अभी कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने बोर्ड परीक्षा में बैठ रहे विद्यार्थियों से परीक्षा पे चर्चा की और उन्हें एग्जाम में बेहतर प्रदर्शन करने की शुभकामनाएं दी। प्रधानमंत्री ने इस कार्यक्रम में अभिभावकों को भी अपने बच्चों पर किसी प्रकार का परीक्षा का दवाब न बनाने की सलाह दी और बच्चों में तेजी से बढ़ रहे मानसिक अवसाद और डिप्रेशन के प्रति चिंता व्यक्त की।
आज की इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में मानसिक समस्याएं बहुत तेजी से लोगों को अपना शिकार बना रही हैं। इसके घातक प्रभाव हर वर्ग हर उम्र के लोंगो को प्रभावित कर रहे हैं। मानसिक अवसाद का विस्तार इतना तीव्र है कि इससे न तो कोई देश बचा है और न कोई राज्य। यह एक कड़वा सच है कि आज हर गाँव, गली मोहल्ले में डिप्रेशन, के मरीज मिल जाते हैं।
विडंबना यह है कि मानसिक तनाव, आत्महत्याएं, एवं बैचेनी की ये समस्याएं अब बच्चों और किशोरों में गंभीर होती जा रही है। बच्चे आज खेलने कूदने की उम्र में मानसिक विकृतियों का सामना कर रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट “मेन्टल हेल्थ ऑफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल” के अनुसार दुनिया का लगभग हर सातवां बच्चा किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रहा है इसमें एन्जाइंटी और डिप्रेशन प्रमुख है।
मानसिक अवसाद से घिरे बच्चों की मासूमियत खोती जा रही है उनकी खिलखिलाती मुस्कान चिड़चिड़ाहट में बदल गई है वे बहुत जल्दी गुस्सा करने लगे हैं उनमें सहनशक्ति कम होती जा रही है। कई बार तो वे अपने माता-पिता की बात से इतने नाराज हो जाते हैं कि उन पर हमला करने से भी नहीं चूकते। विशेषज्ञों की मानें तो मानसिक तनाव बढ़ने पर अब किशोर आत्महत्या का रास्ता बहुत तेजी से अपना रहे हैं।
डिप्रेशन के शिकार इन बच्चों के माता-पिता यह समान ही नहीं पाते कि जो बच्चे कुछ महीनों पहले तक हर पल खेलते, कूदते, हंसते, गाते और मासूमियत और शैतानियों से भरे रहा करते थे उनके व्यवहार में अचानक इतना बदलाव क्यों आ गया है कि वे उनकी कोई बात सुनना और समझना ही नहीं चाहते। अभिभावकों को यह समझ ही नहीं आता कि इस स्थिति को कैसे संभाले।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर सात में से एक बच्चा डिप्रेशन का शिकार है। इसी तरह वर्ष 2019 में इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला कि भारत में 5 करोड़ से अधिक बच्चे मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित है।
विशेषज्ञों के अनुसार 1999 से जब से भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था को अपनाया है, तब से पश्चिमी सभ्यता बहुत तेजी से भारतीय समाज में प्रबल हुई है इसने हमारी दैनिक आदतों में फास्टफूड, सॉफ्ट ड्रिंक्स और सोशल मीडिया को विशेष स्थान बना दिया है। नौनिहालों की रोजमर्रा की जिंदगी में हुए इस परिवर्तन से उनमें अवसाद, तनाव, चिड़चिड़ापन के मामले तेजी से बढ़ गये है।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में वर्ष 2024 में प्रकाशित अध्ययन के आंकड़े बताते है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड और फास्ट फूड के सेवन भारतीय बच्चों में स्ट्रेस का खतरा दुगुना हो गया है। डॉक्टरों का कहना है कि हमारे पोषण और मस्तिष्क का सीधा संबंध होता है। अध्ययनों से पता चलता है कि आज का युवा अल्ट्रा प्रोस्सेस्ड फूड का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। अल्ट्रा प्रोस्सेस्ड फूड को तैयार करने के लिए यह कई औद्योगिक प्रक्रियाओं से गुजरता है इससे अस्वस्थ वसा, चीनी, नमक, और कृत्रिम सामग्रियों की अधिकता होती है जो स्लीप प्रोब्लम को 40% बढ़ा देता है। जिससे लंबे समय में याददाश्त कम होती है और बच्चा Dementia का शिकार हो सकता है।
दरअसल जंक फूड न्यूरोट्रांसमीटर जैसे डोपामिन और सिरोटोनिन (हैप्पी हार्मोन) के स्त्रावण को बाधित करता है जिससे बच्चों में डिप्रेशन का खतरा बढ़ जाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि फास्ट फूड का सेवन व्यक्ति को अधीर (बेताब, बेसब्र) भी बनाता है। फास्ट फूड खाने से पेट बहुत जल्दी भर जाता है और जल्दी संतुष्टि मिल जाती है लगातार यदि फास्ट फूड खाया जाता है तो व्यक्ति को क्विक संतुष्टि की आदत हो जाती है और जब चीजें जल्दी नहीं आती तो व्यक्ति में चिड़चिड़ापन देखा जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि जंक फूड जल्दी ऊर्जा तो देते हैं क्योंकि इनमें शर्करा की मात्रा अधिक होती है लेकिन तेजी से बढ़ी शर्करा की मात्रा से शरीर डोपामिन के स्ताव को दबा देता है और शरीर शर्करा का आदि हो जाता है जैसे हम कोकीन या नशे के आदि हो जाते हैं। और जब शरीर को शर्करा नहीं मिलती तो वह धका और तनावग्रस्त महसूस करता है।
वर्ष 2023 में पत्रिका “फ्रंटियर्स” में प्रकाशित एक अध्ययन की मानें तो जो किशोर प्रतिदिन सात घंटे से अधिक समय ‘स्क्रीन ” (मोबाइल, टीवी, लैपटॉप) पर बिताते है उनमें डिप्रेशन की संभावना दुगुनी हो जातीहै। पिछले दशकों में भारत में बहुत तेजी से सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का विकास हुआ है। आज भारत का लगभग हर क्षेत्र डिजिटल हो गया है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी Covid-19 के बाद तेजी से डिजिटलीकरण हुआ है जिसने युवाओं का स्क्रीन टाइम प्रतिदिन लगभग 7-8 घंटे कर दिया है। इसके अलावा हर युवा तक मोबाइल और डाटा की पहुंच ने उसको सोशल मीडिया का आदि बना दिया है जिसने भारत को मानसिक अवसाद की राजधानी बना डाला है।

विशेषज्ञों की मानें तो युवाओं और बच्चों में तेजी से बढ़े इस तनाव और डिप्रेशन की एक वजह उनके शारीरिक श्रम में आयी कमी भी है। वर्ष 2010 में BMC मेडिसिन में छपे एक अध्ययन ने पुष्टि की कि वे लड़के और लड़कियां जो किसी भी प्रकार के खेल या शारीरिक व्यायाम में भाग नहीं है उनमें अवसाद, तनाव एंजाइटी होने का खतरा कहीं अधिक रहता है। पिछले दो दशकों में युवाओं के बीच आउडोर गेम का चलन कम हुआ है और इनडोर गेम की और उनका रुझान बढ़ गया है साथ ही एकल परिवार, प्रदूषण और बाल असुरक्षा की घटनाओं के बढ़ने से बच्चे बाहर खेलने नहीं जाते हैं और इससे उनका शारीरिक श्रम कम हो रहा है। जो उनमें तनाव और मानसिक अवसाद को बढ़ा रहा है।
डॉक्टर्स बताते हैं कि अवसाद की समस्या आनुवंशिक भी हो सकती है यदि किसी बच्चे के पास ऐसा जीन्स है जो तनाव वाले न्यूरोट्रांसमीटर के स्त्रावण को बढ़ाता है और बच्चा मानसिक रोगी हो सकता है। दरअसल किशोरावस्था के दौरान लड़के-लड़कियों में कई प्रकार के हार्मोनल बदलाव होते हैं जो उनकी सोचने की क्षमता और व्यवहार में बदलाव लाते हैं इसके अलावा यह समय बोर्ड परीक्षाओं का भी होता है जहाँ प्रतियोगिता में आगे निकलने और अपने आप को साबित करने की युवाओं की सोच उन्हे चिड़चिड़ा और मनीरोगी कर देती है।
कुल मिलाकर देखे तो बच्चों में अवसाद, तनाव, उदासी, डिप्रेशन और चिड़चिड़ेपन के तमाम कारण हो सकते हैं लेकिन कारणों से अलग हमें समाधानों के बारे में सोचने पर जोर देना चाहिए।
विशेषज्ञों की राय में अगर आपको लगता है कि आपके बच्चे में अवसाद के लक्षण दिख रहे हैं, तो उसे अनदेखा किए बिना तुरंत स्वास्थ्य विशेषज्ञ से संपर्क करके मदद लें। अभिभावकों को बच्चों को शारीरिक श्रम करने को प्रेरित करना चाहिए। सर्वे से पता चलता है कि आज भी भारत में मानसिक रोग और रोगी को एक टैबू के रूप में देखा जाता है और ग्रामीण इलाकों में इसको लेकर काफी कम जागरुकता है ऐसे मे नौनिहालों के बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक सरकार को एक मानसिक स्वास्थ्य समिति बनाना चाहिए। अतः भारत की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए आत्मविश्वास से भरी मानव पूंजी का सृजन करना अत्यंत आवश्यक है और इसके लिए हंसता, खिलखिलाता बचपन होना समय की मांग है।