भाजपा को अम्बेडकर और कांशीराम याद आए

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भाजपा को अम्बेडकर और कांशीराम याद आएgaonconnection

बांभन बनिया पार्टी अब कांशीराम के पदचिन्हों पर चलना चाहती है जो कहते थे ‘‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा” लेकिन एक बात और वह कहते थे ‘‘हम आरक्षण मांगेंगे नहीं, आरक्षण देंगे।” यह बात अम्बेडकर के प्रस्ताव 1960 तक आरक्षण से बहुत आगे की बात है।

अब तो उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के फैसलों के बावजूद बांभन बनिया पार्टी भी प्रमोशन में आरक्षण का वादा कर रही है। कांशीराम के चेले आएंगे या नहीं लेकिन बांभन बनिया तो दूर चले ही जाएंगे।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही तो कोहराम मच गया। आखिर समीक्षा में बुराई क्या है? चुनाव प्रचार के समय नरेन्द्र मोदी ने कहा था धारा 370 की समीक्षा होनी चाहिए लेकिन चुनाव जीतते ही भूल गए। डॉ. अम्बेडकर ने आरक्षण 1960 तक के लिए दिया था, पार्टी को उनका संविधान तो मंजूर है उनका प्रावधान नहीं। सोचने की बात है कि जो जातियां सवर्णों पर हुकूमत कर चुकी हैं या कर रही हैं उन्हें दलित या पिछड़ा कैसे कह सकते हैं।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को 1961 में लिखा था, ‘‘मैं हर प्रकार के आरक्षण को नापसन्द करता हूं विशेषकर सेवाओं में।” सरदार वल्लभ भाई पटेल भी आरक्षण को देशहित के विरुद्ध मानते थे। यहां तक कि राजीव गांधी ने 6 सितम्बर 1990 को वीपी सिंह से कहा था, ‘‘आप ने सारे देश में जातीय हिंसा की आग जला दी है।” यह सन्दर्भ था मंडल कमीशन की अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का। महात्मा गांधी और डॉ. अम्बेडकर के बीच 1932 में हुए पूना पैक्ट का सम्मान करते हुए 85 प्रतिशत का आरक्षण 1960 तक दलितों को दिया जाना था। नेताओं को पता है कि यह अवधि कब की समाप्त हो चुकी है।

यदि जातीय गणना के हिसाब से सेवाओं में आरक्षित वर्गों की संख्या पूरी करनी हो तो अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा करनी होगी। पदों की कमी नहीं है, कमी है योग्य अभ्यर्थियों की। ऐसी हालत में वैज्ञानिक प्रतिष्ठान, कल कारखाने और प्रशासनिक इकाइयां या तो धीमी गति से चलेंगी या रुकी रहेंगी जब तक कोटा पूरा ना हो जाए। अब अपराधियों में सवर्णों का प्रतिशत बढ़ा हुआ लगता है।

ऐसे अपराधियों को पकड़ पाना कठिन होता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आन्दोलित मेधावी छात्रों को पेट्रोल पम्प और मिट्टी के तेल का लाइसेंस देने, मारुति कार की एजेंसी देने की बात कही थी। इससे दुखद क्या हो सकता है कि जो विद्यार्थी रिसर्च और आविष्कार कर सकते हैं उन्हें तेल बेचने का अवसर दिया जा रहा था। यह मेधा का अपमान नहीं तो क्या है। यदि आरक्षण व्यवस्था को तर्कसंगत ढंग से नहीं लागू किया गया तो दलितों का विकास तो होगा ही नहीं दूसरे वर्गों में असन्तोष बढ़ता जाएगा। समय-समय पर सामाजिक समरसता की समीक्षा तो होनी ही चाहिए कि आरक्षण कहीं सामाजिक समरसता को बिगाड़ तो नहीं रहा है।

 

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