देश में शायद ही कोई ऐसी रसोई होगी जहाँ पर दाल न पकती हो; भारतीय थाली में दाल ज़रूरी हिस्सा होती हैं, वो चाहे पंजाब की दाल मखनी हो या फिर दक्षिण भारत में सांभर।
कहते हैं जैसा देश वैसा वेष, ऐसा ही दाल के साथ भी हुआ; अरहर, चना, उड़द, मूँग को दो टुकड़ों में करके दाल बनी तो चने को पीसकर बेसन, फिर उसी बेसन से लड्डू, सेव और न जाने कितने व्यंजन।
अरहर दाल
अरहर की दाल को तुवर भी कहा जाता है। इसमें खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। यह आसानी से पचने वाली दाल है, इसलिए रोगी को भी दी जा सकती है, लेकिन गैस, कब्ज और साँस के रोगियों को इसका सेवन कम ही करना चाहिए।
भारत में अरहर की खेती तीन हज़ार साल पहले से होती आ रही है, लेकिन भारत के जंगलों में इसके पौधे नहीं पाये जाते हैं। अफ्रीका के जंगलों में इसके जंगली पौधे पाये जाते हैं। इस आधार पर इसका उत्पत्ति स्थल अफ्रीका को माना जाता है।
कई जगह पर तो अरहर के बीज से दाल अलग करने से पहले उसे भूना जाता है, फिर उन्हें चक्की से अलग किया जाता है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में तो इसे ही दाल माना जाता है, रिश्तेदार आए या फिर कोई कार्यक्रम हो, अरहर की दाल के बिना सब अधूरा रहता है।
ये सबसे लंबी फसल होती है, जिसकी बुवाई खरीफ में की जाती है और कटाई रबी में की जाती है।
मूँग दाल
मूँग साबुत हो या धुली, पोषक तत्वों से भरपूर होती है। अंकुरित होने के बाद तो इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्वों कैल्शियम, आयरन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विटामिन्स की मात्रा दोगुनी हो जाती है। बीमारी में भी डॉक्टर मूँग दाल खाने की सलाह देते हैं।
मूँग दाल भी कई तरह की होती है। एक खड़ी मूँग, जो बीज होते हैं, इन्हें ऐसे ही बनाया जाता है।
मूँग छिलका दाल को आधा कर दिया जाता है, यह आम तौर पर पीले और हरे रंग की होती है, क्योंकि उसका छिलका पूरी तरह से हटा नहीं होता है।
धुली मूँग दाल, जिसे बिना छिलके वाली मूंग दाल के रूप में भी जाना जाता है। इसमें बाहरी छिलके को पूरी तरह से हटा दिया जाता है। वे आम तौर पर पीले होते हैं और छोटे, चमकीले पीले दाल जैसे बीज के रूप में दिखाई देते हैं।
इसकी खेती ज़ायद और खरीफ दोनों सीजन में की जाती है। इससे सिर्फ दाल ही नमकीन और हलवा भी बनता है।
उड़द दाल
उर्द या उड़द के दही बड़े तो आपको भी पसंद ही होंगे। उर्द को संस्कृत में ‘माष’ या ‘बलाढ्य’; बंगला’ में माष या कलाई; गुजराती में अड़द; मराठी में उडीद; पंजाबी में माँह, अंग्रेजी, स्पेनिश और इटालियन में विगना मुंगों; जर्मन में उर्डबोहने; फ्रेंच में हरीकोट उर्ड; पोलिश में फासोला मुंगों; पुर्तगाली में फेजों-द-इंडिया और लैटिन में ‘फेसिओलस रेडिएटस’, कहते हैं।
ये काली और हरी दो तरह की दाल होती है। इसमें भी कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, कैल्शियम व प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं।
उड़द दाल भी कई तरह की होती है। एक साबुत या खड़ी उड़द, जो साबुत बीज होते हैं इन्हें ऐसे ही बनाया जाता है।
उड़द छिलका दाल को आधा कर दिया जाता है, यह आम तौर पर पीले और हरे रंग की होती है, क्योंकि उसका छिलका पूरी तरह से हटा नहीं होता है।
धुली या धोई उड़द दाल, जिसे बिना छिलके वाली दाल के रूप में भी जाना जाता है। इसमें बाहरी छिलके को पूरी तरह से हटा दिया जाता है।
इसकी खेती ज़ायद और खरीफ दोनों में सीजन में की जाती है।
चना दाल
चना जिसे रात भर भिगोकर सुबह तो आप भी खाते होंगे। इसी चने के आटे को बेसन कहते हैं। इसी से नमकीन, सेव, लड्डू और न जाने कितने व्यंजन बनाए जाते हैं। इसमें प्रोटीन की भरपूर मात्रा होती है।
इसकी खेती रबी सीजन में होती है और इसी से चने की दाल बनायी जाती है। जो पीले रंग की होती है।
चने में विटामिन, मिनिरल और फाइबर की काफी मात्रा होती है। यह सेहत के लिए काफी लाभदायक है। जो वजन को नियंत्रित करने में, पाचन तंत्र का स्वास्थ और अन्य घातक बीमारियों से बचने में मदद करता है।
मसूर दाल
रबी के सीजन में उगाई जाने वाली मसूर भी तीन तरह की होती है; हरी, लाल और काली। मसूर में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, आयरन, राइबोफ्लेविन, थायमिन और नियासिन पाया जाता है जो शरीर के लिए ज़रूरी होते हैं।
इसका भी इस्तेमाल दाल के साथ ही नमकीन और मिठाई बनाने में होता है।
काबुली चना
भटूरे और कुलचे तो खाते ही होंगे, इनके साथ परोसा जाते हैं छोले; जो काबुली चने से बनता है। ये भी एक दलहनी फसल होती है। ये हल्के बादामी रंग के आम चने से बड़े होते हैं।
राजमा
राजमा जिसे अंग्रेजी में किडनी बीन भी कहते हैं। पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कश्मीर में तो थाली का ज़रूरी हिस्सा होती है; जिसे चावल के साथ खाते हैं।
ये बेल वाली फसल होती है, कश्मीर का राजमा तो दुनिया भर में मशहूर होता है।
खेसारी दाल
खेसारी दाल जो देखने में बिल्कुल अरहर की तरह लगती है। इसे गरीबों की अरहर दाल भी कही जाती है। पहले इसकी खेती बहुत होती थी, लेकिन धीरे-धीरे इसका रकबा कम होता है।
मराठी में इसे लाख-लाखोड़ी, हिन्दी, असमी, बंगाली, बिहारी में खेसारी-खेसाड़ा व तिवरा, तिवरी भी कहा जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसे लतरी कहते हैं। खेसारी दाल में ओडीएपी नाम का तत्व पाया जाता है, जो सेहत के लिए हानिकारक होता है।
मटर दाल
रबी सीजन में हरी मटर तो हर घर में पहुँच जाती है, लेकिन इसी मटर के सूखने के बाद इससे दाल भी तैयार होती है। मटर दाल दो तरह की होती है एक छोटी और एक बड़ी मटर। इसकी खेती रबी सीजन में आलू, सरसों और गेहूँ के साथ भी की जाती है।
अगली बार कोई पूछे तो मटर दाल का नाम मत भूलिएगा। पीले रंग की ये दाल चना दाल से मिलती-जुलती है।
गहत या कुलथी दाल
उत्तराखंड में तो आपको हर एक घर में गहत की दाल मिल जाएगी। इसे हिंदी में कुलथी, कुलथ, खरथी, गराहट; संस्कृत में कुलत्थिका, कुलत्थ; गुजराती में कुलथी; मराठी में हुलगा, कुलिथ, उत्तराखंड की स्थानीय भाषा में गहत कहते हैं।
काली-भूरी रंग की इस दाल को पथरी बीमारी में फायदेमंद माना जाता है।
सोयाबीन
बाज़ार में सोयाबीन का तेल आसानी से मिल जाता है, लेकिन शायद आप नहीं जानते होंगे कि सोयाबीन तिलहन नहीं बल्कि दलहनी फसल होती है। प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन की खेती दुनिया भर में होती है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की ये प्रमुख फसल होती है।
भट्ट दाल
उत्तराखंड की एक दाल काफी मशहूर है जो भट्ट दाल है; इसे चैंसू भी कहा जाता है। सर्दियों में पहाड़ी, भट्ट की दाल ही खाना पसंद करते हैं। इसकी तासीर गर्म होती है और यह पोषक तत्वों से भी भरपूर होता है। भट्ट की दाल को चुड़कानी नाम से भी जाना जाता है। भट्ट दो तरह के होते हैं एक काले भट्ट और दूसरे सफेद भट्ट।
ये तो हुईं दालों की कहानी। अगली बार जब भी आपसे कोई पूछे कि कौन सी दाल खानी है तो काली, पीली या लाल दाल कहने के बजाय उनका नाम बता दीजिएगा।