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यूपी के लोगों को चाहिए साफ हवा और पानी

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मुक्ता पाटिल

भारत के सर्वाधिक आबादी वाले शहर उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए इस चुनाव में स्वच्छ हवा तीसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रहा, लेकिन यह उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता है।

उत्तर प्रदेश की हवा हजारों ईंट भट्टियों, चीनी के कारखानों और नए उत्सर्जन मानकों का उल्लंघन करते कोयला आधारित बिजली संयंत्रों द्वारा लगातार बद्तर होती रही है। उत्तर प्रदेश अब दुनिया के सबसे खराब हवा वाले राज्यों में से एक है।

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भारत के सबसे प्रदूषित क्षेत्रों का सातवां हिस्सा और खराब वायु गुणवत्ता के साथ देश के आधे शहर इस राज्य में ही स्थित हैं।

यह राज्य प्रदूषण नियंत्रण व्यवस्था, स्वच्छ हवा और साफ-पानी से संबंधित कानूनों को लागू करने में सक्षम नहीं है और इसे लागू करने के प्रयास का बड़े परिणाम में विरोध प्रदर्शन झेलना पड़ा है।

कोयला आधारित बिजली संयंत्र प्रमुख प्रदूषक, नए मानक लागू नहीं

नई दिल्ली स्थित संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वाइरन्मन्ट’ द्वारा दो साल के अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के बिजली संयंत्र भारत के सबसे प्रदूषित और सबसे कम पर्यावरण रैंकिंग में से हैं। अध्ययन के लिए चुने गए 47 संयंत्रों में से चार (कुल नमूने की क्षमता में 11 फीसदी की हिस्सेदारी) उत्तर प्रदेश में हैं। इनमें से गंभीर रूप से प्रदूषित जिले सोनभद्र में स्थित राज्य के स्वामित्व वाली ‘ओबरा ‘और ‘अनपरा-ए-बी’ का प्रदर्शन सबसे बद्तर रहा है। इनका स्थान क्रमश: 40वें (12 फीसदी स्कोर) और 46वें (8 फीसदी स्कोर) पर रहा है। सीएसई की रिपोर्ट में एनटीपीसी-सिंगरौली को भी काफी प्रदूषित पाया गया है।”

11 बिजली संयंत्र सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश में

11 बिजली संयंत्र सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। भारत में कोयला आधारित बिजली का करीब 10 फीसदी उत्तर प्रदेश उत्पन्न करता है। कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के उत्सर्जन से जो प्रदूषण फैलते हैं, वह विशेष रूप से सर्दियों में सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं। इससे प्रदूषण का स्तर और बढ़ता है।

कोयले से 75 फीसदी तैयार होती बिजली

कोयले से भारत में लगभग 75 फीसदी बिजली तैयार होती है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने मई 2015 में विस्तार से बताया है। ‘सभी को बिजली’ प्रदान करने के लक्ष्य के साथ भारत में कोयला आधारित बिजली उत्पादन क्षमता वर्ष 2012 और 2022 के बीच दोगुना हो जाने का अनुमान है। इस तरह के प्रदूषण से जो प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभाव पड़ता है, उसमें अकाल मृत्यु और स्वास्थ्य लागत में वृद्धि शामिल है। इस पर इंडियास्पेंड ने मई 2015 में बताया है। हवा की गुणवत्ता पर स्वतंत्र ढंग से शोध कर रहे ऐश्वर्या मदिनेनी कहती हैं, “ गंगा के मैदान के ऊपर वायुमंडलीय हवा में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है, क्योंकि प्रदूषण पैलाने वाले तत्वों के कण तितर-बितर नहीं होते हैं।”

उद‍्देश्य: वायुमंडल के वायु गुणवत्ता में सुधार करना

दिसंबर 2015 में पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के लिए वायु गुणवत्ता मानकों में संशोधन किया है। नए मानकों का उद्देश्य वायुमंडल के वायु गुणवत्ता में सुधार करना है। तय किया गया है कि पार्टिकुलेट मैटर या जिसे पीएम 10 बोला जाता है, के उत्सर्जन को कम कर 0.98 किलो / मेगावॉट, सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम कर 7.3 किलो / मेगावॉट और नाइट्रोजन के आक्साइड के उत्सर्जन को कम कर 4.8 किलो / मेगावॉट करना है। वर्ष 2015 से पहले भारत में ऐसा कोई मानक तय नहीं था।

निगरानी और विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव से समस्या और बद्तर

यूपीपीसीबी हवा की गुणवत्ता का लाइव निगरानी प्रदान नहीं करता है और जब हमने इसके वेबसाइट की जांच की तो पाया कि इसे पिछले साल यानी दिसंबर 2016 में अपडेट किया गया था। आगरा, लखनऊ, कानपुर और वाराणसी, इन चार शहरों में सीपीसीबी की ओर से ऑनलाइन निगरानी स्टेशन हैं। न तो आगरा और कानपुर का निगरानी स्टेशन और न ही लखनऊ का तीन स्टेशन पीएम 10 का स्तर दिखाता है। वाराणसी में तीन सीपीसीबी मॉनीटर स्टेशन में से केवल एक पीएम 2.5 माप सकता है। पीएम 2.5 से सबसे अधिक नुकसान उन लोगों को होता है, जो फेफड़े, दिल और सांस से संबंधित बीमारियों से पीड़ित होते हैं। अस्थमा के रोगियों के लिए ये जानलेवा है। इसकी तुलना में, दिल्ली में 13 सीपीसीबी निगरानी स्टेशन हैं जो रोजाना पीएम 2.5, पीएम 10 और वायु सूचकांक (एक्यूआई) की लाइव रिपोर्ट प्रदान करते हैं।

लोग चाहते हैं स्वच्छ हवा,पर इसे लागू करना कठिन

इंडियास्पेंड के लिए एक डेटा विश्लेषक और जनता की राय पर काम करने वाली संस्था ‘फोर्थलायन’ द्वारा आयोजित सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए हवा की गुणवत्ता आगामी विधानसभा चुनाव में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रहा।

यहां की हवा दूषित

सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार, 46 फीसदी शहरी व 26 फीसदी ग्रामीण लोगों का मानना है कि जिस हवा में वे सांस लेते हैं, वह हवा प्रदूषित है।

बातचीत में मतदाताओं ने बताया

‘फोर्थलायन’ ने उत्तर प्रदेश में पंजीकृत 2,513 लोगों से हिंदी में फोन के माध्यम से बातचीत की। फोर्थलायन के अनुसार उनके सर्वेक्षण का नमूना उत्तर प्रदेश के शहरी और ग्रामीण लोगों के साथ सामाजिक आर्थिक, उम्र, लिंग और जाति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह सर्वेक्षण 24 जनवरी से 31 जनवरी 2017 के बीच आयोजित किया गया था।

बिजली कटौती मुख्य मुद‍्दा

बिजली कटौती भी लोगों के लिए प्रमुख मुद्दा रहा है। इसके बाद रोजगार, साफ पानी और हवा की गुणवत्ता मुख्य मुद्दे रहे हैं। इस पर इंडियास्पेंड ने 6 फरवरी, 2017 को विस्तार से बताया है। सर्वेक्षण में शामिल 40 फीसदी लोगों का कहना है कि बिजली उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, जबकि 28 फीसदी के लिए साफ पानी और 16 फीसदी के लिए हवा की गुणवत्ता का मामला था। लेकिन फिर भी यहां ईंट भट्टों को हटाने के प्रयास में विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा है।

46 शहरों में मापी गई वायु की गुणवत्ता

हवा की गुणवत्ता के संदर्भ में, भारत के सबसे प्रदूषित शहर उत्तर प्रदेश में ही हैं। इनमें इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ, गाजियाबाद और आगरा बहुत ऊपर हैं। 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 46 शहरों में हवा की गुणवत्ता मापी गई है।

परेशानी

प्रदूषण बन रहा बीमारियों का कारण

पीएम 10, मानव बाल से 40 गुना ज्यादा महीन होता है, जो कैंसर और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है। सल्फर डाइऑक्साइड से सांस की समस्याएं होती हैं। नाइट्रोजन के ऑक्साइड दूसरे तरह के प्रदूषण को फैलाने में मदद करता है, जिससे मानव स्वास्थ्य को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। जैसे कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड जहरीली अम्लीय वर्षा का कारण हो सकता है। नाइट्रोजन के ऑक्साइड ओजोन परत को बढ़ाने के लिए भी जिम्मेदार है। मदिनेनी कहती हैं, “नए मानकों को वर्ष 2017 के अंत तक लागू किए जाने की संभावना है। हालांकि मानकों का पालन नहीं करने पर किसी तरह के दंड का उल्लेख नहीं किया गया है। ”

प्रदूषण के मामले में उत्तर प्रदेश आगे

भारत के 43 प्रदूषित क्षेत्रों में से छह और 10 बद्तर हवा वाले इलाकों में से पांच उत्तर प्रदेश में स्थित है। वर्ष 2009 और 2013 के बीच उत्तर प्रदेश के छह औद्योगिक क्षेत्रों में से केवल आगरा और वाराणसी राष्ट्रीय प्रदूषण सूचकांक पर अपने स्कोर में सुधार करने में कामयाब रहे हैं। सिंगरौली की स्थिति और खराब हुई है। सात वर्षों से भारत का केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) व्यापक पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक (सीईपीआई) का उपयोग कर औद्योगिक क्षेत्रों की रैंकिंग करता रहा है, जिसमें शून्य से 100 तक के बीच के अंक में शहरों की स्थिति को मापा जाता है। ज्यादा अंक बिगड़ते प्रदूषण और स्वास्थ्य के खतरों का संकेत है। 70 से अधिक स्कोर के साथ वाले क्षेत्र अत्यधिक प्रदूषित माने जाते हैं।

दो ऐसे शहर यूपी में ही हैं, जहां एक भी दिन सांस लेने लायक हवा नहीं

कानपुर पर दो साल की निगरानी रखी गई थी, गाजियाबाद में 127 दिनों की ही निगरानी रखी गई है। यह संभव है कि कई शहरों में हवा की गुणवत्ता को आधार मानकर अच्छे और बुरे दिनों की संख्या की गणना नहीं की गई हो। मैथनेनी कहती हैं, “पूरे वर्ष निगरानी करना आदर्श है, जिससे मौसमी बदलाव भी देखे जा सकें। उत्तर प्रदेश के मामले में, पूरे राज्य में मॉनिटर लगाए जाने चाहिए। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता के साथ ही औद्योगिक क्षेत्रों का भी अध्ययन हो सकेगा। ”

ईंट भट्टों और मौसमी प्रदूषकों से समस्या हो रही है गंभीर

ईंट भट्टे भारत में कोयले के तीसरा सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। उत्तर प्रदेश में 18,000 से अधिक ईंट भट्टे हैं, जो हर साल दिसंबर और जून के बीच मौसमी रूप में संचालित होते हैं। एक अनुसंधान और सलाहकार संस्थान ‘ग्रीनटेक नोलेज सॉल्यूशन’ के निदेशक समीर मैथेल कहते हैं, “हर साल राज्य करीब 5000 करोड़ ईंटें बनाता है और करीब 30 लाख लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है।” मई 2016 में उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) ने निर्देश दिया कि उत्सर्जन कम करने के लिए सभी ईंट भट्टों को अपनी प्रौद्योगिकी को उन्नत करना होगा। लेकिन ऐसे निर्देश पर काफी विरोध का सामना करना पड़ा है। मैथेल कहते हैं, “यह उद्योग रोजगार का महत्वपूर्ण स्रोत है और भट्टों का नवीनीकरण और इनकी वजह से फैल रहे प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार की ओर से नीतिगत हस्तक्षेप और संवेदनशीलता की जरूरत है।” गुड़ उत्पादन इकाइयां और चीनी मिल, ये दोनों मौसमी उद्योग भी स्थानीय प्रदूषण में इजाफा करते हैं।

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