मेरे व्हाट्सऐप पर 11 सेकंड का एक वीडियो आया, जिसे देखकर मन को बड़ा सुकून मिला। फलों से लदे आम के पेड़ की डालियां हवा में झूम रही थीं और उन पर लगे कच्चे आम मानो एक-दूसरे से टकराते हुए, नाच रहे हों।
लेकिन, कुछ ठीक नहीं था। वीडियो को तीन दिन पहले, 1 मई को शूट किया गया था, जब उत्तर भारत में गर्मी चरम पर होती है और पारा अक्सर 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है।
‘लखनऊ में ऐसा सुखद मई का महीना कभी नहीं देखा।’ – वीडियो के साथ आया कैप्शन था। उत्तर प्रदेश की राजधानी नवाबों के शहर गाँव कनेक्शन ऑफिस के बाहर खड़े आम का पेड़ को मैंने फौरन पहचान लिया. राज्य भारत का सर्वाधिक आम उत्पादक राज्य है।
आम के पेड़ गर्म और आर्द्र जलवायु को पसंद करते हैं। मुझे याद है, जब बच्चे चिलचिलाती गर्मी में बिजली जाने की शिकायत करते थे। लेकिन हमारी नानी-दादियां हमें दिलासा देतीं कि गर्मी जितनी तेज होगी, आम उतने मीठे होंगे।
लेकिन वह कई दशक पहले था जब मौसम अभी भी एक परिचित पैटर्न का पालन करता था; जब सर्दी ने वसंत को रास्ता दिया, जो धीरे-धीरे गर्मी के मौसम में बदल गया हो। अब मौसम सब मिला हुआ है! सर्दी कम बारिश लाती है और बर्फबारी अप्रैल और मई महीनों में होने लगी है। उत्तराखंड और जम्मू और कश्मीर जैसे राज्यों में मौसम की चेतावनी है और अब मई में बर्फबारी हो रही है! ‘व्हाइट क्रिसमस के बजाय, अब हमारे पास व्हाइट होली है’ एक आम बात बन गई है।
आम के पेड़ का व्हाट्सएप वीडियो जितना सुंदर था, उतना ही इसने मुझे चिंतित कर दिया। इसकी एक वजह ये भी थी, क्योंकि मैं हाल ही में क्लाइमेट ट्रेंड्स की तरफ से हीटवेव पर आयोजित दो दिवसीय मीडिया प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लेने के बाद लौटी थी। वर्कशॉप कर्नाटक के बेंगलुरु में की गई थी, जहां चुनावी बुखार अपने चरम पर है।
पर्यावरण और जलवायु विषय पर लिखने वाले मेरे जैसे पत्रकारों के एक समूह ने भीषण गर्मी (स्थलीय और समुद्री), बदलते मानसून वर्षा पैटर्न, पृथ्वी के गर्म होने और इसके विनाशकारी प्रभावों को समझने के लिए बेंगलुरु तक का सफर किया। ये वो परिवर्तन हैं जिन्हें दुनिया भर में पहले से महसूस किया जा रहा है। हमारी यात्रा, यह जानने के लिए भी थी कि हम इन मुद्दों पर कैसे बेहतरीन तरीके से रिपोर्ट कर सकते हैं और कार्रवाई के लिए दबाव डाल सकते हैं।
दो दिनों तक, जलवायु वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और क्षेत्र के जाने-माने लोगों ने कई राज्यों के पर्यावरण पत्रकारों को जलवायु परिवर्तन की बारीकियां समझाईं। अनियमित मौसम की घटनाओं, गर्म हवाओं, टेलीकनेक्शन, मानसून, एल नीनो – ला नीना और संबंधित मुद्दों पर रिपोर्ट करने के तरीके पर प्रशिक्षण भी दिया गया था।
जलवायु वैज्ञानिकों ने एक के बाद एक स्लाइड और मानचित्र पेश किए, जिनमें जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के हालिया प्रमाण और आंकड़े दिखाए गए थे। ये आंकड़े आजीविका और अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य, फूड बास्केट, जल प्रणालियों और हमारे अस्तित्व के लिए सीधा खतरा थे।
अप्रैल और मई में आमतौर पर तेज गर्म हवाओं का दौर रहता है। लेकिन इस साल, देश के कई हिस्सों में तापमान सामान्य से कम रहा है (मुंबई में प्री-मानसून बारिश हुई है)। लेकिन इन गर्म हवाओं का सामना लोगों ने पहले ही कर लिया था, मार्च की शुरुआत में। समय से पहले आई हीटवेव ने उन फसलों को नुकसान पहुंचाया, जो उस समय कटाई के लिए तैयार हो रही थीं।
पिछले साल, 2022 में देश ने फ्रीक्वेंसी और इंटेसिटी, दोनों ही मामले में अभूतपूर्व गर्म हवाओं का सामना किया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गांधीनगर में सिविल इंजीनियरिंग एंड अर्थ साइंस के प्रोफेसर विमल मिश्रा ने हीटवेव के आंकड़ों का विश्लेषण किया और बेंगलुरु कार्यशाला में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए। वह चिंताजनक खुलासे कर रहे थे।
पिछले साल (फरवरी से अप्रैल) प्री-मॉनसून सीज़न के दौरान भारतीय क्षेत्र को लगभग पांच हीटवेव का सामना करना पड़ा था, जो 36 दिनों तक बनी रहीं थी। मिश्रा ने बताया कि किस तरह से हीटवेव की फ्रीक्वेंसी और इंटेंसिटी में बढ़ोतरी हुई है (ग्राफ देखें)। उदाहरण के लिए, 1950 और 2010 के बीच हीटवेव की अवधि सात दिनों से लेकर 12-13 दिनों के बीच थी। लेकिन, 2022 में यह बढ़कर 36 दिन हो गई।
ठीक इसी तरह, पहले हीटवेव साल (1950 से 2010 के दशक तक) में एक और दो बार आया करती थी। लेकिन पिछले साल प्री-मानसून सीजन में पांच बार लू चली थीं।
मिश्रा ने जिला स्तर पर हीट एक्शन प्लान के विकास और कार्यान्वयन की जरुरत पर जोर देते हुए चेतावनी दी, ” जिस तरह से 2022 में अभूतपूर्व हीट वेव देखी गई थी, आने वाले समय में इनका बार-बार सामना करने का अनुमान है। और यह ज्यादा आबादी वाले भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव डालेगा।”
उन्होंने बताया कि इन तेज गर्म हवाओं का सबसे ज्यादा असर मजदूरों और कामगारों पर पड़ने वाला है। गाँव कनेक्शन पहले से ही इससे जुड़ी खबरें देता आया है।
हीटवेव के अलावा बढ़ता तापमान और महासागरों का गर्म होना भी हमारे मानसून को प्रभावित कर रहा है। मानसून में आने वाली बारिश ही सदियों से खेतों को सींचने का बड़ा जरिया रहा है। यही हमारे मीठे पानी के स्रोतों को फिर से भरने का काम भी करता है। कवियों और प्रेमियों को प्रेरित करने के अलावा इसने सभी जीवन रूपों को बनाए रखा है।
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM), पुणे के एक जलवायु वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कोल ने पूरे देश के ‘समर मॉनसून रेनफॉल’ के 152 साल यानी 1871 से लेकर 2022 तक का विश्लेषण किया था।
IITM विश्लेषण से पता चलता है कि 2020 के बाद, देश में कोई ‘वेट’ इयर (औसत के 10 प्रतिशत से अधिक वर्षा की असामान्यता) नहीं रहा है, जबकि सूखे के वर्ष रहे हैं (ग्राफ देखें)। कोल ने यह भी बताया कि लगभग 50 प्रतिशत सूखे वर्ष अल नीनो वर्ष होते हैं।
बुरी खबर यहीं खत्म नहीं होती। कोल ने बताया कि कैसे पिछले 70 सालों (1950 के बाद) में, भारत-गंगा बेसिन और मध्य भारत में कुल मानसून वर्षा में उल्लेखनीय कमी आई है। जबकि गुजरात और मध्य महाराष्ट्र में इसमें उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। इस बीच, मध्य भारत के कुछ हिस्सों में ज्यादा बारिश होने की घटनाओं में तेजी आई है।
भारत का ज्यादातर कृषि क्षेत्र बारिश पर निर्भर करता है। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार, यह देश के शुद्ध बोए गए क्षेत्र का लगभग 51 प्रतिशत है और कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत।
सीधे शब्दों में कहें तो, अनियमित मानसूनी बारिश का मतलब, हमारे हर महीने के किराना बिलों और पानी के संकट का तेजी से बढ़ना है।
कोल ने हिंद महासागर के बारे में भी बात की जो दुनिया में सबसे तेजी से गर्म होने वाला महासागर है। आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा, ” हिंद महासागर तेज गति और बड़ी मात्रा में गर्म हो रहा है।” उन्होंने कहा कि यह दर्शाता है कि 1901 और 2013 के बीच, हिंद महासागर में समुद्र की सतह का तापमान पहले ही 1।2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। 2020 और 2100 के बीच इसके और 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की संभावना है!
यह भयावह हो सकता है क्योंकि समुद्र का गर्म होना उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की बढ़ी हुई आवृत्ति और तीव्रता दोनों से जुड़ा हुआ है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के मुताबिक, अरब सागर तेज गति से गर्म हो रहा है और अधिक चक्रवातों की आशंका जता रहा है।
अर्थ सिस्टम साइंटिस्ट और आईआईटी बॉम्बे में विजिटिंग प्रोफेसर, रघु मुर्तु गुड्डे ने आंकड़ों के जरिए बताया कि तरह से प्रत्येक दशक, पहले की तुलना में अधिक गर्म रहा है (ग्राफ़ देखें)।
मुर्तु गुंडे ने आगे कहा कि सामान्य मानसून के बारे में बात करना बेमानी है क्योंकि प्रत्येक मानसून के और ज्यादा उन्मादी होने की संभावना है। अर्थ सिस्टम वैज्ञानिक ने कहा, “हम एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव, और उष्ण कटिबंध के एक छोर से दूसरे उष्ण कटिबंध के छोर तक प्रभावित हो रहे हैं । प्री-मानसून बारिश अनियमित हो गई है और तेज गर्म हवाओं के साथ परस्पर क्रिया कर रही है।” उन्होंने कहा कि गहराई के साथ बेहतर तरीके से मौसम का पूर्वानुमान लगाने और स्थानीय स्तर पर अनुकूलन की जरूरत है।
आम लोगों के जीवन पर जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों का अनुभव करने के लिए हमें 2070 या 2050 तक इंतजार करने की जरूरत नहीं है। ड्यूक यूनिवर्सिटी के पोस्टडॉक्टोरल सहयोगी ल्यूक पार्सन्स ने बढ़ती गर्मी के कारण वार्षिक उत्पादकता नुकसान पर कुछ परेशान करने वाले आंकड़े पेश किए थे।
उनके अनुसार, बढ़ती गर्मी और वेट-बल्ब तापमान (गर्मी और आर्द्रता की सीमा) के कारण विश्व स्तर पर एक वर्ष में 220 अरब घंटे का नुकसान होता है। 32 डिग्री सेल्सियस का एक वेट-बल्ब तापमान आमतौर पर अधिकतम होता है जिसे मानव शरीर सहन कर सकता है और सामान्य बाहरी गतिविधियों को पूरा कर सकता है।
कुल 220 अरब घंटे का नुकसान हुआ, इसमें से लगभग आधा (46 प्रतिशत) यानी 101 बिलियन घंटे का नुकसान भारत से है। पार्सन्स ने कहा कि यह लगभग 23 मिलियन नौकरियों के खत्म होने के बराबर है।
क्या भारत इस नुकसान का भार उठा सकता है?