भाषण ही राजनीति का एकमात्र राशन नहीं

रवीश कुमाररवीश कुमार   23 Aug 2015 5:30 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
भाषण ही राजनीति का एकमात्र राशन नहीं

रवीश कुमार 

लोकसभा की बहस का नतीजा वही निकला जो दो महीने से सदन के बाहर हो रही बहसों से निकल रहा था। यही कि अब राजनीति में आदर्श और नैतिकता को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए। छोड़ तो दिया ही गया है पर सवालों और जवाबदेही के स्तर पर इसकी विदाई हो जानी चाहिए। दशकों से जनता देखती आ रही है कि किस तरह से एक राजनैतिक दल अपनी अनैतिकता को बचाने के लिए दूसरे दल की अनैतिकता से प्रेरणा पाते हैं। मैंने मज़ाक में इसे राजनीति का 'इज़ इक्वल टू थ्योरी' कह दिया पर राजनीतिक दल इसे साबित करने को कुछ ज़्यादा ही गंभीर हो गए।

भाषण बात कहने की कला है, अपने आप में बात नहीं है। अपने ऊपर उठे सवालों को भाषण से दूसरे पाले के लिए सवाल में बदल देने से जवाब नहीं बनता। सवाल बनता है कि आखिर ये कब और कैसे हुआ कि दोनों एक दूसरे के जैसे बनते चले गए। क्या कांग्रेस की नियति बीजेपी होना है और बीजेपी की नियति कांग्रेस होना है। बाकी जो नए दल हैं वो अलग नहीं है। सब समानांतर हैं और सब बराबर है। ये राजनीति की मौत है। लोक जगत में राजनीति से ज्यादा कल्पनाशील और रचनात्मक दूसरा सार्वजनिक कार्य नहीं है। पर उसकी हालत बॉलीवुड की 'बी ग्रेड' सुपर हिट फ़िल्मों जैसी हो गई है।

पूछा जाता है कि जून में बारिश क्यों नहीं हुई तो जवाब आता है अगस्त में तूफान क्यों आया। जून के कारण अगस्त के कारणों में दफ़न हो जाते हैं। क्या चर्चा इस बात को लेकर थी कि कांग्रेस के राजीव गांधी ने एंडरसन को क्यों भगाया। क्वात्रोकी को क्यों भगाया गया, क्या चर्चा इस बात को लेकर थी कि वित्त मंत्री रहते चिदंबरम की पत्नी को आयकर विभाग ने वकील कैसे नियुक्त किया। सुषमा स्वराज ने बताया कि राज्य सभा में पिछली सरकार में चर्चा हुई तो चिदंबरम आसानी से बच गए। अब किसे याद होगा कि तब बीजेपी ने चिदंबरम को आसानी से क्यों छोड़ा। लेकिन भाषण कला से क्या सुषमा स्वराज यह बता रही थीं कि मैंने तो चिदंबरम जैसी गलती की थी। जब हमने उन्हें बचके जाने दिया तो आप भी हमें बचकर जाने दीजिए।

इनसे ललित मोदी की मदद से उठे सवालों के जवाब नहीं मिल सकते। ये सब कांग्रेस की काली कोठरी की वो कालिख है जिससे काजल लगा कर बीजेपी अपना रूप नहीं संवार सकती।

सुषमा से सवाल था कि आपने ललित मोदी की मदद क्यों की। उन्होंने बहुत आसानी से ललित मोदी की पत्नी को ढाल बना लिया। शायद इस उम्मीद में महिला मतदाता ख़ुश हो जाएंगी कि महिला की मदद तो अंतिम सत्य और कर्म है। इसी दम पर सुषमा स्वराज कहती रहीं कि अगर ये गुनाह है तो ये गुनाह किया है। पर सवाल ये नहीं था। सवाल था कि सबकुछ व्यक्तिगत स्तर पर क्यों किया। मंत्रालय को क्यों नहीं बताया। दो मुल्कों के संबंध की गारंटी ललित मोदी के लिए दी गई या उनकी पत्नी के लिए। खुद कहती रहीं कि मदद की है लेकिन सबूत मांगती रहीं कि दिखा तो दीजिए कि मैंने कुछ लिख कर दिया है। जैसे कि अनैतिकता सिर्फ लिख कर होती है। ललित मोदी भगोड़ा है तभी तो इसी अगस्त में उसके खिलाफ रेड कार्नर नोटिस जारी हुआ है। लंदन में बैठा भगोड़ा कांग्रेस व भाजपा को चकमा देकर हमारी राजनीति का लालित्य बन जाता है।

उसी तरह कांग्रेस न तो अपने सवालों पर टिकी रह सकी न सुषमा के सवालों का जवाब दे सकी। वो अपने गुनाहों से इतनी भयभीत हो गई कि सुषमा के इल्ज़ामों के आगे धाराशाही हो गई। अपने ही सवालों से पल्ला झाड़ लिया। एंडरसन और क्वात्रोकी का कुछ जवाब तो बनता ही था। जब बात उठ गई थी तो जवाब आना चाहिए था। जवाब देने के लिए राहुल गांधी आए तो लगा कि जवाब मिलेगा। जवाब नहीं दिया। कहने लगे कि सुषमा स्वराज ने बहस से एक दिन पहले उनका हाथ पकड़ कर बोला कि बेटा तुम मुझसे ग़ुस्सा क्यों हो। राहुल ने कहा कि मैं ग़ुस्सा नहीं हूं। मैं सत्य के साथ हूं तो सुषमा जी ने नज़र झुका ली।

सदन में सुषमा चुप होकर सुनती रहीं। मुझे लगा कि अब वे उठकर राहुल गांधी को लाजवाब कर देंगी। मगर भाषण कला में माहिर सुषमा स्वराज के पास कोई हथियार नहीं बचा था। सुषमा को इन सवालों का जवाब देना चाहिए था।

यही होता रहा है, यही हुआ और यही होगा। सवाल के जवाब उस सवाल से नहीं मिलेंगे। कांग्रेस और बीजेपी ने मिलकर ललित मोदी को जीता दिया। स्पीकर को भी बहस संचालित करने के साथ-साथ देखना चाहिए कि दोनों तरफ सवालों के जवाब मिल रहे हैं या नहीं।

बहरहाल लोकसभा की बहस का नतीजा यह निकला कि सबको भाषण कौशल के प्रदर्शन का मौक़ा मिला। सबकी राजनीति जब एक सी हो जाती है तब राजनीति मर जाती है। लोकतंत्र में जब विकल्प एक समान हो जाए तो लोकतंत्र मर जाता है। लोकतंत्र के खिलाफ हरकतें होने लगती हैं। जनता की आवाज़ दबने लगती है। इस समान स्थिति में आपने देखा होगा कि राजनीतिक दल कार्यकर्ता की जगह सदस्य बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। वो आपके राजनीतिकरण का पार्टीकरण करना चाहते हैं। इसीलिए हिन्दू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है ताकि आप दल विशेष से नाराज तो हो सकें मगर आपके लिए पाला बदलना मुश्किल हो जाए। इसलिए अब इस लोकतंत्र में जनता हमेशा हारेगी।
(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं, ये उनके अपने विचार हैं)

 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.