायर की है।

याचिका में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के हवाले से कहा गया है कि मप्र में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की नींव माने जाने वाले एक भी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर, प्राइमरी हेल्थ सेंटर, या सब सेंटर भारतीय जन स्वास्थ्य मानकों (IPHS) के अनुसार नहीं है। इन सेंटर्स में न तो उपयुक्त सुविधाएँ हैं और न ही डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्य कर्मी उपलब्ध हैं। ग्रामीण इलाकों में केवल 55 फीसदी महिलाओं को प्रसव के दौरान नियमानुसार 4 बार देखरेख हो पाती है। 58 फीसदी महिलाएँ खून की कमी की शिकार हैं। गर्भवती महिलाओं के लिए जरूरी आयरन फोलिक एसिड की टेबलेट्स केवल 10 फीसदी महिलाओं को मिल पाती हैं, जिनका सीधा असर बच्चों और उन्हें मिलने वाले माँ के दूध पर पड़ता है।

राज्य में 309 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हैं, जिनमें से हर सेंटर में एक फिजीशियन, एक सर्जन, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, एक बच्चों का चिकित्सक होना जरूरी है, लेकिन एक भी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर ऐसा नहीं है, जहाँ इन सबकी नियुक्ति हो।  ग्रामीण क्षेत्रों में इन हालातों की वजह से मप्र में शिशु मृत्यु दर प्रति हज़ार शिशुओं पर 48 शिशु है। यह दर भारत की औसत दर प्रति हज़ार पर 32 शिशुओं की मृत्यु से कहीं ज़्यादा है। इसी प्रकार देश में मातृ मृत्यु दर प्रति हज़ार महिलाओं पर 113, जबकि मप्र में यह दर 173 है। यह हालात शर्मनाक और संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के विपरीत हैं। याचिका में चिकित्सकों के खाली पद तुरंत भरे जाने और केन्द्रों में जरुरी स्वास्थ्य सुविधाएँ बहाल करने की माँग की गई है।

स्तनपान पिता की भी जिम्मेदारी

महिला बाल विकास विभाग की वरिष्ठ अधिकारी निशा जैन कहती हैं कि हमारा स्पष्ट मानना है कि स्तनपान केवल माँ की ही नहीं, पिता और परिवार की भी जिम्मेदारी है। घर के पुरुष जन्म के बाद  बच्चे को दूध पिलाने के लिए अनुकूल और तनाव रहित वातावरण दे सकते हैं, घर के काम खाना बनाने, बर्तन-कपड़े धोने, साफ सफाई जैसे कामों में हाथ बंटाकर माँ को केवल दूध पिलाने पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कह सकते हैं।

पुरुषों का यह मानना कि स्तनपान में केवल महिलाओं की ही भूमिका है, यह सही नहीं है, जबकि पिता का साथ, स्तनपान में सुधार के लिए सफल और उसकी निरंतरता से जुड़ा मामला है। माँ के दूध के महत्व की जानकारी से पुरुषों और समुदायों को भी अवगत कराने की ज़रूरत है।

स्तनपान की राह में बड़ी चुनौती

समाज में व्याप्त रूढ़ियाँ, पारंपरिक मान्यताएँ और अंधविश्वास स्तनपान को प्रभावित करते हैं, जैसे मप्र के अलीराजपुर-झाबुआ के आदिवासी इलाकों में अभी कई जगह माँ को तीन दिन तक अपने बच्चे को स्तनपान नहीं कराने दिया जाता। कोलोस्ट्रम वाले दूध को अशुद्ध माना जाता है।

कई ग्रामीण इलाकों में इस अमृत तुल्य दूध याने कोलोस्ट्रम को फिंकवा दिया जाता है। गाँव के बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि यह गाढ़ा दूध गले में फंस जाने का डर रहता है। कई शहरी और ग्रामीण इलाकों में जन्म के बाद बच्चे को सबसे पहले शहद चटाने या गुड़ का पानी पिलाने की परंपरा है।

खंडवा के खालवा और पंधाना जैसे इलाकों में जब तक घर में पूजा नहीं हो जाती, तब तक जच्चा को उपवास रखना पड़ता है और बच्चे को भी स्तनपान नहीं कराने दिया जाता। कई बार नई माताओं को पारंपरिक मान्यताओं के चलते अपने परिवार की इच्छा या दबाव के आगे झुकना पड़ता है।

खंडवा जिले में कुपोषण से मौतों के लिए अक्सर चर्चा में रहने वाले आदिवासी बाहुल्य खालवा ब्लॉक में महिला-बच्चों के बीच काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता रोशनी झा बताती हैं, “खालवा में बरेला, कोरकू, सहरिया, गोंड जैसे आदिवासियों के बीच लगातार काउंसलिंग से सकारात्मक प्रभाव तो पड़ा है, संस्थागत प्रसव और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ी है। लेकिन अभी भी पारंपरिक मान्यताओं, झाड़-फूंक, पूजा-पाठ, दागना जैसी कुप्रथाओं और अंधविश्वास से भरे सामाजिक व्यवहार में लोग जकड़े हुए हैं।”

“कोई नवजात शिशु की जुबान पर पारा रखता है, तो कोई 15-20 दिन के भीतर शहद, दूध, जायफल की घुट्टी पिलाने लगता है। यहाँ बच्चे के जन्म पर उसे धागा बांधने वाले को भूमका और पूजा-पाठ करने वाले को पड़िहार कहा जाता है। इन परंपराओं को पूरा करने के बाद ही माँ बच्चे को दूध पिला सकती है। हालाँकि अब कोई खुले आम दागना जैसी अंधविश्वास से भरी कुप्रथा नहीं अपनाता, लेकिन कोरकू समुदाय में कुछ लोग बच्चे को दूध नहीं पीने या उसके बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास ले जाने की बजाय चचुआ कहलाने वाली दागना जैसे क्रूर कुप्रथा को अपनाते हैं। इस प्रथा में गर्म सलाई से बच्चे के पेट को दागा जाता है। कई बार इस प्रथा के चलते बच्चों के मौत की खबरें भी सामने आ चुकी है, “उन्होंने आगे कहा।

 पंधाना ब्लाक में गोंड-भील-भिलाला आदिवासियों का बाहुल्य है, जो बच्चे को स्तनपान कराने से पहले पूजा-पाठ करते हैं। इन कुछ घटनाओं के बावजूद अब आदिवासी समुदाय भी जागरूक हो रहा है, लेकिन पूरी तरह से व्यवहार परिवर्तन में समय लगेगा।

हाल ही में स्तनपान को लेकर भोपाल में एक जागरूकता कार्यक्रम में सुश्री लुब्ना भी शामिल हुईं, वह खुद सर्टिफाइड फिटनेस ट्रेनर हैं, स्तनपान के महत्व को बखूबी समझती हैं, लेकिन बच्चे को सबसे पहले शहद चटाने पर अड़े परिवार के दबाव के चलते अपने बच्चे को पहले घंटे में अपना दूध पिलाने से वंचित रह गई। वो कहती हैं, “संतान के जन्म के समय परिवार में खुशी का मौका होता है, ऐसे मौके पर नई-नई सलाह देने वालों की भी भरमार रहती है; खुशियों में खलल से बचने के चक्कर में नई माँ कुछ कह भी नहीं पाती, लेकिन अब वह मानती है कि किसी भी कीमत पर बच्चे की सेहत के साथ समझौता नहीं करना चाहिए, उसे स्तनपान ज़रूर कराना चाहिए।”

पूजा हो या लुब्ना, किरन या आशा, यह सब माँएँ उम्मीद जगाती है कि जागरूकता के बीज अंकुरित हो रहे हैं। जब महिलाएँ और उनके जीवनसाथी मिथकों, रूढ़ियों से आजाद होकर अपनी संतान की सेहतमंद ज़िंदगी के हक में उठ खड़े होंगे, तो हर बच्चे को स्तनपान की ज़रूरत पूरी की जा सकेगी। काश ऐसा ही हो और इस धरा के हर बच्चे को माँ का दूध मिल जाए।

(सुनील कुमार गुप्ता लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये इनके निजी विचार हैं)

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