इन दिनों ‘नेचुरल ग्रीन हाउस कोंडागांव माडल’ चर्चा में है। पॉलीहाउस लगाकर अपनी आमदनी बढ़ाने का सपना तो हर किसान देखता है। लेकिन सभी तरह के दान-अनुदान के बावजूद ‘पाली हाउस’की लागत सुन कर किसानों का दिल बैठ जाता है। ऐसे में अगर सिर्फ एक से डेढ़ लाख रुपए में चालीस लाख रुपए प्रति एकड़ वाले पाली हाउस का सस्ता, कारगर, प्राकृतिक विकल्प मिल जाए तो बात ही क्या है।
ऐसा ही करिश्मा कर दिखाया है बस्तर कोंडागांव के किसान वैज्ञानिक डॉ राजाराम त्रिपाठी ने। जिन्हें हाल ही में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के हाथों देश के सर्वश्रेष्ठ किसान अवार्ड से नवाज़ा गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान उन्हें इसी बहुचर्चित डेढ़ लाख रूपये में तैयार एक एकड़ के “नेचुरल ग्रीन हाउस” के लिए दिया गया। जिसमें ऑस्ट्रेलियन-टीक के पेड़ों पर काली मिर्च की लताएँ चढ़ाकर एक एकड़ से वर्टिकल फार्मिंग के ज़रिए 50 एकड़ तक का उत्पादन लेने का सफल प्रयोग किया। इन दिनों हर किसान के मन में नेचुरल ग्रीन हाउस को लेकर कई सवाल घूम रहे हैं। यहाँ उससे जुड़ें सभी संभव सवालों का ज़वाब देने की कोशिश की जा रही है।
तुलना : सस्ते नेचुरल ग्रीन हाउस और हाईटेक पॉली-हाउस की
1- पराबैंगनी (अल्ट्रावायलेट) किरणों से बचाव
पॉली हाउस में यह पराबैंगनी किरणों से ऊपर लगाई गई पॉलीथिन शीट की क्षमता के अनुसार एक हद तक बचाव करता है।
नेचुरल ग्रीन हाउस में इसकी हरी छतरी भी इसमें लगी फसलों का पराबैंगनी किरणों से प्रभावी और ज़रूरी बचाव करने में सक्षम है।
2- धूप से बचाव
पॉलीहाउस में लगाई गई फिल्म क्षमता के अनुसार ही ज़रूरी धूप का 60 से 70 फीसदी तक बचाव करती है। जिससे पौधों को प्रकाश संश्लेषण के लिए समय मिलता है, और इससे ज़्यादा उत्पादन होता है।
नेचुरल ग्रीन हाउस में भी 60 से 70 प्रतिशत तक वृक्षों से नैसर्गिक छाया मिलती है। यह छाया सूर्य की गति के अनुसार रहती है जिससे प्रकाश संश्लेषण के लिए पूरा समय मिलता है, और उत्पादन भी ज़्यादा होता है।
3- गर्मी, सर्दी, ओला और बारिश से बचाव
पॉली हाउस में ओला बारिश से तो बचाव होता ही है, साथ ही एक सीमा तक तापक्रम को भी नियंत्रित रखा जा सकता है। पर इस काम में महँगी बिजली का खर्चा होता है। सोलर लगाने पर सोलर का भी एक मुश्त खर्चा ज़्यादा बैठता है। तेज हवा तूफान में इसके पूरी तरह नष्ट होने की आशंका बनी रहती है।
नेचुरल ग्रीन हाउस में भीतर के तापमान और बाहर के वातावरण में 4 डिग्री तक का अंतर रहता है। यानी गर्मी में ठंडा और ठंडी में गर्म रहता है, जिससे लगभग सभी सामान्य फसलें गर्मी , सर्दी , बरसात तीनों मौसम में हो सकती हैं । तेज हवा तूफान में भी इनमें कभी भी दो फीसदी से ज़्यादा का नुकसान नहीं देखा गया है ।
4- हानिकारक कीट पतंगों और बीमारियों से बचाव
पॉली हाउस चारों ओर से बंद होने के कारण बाहर से आने वाली बीमारियों और कीट पतंगों से फसल की रक्षा करता है। पर इससे पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो जाती है और उत्पादन की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है।
नेचुरल ग्रीन हाउस में नैसर्गिक समेकित रक्षा प्रणाली ( इंटरग्रेटेड प्रोटेक्शन सिस्टम ) का उपयोग होता है। इससे फसलें बीमारियों और कीट पतंगों से अपना प्रभावी बचाव कर लेती है। नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होती है और मिलने वाले उत्पादन की गुणवत्ता बेहतरीन होती है।
5- नमी की रक्षा
पॉली हाउस में यांत्रिक विधि से नमी का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है। लेकिन कूलर, एग्जास्ट जैसे उपकरणों में बिजली पर नियमित खर्च होता है।
नेचुरल ग्रीन हाउस प्रति एकड़ लगे 700-800 पौधों से निकलने वाली नमी को पेड़ों की हरी दीवार के ज़रिए तथा ऊपर पेड़ों की पत्तियों की तनी कैनोपी से संरक्षित करती है। साथ ही पेड़ों से नियमित गिरने वाली पत्तियों की परत भूमि की बहुमूल्य नमी को तेजी से विमुक्त होने से रोकती है।
6- सिंचाई
पॉलीहाउस में ‘हाईटेक इरीगेशन’ पद्धतियां अपनाना अनिवार्यता होती है,जिस पर काफी खर्च आता है। साथ ही इनके नियमित रख रखाव पर भी खर्च होता है।
नेचुरल ग्रीन हाउस में सिंचाई की परंपरागत पद्धतियों जैसे नाली विधि ( क्यारी) द्वारा या फिर ड्रिप सिस्टम, (स्प्रिंकलर) या माइक्रो स्प्रिंकलर में से किसी का भी प्रयोग फसलों की आवश्यकता के आधार पर कर सकते हैं। साथ ही इसमें लगने वाली परंपरागत सिंचाई पद्धतियों को विशेष तकनीकी देखभाल की आवश्यकता नहीं होती । कोई विशेष नियमित खर्चा भी नहीं होता।
नेचुरल ग्रीनहाउस से मिलने वाले कुछ और फायदे
।- नेचुरल ग्रीन हाउस में लगाए गए विशेष प्रकार के पेड़ों की जड़ों में नियमित नाइट्रोजन फिक्सेशन के द्वारा और पेड़ों की गिरी हुई पत्तियों से तैयार बेहतरीन गुणवत्ता की जैविक खाद मुफ़त मिल जाती है। जबकि पाली हाउस हमें हर बार रासायनिक खाद या जैविक खाद बाज़ार से खरीद कर डालना होता है।
2- नेचुरल ग्रीन हाउस में पेड़ों पर बसेरा करने वाली चिड़ियों के ज़रिए कीट पतंगों पर नियंत्रण तो होता ही है, साथ ही ही उनकी बीट से बहु उपयोगी माइक्रोन्यूट्रिएंट भी ज़मीन को नियमित रूप से मिलता है। जबकि पाली हाउस पर कीटनाशक दवाइयाँ और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स खरीद कर डालने होते हैं।
3- नेचुरल ग्रीन हाउस के पेड़ों के तने के ज़रिए बारिश का जल धरती में धीरे-धीरे समा जाता है और इस तरह नियमित रूप से वाटर हार्वेस्टिंग होती है । धरती का जलस्तर भी ऊपर आ जाता है। जबकि पाली हाउस में खुद से वाटर हार्वेस्टिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती।
4- नेचुरल ग्रीन हाउस बहुत टिकाऊ होता है गर्मी, सर्दी ओला तेज बारिश से अपनी रक्षा तो करता ही है साथ ही फसल की भी रक्षा करता है। हर 10 साल में ज़रूरी कटाई छटाई के साथ 25 से 30 सालों तक इसका लाभ उठाया जा सकता है।
जबकि पाली हाउस की फिल्मों और फिक्सचर्स की अधिकतम आयु सात आठ साल ही होती है। कई बार तो तेज़ हवा तूफान में पहले साल ही इसकी पॉलिथीन फट जाती है और पूरा ढांचा तहस-नहस हो जाता है।
5- पॉलीहाउस करीब 10 साल बाद कबाड़ में बदल जाता है जबकि नैसर्गिक ग्रीनहाउस 10 साल बाद करोड़ों रुपयों की बहुमूल्य लकड़ी देता है।
6- पाली हाउस में 10-12 फीट ऊंचाई तक ही वर्टिकल फार्मिंग से आमदनी बढ़ाई जा सकती है। जबकि नेचुरल ग्रीन हाउस से ऑस्ट्रेलियन टीक के पेड़ों पर 70-80 फीट की ऊंचाई तक काली मिर्च के गुच्छे लदे रहते हैं। इस तरह पाली हाउस की तुलना में नेचुरल ग्रीनहाउस की आमदनी काफी बढ़ जाती है।
7 – राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के सरकारी मानदंडों के अनुसार 1 एकड़ में पॉलीहाउस बनाने का खर्च लगभग 40 लाख रुपए होता है। जो भारत के किसानों के लिए बहुत है। जबकि नेचुरल ग्रीन हाउस में कुल एकमुश्त खर्चा एक से डेढ़ लाख रुपया ही बैठता है।
पेड़ साल भर में लगभग 30 लाख रु. की ऑक्सीजन देता है। इसके प्लांटेशन से कार्बन ट्रेडिंग का लाभ भी मिलता है । साथ ही हर साल प्रति एकड़ लगभग 2 लाख की बेहतरीन जैविक खाद भी देता है।
नेचुरल ग्रीनहाउस मॉडल को लेकर पूछे जाने वाले कुछ ज़रूरी सवालों के ज़वाब
सवाल- इसे कैसी मिट्टी और कैसी जलवायु चाहिए? देश के किन- किन भागों में इसकी खेती की जा सकती है?
जवाब – ऐसे क्षेत्र जहाँ काफी बर्फबारी होती हो, या पूरी तरह से रेगिस्तान हो वहाँ यह मॉडल सफल नहीं हो पाएगा। बाकी भारत के शेष भागो में “नेचुरल ग्रीन हाउस” का यह मॉडल पाली हाउस के सफल और सस्ते विकल्प के रूप में काम कर सकता है। यह कंकरीली, पथरीली, बँजर भूमि में भी सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। यह बँजर भूमि को कुछ ही सालों में भरपूर उपजाऊ बना देता है।
यह सफल मॉडल इस समय कई राज्योँ के प्रगतिशील किसानों के द्वारा सफलतापूर्वक अपनाया जा चुका है।
सवाल- इसके लिए कितनी सिंचाई की ज़रूरत पड़ती है?
जवाब – वैसे तो यह प्लांटेशन बिना पानी के सूखी ज़मीन में भी बरसात की शुरुआत में लगाया जा सकता है । लेकिन थोड़ी सिंचाई की व्यवस्था अगर रहे तो ज़्यादा उत्पादन का मिल सकता है।
सवाल- यह ऑस्ट्रेलियन टीक क्या है, और एटीबीपी का कोंडागांव मॉडल आखिर क्या है। इसमें काली मिर्च का क्या रोल है ?
जवाब – माँ दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर द्वारा विकसित बबूल की विशेष प्रजाति है। जिसे विपणन की भाषा में प्रायः “ऑस्ट्रेलियन-टीक'” कहा जाता है। इसके साथ ऑस्ट्रेलिया शब्द से जुड़ने का कारण संभवतः यह है कि ऑस्ट्रेलिया में इसका प्लांटेशन बड़े मात्रा में किया जाता रहा है। दूसरा इसकी बहुमूल्य लकड़ी ऑस्ट्रेलिया से भारत आयात की जाती है।
बेहतरीन लकड़ी देने वाली इस विशेष प्रजाति की कई विशेषताएँ हैं।
जैसे यह देश के सभी भागों में सभी तरह की जलवायु में बिना विशेष सिंचाई अथवा देखभाल के सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है।
इसके बढ़ने की गति महोगनी, शीशम, टीक, मिलिया डुबिया यहाँ तक कि नीलगिरी को भी पीछे छोड़ देती है। और यह पेड़ लगभग 7 से 10 साल में ही काफी ऊंचा ही नहीं बल्कि काफी मोटा भी हो जाता है।
यह सागवान, महोगनी, शीशम जैसी बेहतरीन मज़बूत, हल्की, खूबसूरत, टिकाऊ बहुमूल्य इमारती लकड़ी देता है।
इतना ही नहीं, यह उचित देखभाल से यह अन्य वृक्षों की तुलना में दोगुनी मात्रा में इमारती लकड़ी देता है।
इसका फायदा यह है कि यह पेड़, वायुमंडल से नाइट्रोजन लेकर मिट्टी में स्थित राइजोबियम जो की मिट्टी का जीवाणु है, तथा नाइट्रोजन का यौगिकीकरण कर मिट्टी में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करता है। इस प्रकार यह फसलों की नाइट्रोजन यानी ‘यूरिया’ की आवश्यकता को जैविक विधि से पूरा करता है। इसे जैविक यूरिया की फैक्ट्री कह सकते हैं।
इसी जैविक नाइट्रोजन खाद के कारण, इन पेड़ों पर चढ़ाई गई काली मिर्च की लताओं से काली-मिर्च का उत्पादन देश के अन्य भागों में लिए जा रहे उत्पादन से काफी ज़्यादा हो रहा है।
सवाल- इसके पौधे कहाँ मिलते हैं तथा इसकी तकनीक कैसे मिलेगी, क्या तकनीक अथवा प्रशिक्षण का कोई चार्ज भी है ?
जवाब – इसके पौधे “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर” से प्रशिक्षित स्थानीय आदिवासी महिलाओं के समूह द्वारा किसानों के ऑर्डर पर ही तैयार किए जाते हैं। इस मॉडल को अपने खेतों में लगाने वाले किसानों को पौधे देने के पहले खेतों पर विधिवत तकनीकी तथा व्यावहारिक जानकारी दी जाती है जो पूरी तरह निशुल्क है।
सवाल – क्या किसान ‘नेचुरल ग्रीन हाउस’ मॉडल को देखने समझने कोंडागांव आ सकते हैं और क्या इसका कोई शुल्क भी है? इसके लिए कैसे संपर्क किया जा सकता है?
जवाब- किसानों के लिए “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर” भ्रमण पूरी तरह से निशुल्क है।
इसके लिए फोन नंबर (0771 ) 2263433 या +91-9425265105 पर सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे के बीच संपर्क कर वहाँ जाने का समय तय कर सकते हैं। किसान नि:शुल्क जानकारी के लिए वेबसाइट e www.mdhherbals.com और ईमेल mdhorganic@gmail.com से भी संपर्क कर सकते हैं।
सवाल – इसे कम से कम कितनी जगह से शुरू किया जाना चाहिए?
जवाब – इस मॉडल की खूबी यह है कि यह जितने बड़े क्षेत्रफल पर किया जाएगा, लागत उतनी ही कम होगी और लाभ ज़्यादा होगा। क्योंकि क्षेत्र बढ़ने से पेड़ों की सँख्या भी बढ़ती है, और ज़्यादा पेड़ों से और बेहतर माइक्रोक्लाइमेट तैयार होता है। जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। लेकिन अगर ज़मीन या लागत की कोई समस्या हो तो न्यूनतम एक एकड़ पर भी किया जा सकता है।
सवाल – इस एटी-बीपी मॉडल या “नेचुरल ग्रीन हाउस” की प्रति एकड़ लागत कितनी है? और इससे सालाना आमदनी कितनी हो रही है? एक बार लगाने पर यह मॉडल कितने सालों तक लाभ देगा?
जवाब – दरअसल “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेन्टर” कोंडागांव द्वारा विकसित विशेष तकनीक से ऑस्ट्रेलियन टीक और काली मिर्च का प्लांटेशन ही ‘नेचुरल ग्रीन हाउस’ की तरह काम करता है। वर्तमान तकनीक के पॉलीथीन से ढके और लोहे के फ्रेम वाले पॉलीहाउस बनाने में एक एकड़ में लगभग 40 लाख का खर्च आता है, वहीं इस “प्राकृतिक ग्रीन हाउस” के निर्माण में कुल मिलाकर प्रति एकड़ केवल “एक से डेढ़ लाख” रुपए का ही खर्च आता है। यानी डेढ़ लाख रुपए में पॉलीहाउस से बेहतर , ज़्यादा टिकाऊ और शत-प्रतिशत सफल ग्रीन हाउस तैयार हो जाता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस 40 लाख रुपए प्रति एकड़ में लोहे और प्लास्टिक से बनने वाले पॉलीहाउस की आयु 7 से 10 साल की होती है। फिर यह कबाड़ के भाव बिकता है। जबकि कोंडागांव मॉडल के “नेचुरल ग्रीन हाउस” बिना किसी अतिरिक्त लागत 10 साल में दो करोड़ तक की इमारती लकड़ी भी देता है। इसके साथ ही प्रति एकड़ 5 लाख रुपए तक काली मिर्च से सालाना नियमित आमदनी भी मिलने लगती है। यह मॉडल लगभग 25-30 सालों तक बड़े आराम से लाभ देता है
(सभी तथ्य और आंकड़े “माँ दंतेश्वरी हर्बल फार्म ” पर पिछले दो दशकों में किए गए सफल ज़मीनी प्रयोगों पर आधारित हैं।)