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हिंगोट युद्ध क्या है? जिसे खूनी खेल भी कहा जाता है, परंपरागत आयोजन में बरसाए जाते हैं आग के गोले

मध्य प्रदेश में दिवाली के दूसरे दिन होने वाला हिंगोट युद्ध (Hingot war) दो गांवों के बीच आग के गोलों से हमलों के लिए जाना जाता है। प्रशासन ने इस बार भी युद्ध के लिए अनुमति नहीं दी है। लेकिन दोनों पक्षों में बारूदी गोले तैयार किए जा रहे हैं।
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गौतमपुरा (मध्य प्रदेश)। मध्य प्रदेश के गौतमपुर इलाके में दो गांवों के बीच हर साल दिवाली के दूसरे दिन हिंगोट युद्ध का आयोजन किया जाता है। इस युद्ध में दोनों गांवों के लड़ाके एक दूसरे पर आग के गोले बरसाते हैं। इस खेल को देखने के लिए आसपास के हजारों लोग जुटते हैं। इस दौरान सिर्फ लड़ाके ही नहीं कई बार दर्शक तक घायल हो चुके हैं। प्रशासन ने कोरोना गाइड लाइन के चलते इस बार भी हिंगोट आयोजन की अनुमति नहीं दी है, लेकिन दोनों गांवों में आग के गोले (हिंगोट) बनाने का काम जोरशोर से जारी है।

मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर से लगभग 55 किलोमीटर दूर गौतमपुरा (Gautampura) नगर परिषद है। करीब 6000 की आबादी वाली इस नगर परिषद में दो गांव हैं, गौतमपुर और रुणजी, इन दोनों गांवों के बीच दीपावाली के दूसरे दिन (पड़वा) को हिंगोट युद्ध होता है। दोनों पक्षों के लड़ाके बारुद भरे हिंगौट में आग लगाकर दूसरी टीम पर फेंकते हैं। जो चिंगारी छोड़ते हुए दूसरी टीम पर गिरते हैं। दूसरी टीम के लोग ढाल के जरिए अपनी रक्षा करते हैं, इस दौरान कई लोग घायल भी हो जाते हैं।

हिंगोट युद्ध

हिंगोट को स्वाभिमान का प्रतीक मानते हैं लोग

हिंगोट युद्ध का अपना इतिहास है,लोग इसे मुगलों और मराठों से जमाने से चली आ रही परंपरा बताते हैं, उनके मुताबिक ये युद्ध उनके स्वाभिमान का प्रतीक है।

गौतमपुरा नगर परिषद् के पूर्व अध्यक्ष विशाल राठी ने गांव कनेक्शन को बताते हैं, “यह परंपरा सालों से चली आ रही है। यह हमारे स्वाभिमान और आत्मरक्षा का प्रतीक है। 1700 ईसवी के आसपास जब लूटपाट और अन्य मकसदों के लिए जब मुग़ल सेना घोड़ों और अन्य हथियारों के साथ इलाके में आते थे तब मराठा हिंगोट के गोले दागकर मुगल सेना से लड़ा करते थे। यह एक तरीके का गुरिल्ला वार हुआ करता था। हिंगोट के जरिये कई बार मुगलों को खदेड़ा गया है। यही वजह है कि हिंगोट हमारे स्वाभिमान, आत्मरक्षा की प्रतीक है।”

स्थानीय लोगों के मुताबिक हिंगोट परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस युद्ध के प्रतीक के रुप में गौतमपुर और रुणजी गांवों के लड़ाके प्रतीकात्मक रुप में इसे लड़ते हैं। रूणजी गांव के लड़ाकों को कलंगी और गौतमपुरा के लड़ाकों को तुर्रा कहा जाता है। इस युध्द का हिंगोट की मदद से लड़ा जाता है।

गौतमपुरा में साल 2018 आग निकालता हिंगोट फेंकता एक योद्धा।

गौतमपुरा के राहुल गुर्जर (30 वर्ष) कहते हैं, “हमारे बुजुर्ग बतातें हैं कि इस युद्ध का एक प्राचीन महत्व है। यह युद्ध दीवाली के अगले दिन यानी पड़वा के दिन के होता है। कुछ उपद्रवी इस युध्द में शराब पीकर आते हैं, जिससे इसकी छवि धूमिल हुई है। लेकिन यह हमारी परंपरा है जो होनी चाहिए।” 80 वर्षीय तावजी हंसते हुए बताते हैं, “इतने सालों में कभी युद्ध लड़ा नहीं सिर्फ देखा है। यह परंपरा ठेठ से (यानी बाप दादाओं के ज़माने से) चली आ रही है। इस वजह से लोग आज इस परंपरा को निभाते हैं।”

हिंगोट में बारुद भरती सोहनी बाई। फोटो- श्याम दांगी

युवाओं में रहता हैं उत्साह

इस युद्ध में हर साल कई युवा लड़ाके घायल होते हैं। वहीं प्रशासन भी हिंगोट के निर्माण, संग्रहण, खरीदने व बेचने या चलाने पर प्रतिबन्ध लगा देता है। इसके बावजूद यहां के युवाओं में इस प्रतिबंधित खेल के प्रति हर साल उत्साह रहता हैं।

इस बार फिर हिगोंट के लिए तैयार पिंटू गुर्जर (25 वर्ष) कहते हैं, “इसमें सुरक्षा के लिए ढाल का उपयोग किया जाता है। यह हमारी परंपरा है और यह होना चाहिए। देवनारायण भगवान की कृपा से अभी तक उन्हें कोई चोट नहीं लगी है, उम्मीद हैं आगे भी नहीं लगेगी।”

ये युद्ध जहां खेला जाता है वहां देवनारायण मंदिर हैं। मंदिर के पुजारी संजय गुर्जर (50 साल) मानते हैं कि कई बार इसमें दर्शन भी घायल हो जाते हैं। क्योंकि एक दूसरे पर बम (हिंगोट) बरसाए जाते हैं। 34 वर्षीय अमृत गुर्जर बताते हैं, “13-14 साल की उम्र से हिंगोट युध्द लड़ रहा हूं। मेरे सिर में आज भी हिंगोट की चोट है।”

कोरोना के चलते 2020 में भी नहीं मिली थी अनुमति

हिंगौट युद्ध पर पिछले कई वर्षों से प्रतिबंध लगाने की मांग होती रही है। लेकिन स्थानीय लोगों के दबाव और लोक परंपरा के चलते ये जारी रहा है। कोरोना के 2020 में आयोजन की आधिकारिक अनुमति नहीं मिली थी, इस बार भी अनुमति नहीं है लेकिन स्थानीय लोग पूरी तैयारी में जुटे हैं। 

इंदौर में देपालपुर के एसडीएम रवि कुमार सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, “इस साल कोरोना गाइडलाइन के चलते हिंगोट युद्ध की अनुमति प्रदान नहीं की है। हालांकि, हिंगोट के निर्माण, खरीदी, बिक्री और संग्रहण पर भी किसी तरह का प्रतिबन्ध नहीं हैं।” उन्होंने कहा, “लोगों को कोरोना गाइडलाइन के तहत समझाई गई हैं कि इस साल हिंगोट युद्ध न खेले हैं।

इधर, जिला बड़वानी प्रशासन 21 अक्टूबर से 21 नवंबर, 2021 तक हिंगोट के निर्माण, क्रय, विक्रय, संग्रहण और चलाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।

हिंगोट युद्ध

ऐसे बनाए जाते हैं हिंगोट यानि ‘देसी बम’

हिंगोट, हिंगोरियां नाम के जंगली पेड़ का फल होता है। जिसका बाहरी खोल बेहद सख्त होता हैं। नुकीले औजारों से फल का गूदा निकाल दिया जाता है। फिर उसमें बारूद भरा जाता है। बारूद भरने के हिंगोट को पीली मिट्टी की मदद से बंद कर दिया जाता हैं।

शय मात के इस खेल में कौन जीतता है?

विशाल राठी बताते हैं कि यह ऐसा खेल जिसमें दोनों टीमों में से कोई हारती या जीतती नहीं हैं हालांकि, जिन लड़ाकों के पास हिंगोट ख़त्म हो जाते हैं। वे मैदान छोड़कर भाग खड़े होते हैं।

तैयार हिंगोट दिखाता गौतमपुर का एक युवक। फोटो श्याम दांगी

 

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