कैंसर, डायबिटीज, हार्ट और किडनी की बीमारी से दूर रखता है सरसों का तेल

बाज़ार में बिक रहे तेलों में हानिकारक केमिकलों के इस्तेमाल के कारण कैंसर, डायबिटीज, हार्ट और किडनी की बीमारी होने का ख़तरा रहता है; ऐसे में खाने के लिए सरसों के तेल का इस्तेमाल करना बेहतर होता है।
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साल 1998 में दिल्ली और दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों में ड्रॉप्सी महामारी देखी गई थी। एक ऐसी बीमारी, जो ऊतकों में द्रव के निर्माण के कारण शरीर में सूजन का कारण बनती है। राष्ट्रीय राजधानी में कुछ लोग मारे गए और कई अस्पताल में भर्ती हुए।

शोधकर्ताओं का मानना था कि सरसों के तेल के सेवन से यह बीमारी हुई थी। जाँच करने पर सरसों तेल में आर्गेमोन मेक्सिकाना को मिला हुआ पाया गया। यह एक प्रकार का खरपतवार है, जो पीले फूलों के साथ ही बढ़ता है। हालाँकि जब जाँच आगे बढ़ी तो चौकाने वाले नतीजे सामने आए।

सरसों के साथ आर्गेमोन मेक्सिकाना की मिलावट संदिग्ध थी, क्योंकि सरसों एक रबी फसल है, जिसकी खेती सर्दियों में होती है। वहीं आर्गेमोन मेक्सिकाना अप्रैल-मई में उगता है। इसका मतलब सरसों के बीज के साथ आर्गेमोन मेक्सिकाना के मिलने की संभावना दुर्लभ थी। ऐसा संभव नहीं था, लेकिन नकारात्मक खबरें फैला दी गईं।

संदिग्ध मिलावट ने लोगों में दहशत पैदा कर दी। तत्कालीन सरकार ने उत्तर भारतीय राज्यों में कथित मौतों और अस्पताल में लोगों के भर्ती होने के कारण इसे महामारी घोषित कर दिया था। इसके साथ तेल की खपत के ख़िलाफ एक अभियान शुरू किया गया।

क्यों किया गया सरसों के ख़िलाफ़ प्रचार

कई अध्ययनों में सरसों के तेल को असुरक्षित बताया गया, जो भ्रम फैलाने के लिए किया गया था। दावा था कि इसमें इरुसिक एसिड है, जो निर्धारित सीमा से अधिक सेवन करने पर हृदय रोग का कारण बन सकता है। असल में यह रोग मिलावटी तेल से होता है, जो सरसों के साथ किसी भी तरह का तेल हो सकता है। भारत सरसों के तेल का प्रमुख बाज़ार था, जिसे ख़त्म करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने एक प्रकार से नकारात्मक अभियान चलाया, ताकि सरसों के तेल की जगह रिफाइंड और पाम को दिलाई जा सके। यह सब पैसा बनाने और अपना माल बेचने की कवायद थी।

दक्षिण भारतीय राज्यों ने ड्रॉप्सी के किसी भी मामले की रिपोर्ट नहीं की, जो बड़े पैमाने पर मूंगफली या नारियल के तेल का सेवन करते हैं।

महामारी ने आख़िरकार सरसों तेल की बिक्री को प्रभावित किया। पिछले दो दशकों में कई अन्य प्रकार के तेल, विशेष रूप से रिफाइंड ऑयल ने सरसों तेल के इस गैप को भरते हुए जबरदस्त फायदा उठाया है। असल में यह सरसों के तेल के ख़िलाफ़ एक षड्यंत्र था, जो बाद में दुनिया के सामने भी आया। सरसों के तेल को बदनाम किया गया और सरकार ने रातों-रात उस पर प्रतिबंध लगा दिया। कुल मिलाकर यह अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों के पाम जैसे तेलों की खपत करने के लिए खेला गया एक खेल था।

असल में परंपरागत रूप से भारत आज़ादी से पहले खाद्य तेल का निर्यातक था,आज़ादी के बाद कुछ समय के लिए लड़खड़ाने के बाद आत्मनिर्भर बन गया और 90 के दशक की शुरुआत में हमने पूरी तरह आत्मनिर्भरता हासिल कर ली, लेकिन आज हम वर्तमान में दुनिया के सबसे बड़े आयातक हैं। भारत सालाना लगभग 150 लाख मीट्रिक टन से ज़्यादा खाद्य तेल का आयात करता है, जो हमारी वार्षिक खाद्य तेल आवश्यकता का लगभग 65 प्रतिशत से ज़्यादा है। चाहे आप समोसा खाएं, डोसा खाएं या छोला-भटूरा, ब्रांडेड बिस्कुट या नमकीन, आलू पूरी या फिर घर पर बनी सब्जी। लगभग सभी में आयातित तेल का इस्तेमाल हो रहा है। वहीं आयातित पाम तेल या इसके डेरिवेटिव का उपयोग साबुन, शैम्पू, शेविंग क्रीम और अन्य सौंदर्य प्रसाधन में सामग्री के रूप में भी किया जाता है।

ये भी विडंबना है कि इस बात को तेज़ी से फैलाया गया है कि सरसों तेल को अन्य खाद्य तेलों के साथ मिलाने से पोषण संबंधी मामले, स्वाद और गुणवत्ता में सुधार होता है। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रसंस्करण उद्योग ने सम्मिश्रण का लाभ उठाया। पाम तेल को कभी-कभी सरसों के तेल में 80 फीसदी तक मिलाया गया। सरसों तेल में इस तरह के मिलावट की वजह से नतीजतन सरसों की खेती करने वाले किसानों का मुनाफा ख़त्म हो गया। इसकी वजह से देश में सरसों का उत्पादन प्रभावित हुआ।

पिछले दो दशकों में तेल आयात पर भारत की बढ़ती निर्भरता के पीछे का एक कारण इसे भी माना जा सकता है। 1990-91 में भारत सरसों के तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर था और आवश्यक 98 प्रतिशत तेल का उत्पादन करता था। इसके पीछे एक कारण 1986 में तत्कालीन सरकार की ओर से शुरू की गई तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन नीति भी थी। इसका मकसद सरसों के लिए उत्पादन और कृषि भूमि में सुधार करना था।

पिछले 25 वर्षों में सरसों के तेल उत्पादन के संबंध में एक बड़ी चिंता यह थी कि इसके लिए कृषि भूमि में वृद्धि नहीं हुई। यह लगातार 5.5-6 मिलियन हेक्टेयर ही रही है। नई नीतियां प्रभावी नहीं रही हैं और इसका उत्पादन करने वाले किसानों को भी समर्थन नहीं मिला है। डब्ल्यूटीओ के दबाव के कारण आयात शुल्क को भी सरकारों को बहुत निचले स्तर पर लाना पड़ा है। परिणामस्वरूप किसानों को सरसों का समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता, जिससे उनकी आमदनी प्रभावित हुई है।

देश में कैसी है सरसों की खेती

हाल के सालों में किसानों ने सरसों की खेती के लिए नई तकनीक अपनाई है। उन्हें तेल के मुकाबले न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है। इससे उनकी आमदनी अच्छी हुई है। सरसों का उत्पादन औसत प्रति यूनिट 1.5 टन तक पहुँच गया है। हालाँकि सरसों की खेती के लिए कृषि भूमि क्षेत्र में ज़्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई है।

असल में जब खाने के तेल की बात आती है तो आपको कुछ चीजों को समझने की ज़रूरत होती है। सरसों तेल के न्यूट्रिशनल वैल्यू और रिफाइंड ऑयल के न्यूट्रिशनल वैल्यू में बहुत अंतर है। आयातित रिफाइंड ऑयल में न्यूट्रिशनल वैल्यू काफी कम होता है। इसका निर्माण कई हानिकारक पदार्थों से होता है।

कितना ख़तरनाक है रिफाइंड ऑयल

100 ग्राम सरसों तेल में इतने ही रिफाइंड ऑयल के मुकाबले मोनोअनसैचुरेटेड (60 ग्राम) की मात्रा दोगुनी होती है। रिफाइंड ऑयल का मतलब ही है कि इसे बार-बार रिफाइन किया गया है। इसके ट्रीटमेंट में तेल को ऊंचे तापमान पर रखकर फिर काफी नीचे किया जाता है। गर्म-ठंडा करने की प्रक्रिया कई बार की जाती है। इस दौरान हेक्सेन (पेट्रोलियम पदार्थ) एवं अन्य हानिकारक केमिकलों का भी प्रयोग किया जाता है, जिससे तेल की संपूर्ण गुणवत्ता नष्ट हो जाती है।

हानिकारक केमिकलों के इस्तेमाल के कारण कैंसर, डायबिटीज, हार्ट और किडनी की बीमारी होने का ख़तरा रहता है। कुल मिलाकर खाने के लिए सरसों के तेल का इस्तेमाल करना बेहतर होता है। इसमें भी पीली सरसों का तेल खरीदेंगे तो सोने पर सुहागा होगा। यह आपके स्वास्थ्य के लिए सही है और बीमारियों से भी बचाएगा। अपने लिए नहीं तो अपने परिवार के लिए सही तेल का निर्णय करें।

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