कर्नाटक में अपनी प्रगतिशील परियोजना री हैब (RE-HAB) की सफलता के बाद अब खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी) इस परियोजना को असम में भी दोहरा रहा है। यहां पर भी मधुमक्खियों की मदद से हाथियों को रोका जाएगा।
केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना ने 3 दिसंबर शुक्रवार को असम के गोलपारा जिले के ग्राम मोरनोई में आरई-एचएबी परियोजना का शुरूआत की, इस इलाके में हाथी-मानव संघर्ष की काफी घटनाएं होती हैं। असम में स्थानीय वन विभाग के सहयोग से इस परियोजना को लागू किया गया है। घने जंगलों से घिरे हुए असम के एक बड़े हिस्से में हाथियों का आना-जाना लगा रहता है, वर्ष 2014 से 2019 के बीच हाथियों के हमलों के कारण 332 लोगों की मौत हुई है।
इससे पहले कर्नाटक के कोडागु जिले में नागरहोल नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व के बाहरी इलाकों में केंद्रीय री-हैब (RE-HAB) योजना की शुरूआत की गई थी । प्रोजेक्ट री-हैब (मधुमक्खियों के माध्यम से हाथी-मानव हमलों को कम करने की परियोजना) का उद्देश्य शहद वाली मधुमक्खियों का उपयोग करके मानव बस्तियों में हाथियों के हमलों को विफल करना है और इस प्रकार से मनुष्य व हाथी दोनों के जीवन की हानि को कम से कम करना है। री-हैब (Reducing Elephant Human Attack by using Bees)
आरई-एचएबी परियोजना के तहत मानवीय बस्तियों में हाथियों के प्रवेश को अवरुद्ध करने के लिए उनके मार्ग में मधुमक्खी पालन के बक्से स्थापित करके “मधुमक्खियों की बाड़” लगाई जाती है। इन बक्सों को एक तार से जोड़ा जाता है ताकि जब हाथी वहां से गुजरने का प्रयास करता है, तो एक खिंचाव या दबाव के कारण मधुमक्खियां हाथियों के झुंड की तरफ चली आती हैं और उन्हें आगे बढ़ने से रोकती हैं। यह परियोजना जानवरों को कोई नुकसान पहुंचाए बिना ही मानव और जंगली जानवरों के बीच संघर्षों को कम करने का एक किफ़ायती तरीका है।
यह वैज्ञानिक रूप से सही पाया गया है कि हाथी मधुमक्खियों से चिढ़ जाते हैं। उनको इस बात का भी भय होता है कि मधुमक्खियां उनकी सूंड और आंखों के अन्य संवेदनशील अंदरूनी हिस्सों में काट सकती हैं। मधुमक्खियों के सामूहिक कोलाहल से हाथी परेशान हो जाते हैं और वे वापस लौटने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
हाथियों को भगाने के लिए मोरनोई और दहिकाटा गांवों में एक सप्ताह के भीतर कुल 330 मधुमक्खी बक्से अलग-अलग जगहों पर रखे जाएंगे। इन गांवों के 33 किसानों और शिक्षित युवाओं को केवीआईसी द्वारा मधुमक्खियों के ये बक्से दिए गए हैं, जिनके परिवार हाथियों से प्रभावित हुए हैं।
इन गांवों में साल में 9 से 10 महीने तक लगभग हर दिन हाथियों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाने की खबरें आती रहती हैं। यहां पर हाथियों के हमलों का खतरा इतना गंभीर है कि पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीणों ने उनके हमले के डर से अपने खेतों में कृषि कार्य करना बंद कर दिया था।
इन गांवों में धान, लीची और कटहल का प्रचुर उत्पादन होता है, जो हाथियों को काफी आकर्षित करता है। हाथियों पर मधुमक्खियों के प्रभाव और इन क्षेत्रों में उनके व्यवहार को रिकॉर्ड करने के लिए सामरिक महत्व के बिंदुओं पर उच्च रिज़ॉल्यूशन वाले और नाइट विजन कैमरे लगाए गए हैं।
केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना कहा कि प्रोजेक्ट आरई-एचएबी मानव-हाथी संघर्षों का एक स्थायी समाधान साबित होगा जो असम में बहुत आम बात है। आरई-एचएबी परियोजना से कर्नाटक में एक बड़ी सफलता मिल रही है और इसलिए इसे असम में अधिक दक्षता तथा बेहतर तकनीकी जानकारी के साथ लॉन्च किया गया है। हमें उम्मीद है कि इस परियोजना के जरिये आने वाले महीनों में हाथियों के हमलों में कमी आएगी और स्थानीय ग्रामीणों को उनके खेतों में वापस लाया जा सकेगा।
सक्सेना ने कहा कि केवीआईसी द्वारा किसानों को मधुमक्खी के बक्सों का वितरण मधुमक्खी पालन के माध्यम से उनकी आय में भी इजाफा करेगा। इस मौके पर केवीआईसी के पूर्वोत्तर जोन के सदस्य दुयो तमो भी मौजूद थे।
विशेष रूप से प्रोजेक्ट आरई-एचएबी केवीआईसी के राष्ट्रीय शहद मिशन का एक उप-मिशन है। यह अभियान मधुमक्खियों की आबादी, शहद उत्पादन और मधुमक्खी पालकों की आय बढ़ाने के लिए एक विशेष कार्यक्रम है, जबकि प्रोजेक्ट आरई-एचएबी हाथी के हमलों को रोकने के लिए मधुमक्खी के बक्से को बाड़ के रूप में उपयोग करता है।
15 मार्च 2021 को कर्नाटक के कोडागु जिले में 11 स्थानों पर प्रोजेक्ट आरई-एचएबी शुरू किया गया था। केवल 6 महीनों में ही, इस परियोजना ने हाथियों के हमलों को 70% तक कम कर दिया है।
भारत में हर साल हाथियों के हमले से करीब 500 लोगों की मौत हो जाती है। यह देश भर में बड़ी बिल्लियों (बाघ, तेंदुआ,चीता आदि) के हमलों से होने वाली मौतों से लगभग 10 गुना अधिक है। साल 2015 से 2020 तक हाथी के हमलों में लगभग 2500 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। इसके उलट इस संख्या का लगभग पांचवां हिस्सा यानी करीब 500 हाथियों की भी पिछले 5 वर्षों में इंसानों की जवाबी कार्रवाई में मौत हो चुकी है।
बीते समय में, सरकारें हाथियों को रोकने के लिए खाई खोदने और बाड़ लगाने के काम पर करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी हैं। साथ ही मानव जीवन के नुकसान के मुआवजे पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। ये खाइयां और कांटेदार तार की बाड़ अक्सर हाथियों के बच्चों की मौत का कारण बनती है और इस प्रकार यह उपाय इन विचारों को काफी हद तक अव्यावहारिक बना देता है।
गैर सरकारी स्तर पर पिछले कई वर्षों से चल रहा है काम
मानव-हाथी संघर्ष सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में हैं। वाइल्ड लाइफ रिसर्च एंड कंजर्वेशन सोसायटी (WRCS) मधुमक्खियों और दूसरे सरल परंपरागत तरीकों से हाथियों से निपटने का काम 2010 से कर्नाटक के काली टाइगर रिजर्व इलाके में काम कर रही है।
डब्ल्यूआरसीएस की कार्यकारी निदेशक (शोध) डॉ. प्राची मेहता बताती हैं, “मधुमक्खियों के जरिए हाथियों को रोकने का तरीका बेहद सुलभ और सस्ता है। इसमें किसी को नुकसान नहीं पहुंचता है। सबसे पहले ये प्रयोग अफ्रीका में वैज्ञानिक डॉ. लूसी किंग ने किया था। 2009 में चीन में एक एलीफैंट कॉन्फ्रैंस में मेरी उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने भारत में इसे शुरु करने की सलाह दी। साल 2010 से हम कर्नाटक में इसे कर रहे हैं। हमने देखा कि मधुमक्खियों की आवाज सुनकर हाथी अपना सिर घुमाने लगते हैं और 3-4 मिनट में वो खेत छोड़कर चले जाते थे।”
वाइल्ड लाइफ रिसर्च एंड कंजर्वेशन सोसायटी स्थानीय किसानों को मधुमक्खियों के साथ ही चिली स्मोक (मिर्च और तंबाकू के धुएं) समेत कई अन्य सुलभ उपायों से हाथियों को दूर करना सिखा रही है।
डॉ. प्राची मेहता प्रयोग के बारे में आगे बताती हैं, “शुरु में हमने हाथियों के रास्तों में स्पीकर लगाकर मधुमक्खियों की आवाज़ करते थे। लेकिन हाथी बहुत समझदार पशु है वो समझ गए है कि सिर्फ आवाज है कोई पीछे नहीं है। हाथियों की याददाश्त भी बहुत अच्छी होती है। फिर हमने खेतों के किनारों पर मधुमक्खियों की बाड़ लागनी शुरु की। जिसके बहुत अच्छे नतीजे मिले हैं। काफी लोग हमारे यहां सीखने आते हैं।
सबसे पहले अफ्रीका में हुआ था मधुमक्खियों से हाथियों को भगाने का प्रयोग
“अफ्रीका में जो तरीका डॉ. लूसी किंग अपना रही थीं, वह बहुत खर्चीला था क्योंकि वो हर जगह पर लकड़ी के बक्से बना रही थीं। लेकिन हम लोगों के जंगल में गिरे पेड़ों का इस्तेमाल किया है। उन्हें लाकर खेतों के किनारे पर रखा और वहीं पर प्राकृतिक रुप से मधुमक्खियों को बसने दिया। इसका खर्च बेहद कम है। आप समझिए कि जंगल विभाग प्रभावित गांवों को 30-40 हजार रुपए देता है और उसी में गांव के सभी प्रभावित किसानों का काम चल जाता है।”